॥7॥ गुड़िया घर
सुधा भार्गव
मैं जब छोटी थी गुड़िया खेलने का बड़ा शौक था i
मेरे पास कोई एक गुड़िया नहीं थी बल्कि लकड़ी की अलमारी
में उनका बड़ा सा घर बसा हुआ था I माँ के हाथ की बनी रंग-बिरंगी गुड़िया बहुत नखरेवाली हमेशा चारपाई पर बैठी रहती I
जयपुर से बुआ लकड़ी की गुड़िया लायीं I उसकी तो हमेशा गर्दन ही हिलती रहती I दूसरी बार आयीं तो लकड़ी के बर्तन लायीं Iमुझे बड़ा बुरा लगा I
मैंने तो कह दिया --बुआ ,मेरी गुड़ियाँ तो स्टील के बर्तन में खाती है और हाँ ,जमीन पर सोने से उन्हें ठण्ड लगती है Iअगली बार आओ तो पलंग और मेज -कुर्सी जरूर ले आना I
बुआ के कारण गुड़िया घर भरा -पूरा लगता था I
मैं मथुरा बड़े शौक से जाती वहाँ मेरी मौसी रहती थींI मौसी सुन्दर -सुन्दर गुड़ियाँ ब नातीं I वहाँ पहुँचते ही कहना शुरू कर देती --
-मेरी अच्छी मौसी! प्यारी सी एक गुड़िया बना दो I
-बिटिया ,जरा खाना बना लूँ फिर छोटी सी गुड़िया बना दूंगी I
-छोटी नहीं ---बड्डी सी - - अपने दोनों हाथों को फैला देती I
-थोड़ी देर में फिर कहती --खाना बनाने में मौसी बहुत देर करती हो I पहले मेरी गुड़िया बना दो |
माँ झुंझला पडतीं --जब देखो रट लगाये रहती है -गुड़िया बना दो ---गुड़िया बना दो I नहीं बनेगी तेरी गुड़िया I खाना बनाने के बाद तेरी मौसी खाना खायेगी I
पेट भरते ही मौसी पलंग पर लुढ़क जाती और भरने लगती खर्राटे मैं खड़ी इन्तजार करती --कब मौसी जगे ,कब कहूँ ;अब तो बना दो मेरी गुड़िया I
एक दिन मौसी की नींद खुली I देखा -मैं चुप से खड़ी हूँ I वे मेरे मन की बात जान गयीं I उठीं ,बक्से में से पुरानी धोती निकाली I उसे जमीन पर फैलाया Iगुड़िया के हाथ की ड्राइंग करके उसकी दो परतें काटीं I
फुर्ती से चलते मौसी के हाथों ने शीघ्र ही सुई -धागा थामा,तीन तरफ से हाथ की सिलाई की I उसमें रुई भरकर बोली --ले हो गया हाथ तैयार I
-एक ही हाथ बनेगा क्या !
-गुड़िया का दूसरा हाथ पैर सर सब बनेंगे तू देखती जा I
मैं सच में अपनी मौसी को निहार रही थी I
कभी कहती -ठंडा पानी लाऊँ I मिट्टी के घड़े से पानी लाती I
कभी कहती -पंखा झल दूँ Iछोटे हाथों से पंखा डुलाने लगती I
मौसी की गुड़िया बन तो गई पर - - - - - -
मेरी हंसी छूट पडी ---ही --ही --गंजी --इसके तो बाल ही नहीं हैं I
-तू तो चाहती है एक मिनट में गुड़िया बन जाय I जरा सब्र करI इस सुई में धागा डाल I मुझे कम दिखाई देने लगा है I
मैंने धागा डाला I मौसी ने लम्बे -लम्बे बाल बनाये I हवा का झोंका आया, वे लहराने लगे I आँखों की जगह दो बटन टीप दिए I
-इसका तो मुंह ही नहीं है खायेगी कैसे !
-उफ !चुप हो जा !अब काले की जगह लाल धागा सुई में पिरो दे I
मौसी ने अनार के दानों से लाल ओंठ बना दिए I गुड़िया हंसने लगी I
मै बतियाने लगी--मेरी रानो,मौसी तुझे सितारों से चमकते कपडे पहनाएगी I
-मैं तो थक गई ,कल पहनाऊंगी I
-मैं अभी आपके पैर दाब देती हूँ I बोलो- कहाँ दर्द है !दो मिनट की ही तो बात है बस अपनी जैसे साड़ी पहना दो I
माँ तो बरस पडी --हद कर दी तूने ! दीदी को अब आराम करने दे I
--डांट मत,बच्ची बहुत भोली है अभी पहना देती हूँ इसे साड़ी I भद्दी भी लग रही है |
मैं तो झूम -झूम उठी- आह! मेरी अच्छी मौसी !
गुड़िया को जल्दी से गोदी में लिया और निकल गई बाहर घुमाने I लगा जैसे वह मेरे शरीर का एक अंग हो I खुश होती तो उसे प्यार करती ,कोई मुझे डांटता तो जी भरकर उससे शिकायत करती I
वह मुझे सच्ची दोस्त लगी इसलिए उसे मैंने गुड़िया घर में सजा कर रख दिया I वह मुझे टुकुर -टुकुर देखती रहती पर समय की धूल ने हम दोनों के बीच पर्दा डाल दिया I
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सुधा मेम
जवाब देंहटाएंप्रणाम !
आप कि अक्सर बाल कहानिया पढ़ी है मैंने मगर इक बात देखी है कि आप संस्मरणात्मक अधिक लिखती है . बधाई
साधुवाद
ना जाने क्यों.... फिर वो पर्दा उठता ही नहीं.....
जवाब देंहटाएंpadhkar achcha laga.
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जवाब देंहटाएंपहली बार आपको पढ़ा है !अच्छा लगा ..... आप प्रभाव छोड़ने में कामयाब हैं !
शुभकामनायें !