॥11॥खट्टी-मीठी इमली
सुधा भार्गव
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मैं जब छोटी थी मुझे इमली .बेर ,जामुन खाने का बड़ा शौक था। लेकिन उन्हें खाते ही खांसी हो जाती।गले से ऐसी आवाज निकालती मानो कुत्ता भौंक रहा हो |
मुझे खांसता देख पिताजी को बहुत दुःख होता मानो उनकी दुखती रग को किसी ने दबा दिया हो। वे साँस के मरीज थे। हमेशा उनके दिमाग में खौफ की खिचड़ी पकती रहती ---कहीं यह रोग किसी बच्चे को विरासत में न दे जाऊँ।
एक रात मुझे बहुत जो रों से खांसी शुरू हो गई ।पिताजी ने इंजेक्शन लगाया और बैनेद्रल सीरप पिलाया।तब कहीं जाकर सोई।दूसरी रात फिर खांसी का दौर शुरू हो गया--------
पिता जी ने शक भरी,पैनी नजरों से मेरी ओर देखा । पूछा ----
--दिन में कुछ ऊटपटांग खाया क्या !
मैंने तो मुँह भींच लिया पर मुन्ना बोल पड़ा --
--पिताजी ----इमली खाई थी--।
उनका गुस्सा तो आसमान तक चढ़ गया -----
-न जाने क्या -क्या खाते रहते हैं --दुबारा खाँसी तो निकल दूँगा कमरे से।
मैं भुनभुनाई --चुगलखोर !कल मजा चखाऊँगी--मुन्ना की ओर जलती आँखों से देखा। लिहाफ सिर तक ढका और सोने का नाटक करने लगी कि आई बला टल जाय।
दो तीन दिन तो उनके गुस्से का असर रहा फिर दिमाग चल निकला --लप लप करते जीभ अलग उछलने लगी ----
इमली --इमली के पत्ते --आह कितने खट्टे !बस एक बार -----
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---एकबार मौका मिल जाये --|
एक जलती दोपहरी में पिताजी कूलर की हवा में खर्राटे भर रहे थे ।मेरा दिमाग तो --हिरनी की तरह कुलाँचें मरने लगा ।
घर के भरी भरकम मुख्य दरवाजे को किसी तरह ठेला।फार्मेसी में काम करने वालों से अपने को बचाते हुए मैं और मुन्ना भाग निकले----- जैसे चोर सिपाहियों के डर से भागते हैं ।
भागते -भागते अमीन -नासिरा मिल गए रवीन्द्र -राजेंद्र को आवाज लगी--तुरंत हाजिर ।
हमारी छोटी सी टोली हंसती -फुदकती गंगा के किनारे ऊंचे से टीले पर चढ़ गई ।
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मैंने खट से एक इमली उठाई ,खट से उसे तोड़ा--अन्दर से एकदम लाल-चमकदार --हो न हो तोते के कुतरने से यह लाल हो गई है ।
--हाँ --उसकी चोंच भी तो लाल है ,उसी का रंग लग गया है रविन्द्र बोला।
--बड़ी मीठी है !
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रविन्द्र ने एक इमली तोड़ी --वह हरी निकली ।उसने जीभ से लगाई ही थी कि झटके से दूर फेंक दी --धत तेरे की --महाखट्टी----एकदम खट्टी --|
अमीना के हाथ जो इमलियाँ हाथ लगीं , दोनों की दोनों लाल | सब उस पर चील की तरह झपट पड़े और मिल -मिलकर खायीं।
किसी ने न सोचा -धूल में गिरी इमली गंदी है या एक -दूसरे का झूठा खाना ठीक नहीं--। बस बचपन की खेती लहलहा रही थी।
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इमली खाई तो मगर नियत कहाँ भरी- - - ! रात भर पेड़ों से लटकी मोटी -मोटी इमलियाँ सपने में आती रहीं ।
सुबह सोकर उठी । सूर्य की सी लाली चेहरे पर थी - - - इमली के पेड़ पर पहुँचने की तरकीब जो सूझ गई थी ।
दोपहर होते ही अपनी टोली के साथ मैं नूरा ग्वाले के पास जा पहुँची।
सुबह पाँच बजे वह मोहल्ले का चक्कर लगाता -दूध ले लो --दूध !मीठा दूध --हल्का दूध --
अक्सर अशोक भाई के लिए मैं दूध लेती थी ।
नूरा मुझे अपने आँगन में खड़ा देख अचकचा गया ।वह नीम के पेड़ की छाया में
बकरी के सुन्दर से बच्चे को गोदी में लिए खड़ा था |
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वह कुछ समझे उससे पहले ही मेरा रिकार्ड चालू हो गया ----
--नूरा तुम मुझे अपना ऊँचा सा डंडा दे दो जिसके एक सिरे पर धारवाला हंसिया ठुका है ।
तुम खटखट पेड़ की हरी -हरी पत्तियां काटकर बकरियों को गिराते हो, मैं उससे इमली की डंडियाँ काटकर गिराऊँगी ---पट -पट गिरती इमलियों को मेरी टोली दौड़कर लपकेगी---कितनी मजा आयेगा --बस ,जल्दी से अपना डंडा दे दो ।
नूरा समझ गया-- मुझ अड़ियल टट्टू के आगे उसकी एक न चलेगी। सिर खुजलाते बोला --चलो मैं इमली गिरा कर आता हूं।
हमारे तो पैर ही नहीं पड़ रहे थे जमीन पर खुशी से ।
सबसे आगे मैं, फिर टोली और उनके पीछे नूरा हाथ में लंबा सा हंसिये वाला डंडा लिए। यह जुलूस शीघ्र ही टीले पर जा पहुँचा।उसने पत्तों सहित इमली की टहनियां गिरानी शुरू कर दीँ।साथियों ने तो अपनी झोली और जेबें आराम से भर लीं पर मैं केवल मुट्ठियाँ ही भर पाई ----घर पहुँचने से पहले ही मुझे रास्ते में ही खट्टी -मीठी इमलियाँ खत्म करनी थीं ।
टीले से उतरते समय मैं नूरा के पास आई और धीरे से बोली --पिता जी से कुछ मत कहना वे बहुत गुस्सा होंगे ।
हंसकर बोला ---दुबारा यहाँ न आना । यह अच्छी जगह नहीं है।मेरी बात मानोगी तो बाबू जी से कुछ नहीं कहूँगा।
मन मसोसते हुए हामी भरनी पड़ी । पोल न खुल जाये ,इस डर से सच ही टीले पर फिर नहीं गई ।
घर तक पहुँचते -पहुँचते मैंने कुछ इमलियाँ चबा ली--- कुछ गटक लीं-- तीन -चार बचीं उन्हें फेंकने ही वाली थी कि ------
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मैंने मुट्ठियाँ कसकर बंद कर लीं और इमलियाँ बैग के हवाले कर दीँ ।
अगले दिन स्कूल जाने की जल्दी में थी कि दरोगा की तरह पिता जी ने मुझे पकड़ लिया |
नथुने फुलाते बोले --बस्ता दिखाओ ---।
--स्कूल को देर हो रही है --आकर ----।
--नहीं !फौरन दिखाओ ---कहकर बस्ता उलट दिया।
इमलियां जमीन पर गिर पड़ीं-- लहूलुहान सी-- मुझे पुकारती सी लगीं। पर मुझे भी तो अपनी जान बचानी थी सो
जल्दी से किताबें बस्ते में ठूंसी और सड़क पर आकर ही साँस ली ।
छुटपन में खट्टी चीजों के नाम से ही मैं चटकारे लेने लगती , दूसरे--- पेड़ से फल तोड़कर या बीनकर खाने में जो मजा है वह बाजार से खरीदकर खाने में कहाँ --पिताजी मेरे मन की यह बात समझ न पाए |
हाँ ,इतना जरूर है कि मेरे अनर्थ होने की जरा सी आशंका होने से उनका दिल दहल जाता । इसीलिए तो मुझ पर कड़ा पहरा था या यूं कहो पालनहारे की प्यारी सी सुरक्षा छतरी के नीचे मेरा बचपन खिलखिलाता रहता था जो रह -रहकर याद आता है।
समाप्त
इमली के चटखारे और पिता का ख्याल - दोनों ही भाए
जवाब देंहटाएंबचपन और इमली का स्वाद एक जैसा है ...बहुत ही अच्छी लगी यह बालसुलभ प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंआपकी कहानी तो पसंद आई। पर चित्रों को जिस तरह से आपने दिया है वे कहानी का प्रवाह रोकते हैं। साथ ही चित्रों की संख्या कुछ ज्यादा ही हो गई है। मुझे लगता है चित्रकथा और कथा में अंतर करने की जरूरत है। इस तरह की कहानी में दो तीन चित्र ही काफी हैं।
जवाब देंहटाएंराजेशजी
जवाब देंहटाएंसुझावों के लिए धन्यवाद । उनपर ध्यान दे रही हूं।
यह ब्लॉग बड़ों के साथ -साथ बच्चों के लिए भी है। बच्चे पढ़ते बाद में हैं पहले उनकी नजर चित्रों पर ही जाती है ।बैंगलौर ,देहली ,कलकत्ता जैसे महानगरों में पलने वाले बच्चों ने कहाँ देखी बकरी-- कहाँ देखा ग्वाला और उसका हंसिया। मेरे विचार से चित्रों की सहायता से ही ब्लॉग पर उनको समझाया जा सकता है।
आभार सहित
सुधा भार्गव
बेहतरीन कथा। आप बच्चों का बहुत भला कर रही हैं, इसमें शक नहीं है। क्या ही अच्छा हो कि आपकी इन अनुभवजन्य कथाओं को पढ़कर बाकी बच्चे (इनमें बूढ़े-बच्चे भी शामिल हो सकते हैं) भी अपने अनुभवों को साझा करने का सिलसिला चलाएँ।
जवाब देंहटाएंबलरामजी
जवाब देंहटाएंआपके सुझाव का स्वागत है ।भविष्य में शीघ्र ही इस ओर कदम उठाने का प्रयास किया जायेगा ।
आभार
सुधा भार्गव
शुक्रवार --चर्चा मंच :
जवाब देंहटाएंचर्चा में खर्चा नहीं, घूमो चर्चा - मंच ||
रचना प्यारी आपकी, परखें प्यारे पञ्च ||
सुधाजी आपके रोचक खटमिट्ठे संस्मरण ने बचपन याद करा दिया ।तब ----लडकियों को इमली नहीं खानी चाहिये--जैसी वर्जना के साथ कई हमें चेतावनियाँ भी दी जातीं थीं । पर दरवाजे पर ही खडा इमली का पेड जैसे हमें बुलाता रहता था । सावन में उसकी मजबूत डालियों पर झूला झूलने के साथ ही जो नरम पत्तों व फूलों के स्वाद का सिलसिला शुरु होता वह गूङूँ--चना की फसल खलिहान में आने के समय कच्ची हरी इमलियों के कत्थई होजाने तक अनवरत चलता था । चोरी छुपे । मजे की बात यह कि न कभी गला सूजा न खाँसी हुई । हाँ अब जरूर खटाई चखने भर से गले में खरास होजाती है । वह भी खास तौर पर इमली से । और तब अपना वह अपराजेय सा बचपन याद आता है ।
जवाब देंहटाएंश्रेष्ठ रचनाओं में से एक ||
जवाब देंहटाएंबधाई ||
मित्रवर
जवाब देंहटाएंमैं आप लोगों को देख तो नहीं सकती पर ह्रदय के भावों को अवश्य
पढ़ सकती हूँ--
बड़ा कहो न मुझको
मैं तो अनजान अबोध
बालपन की मस्ती से
पुलकित है मेरा तन -मन।
बचपन के गलियारों में झाँकने से जब भी किसी के चेहरे पर मुस्कान उभरती है मुझे बहुत अच्छा लगता है।
सुधा भार्गव
बचपन की खट्टी-मीठी यादो के संग, ईमली का स्वाद...बहुत ही अच्छी लगी यह बालसुलभ प्रस्तुति ..आभार
जवाब देंहटाएंबचपन की मीठी यादें और ये मसखरियाँ दिल को बहुत भायीं।
जवाब देंहटाएंधन्यबाद आपने हमे अपना बचपन याद दिला दिया बहुत ही सुन्दर संस्मरण .
जवाब देंहटाएंछुटपन में इमली की नवांकुरित पत्तियों को खाने का... वाह अलग ही मज़ा था... वह तो इमली से ज्यादा भाती थीं....
जवाब देंहटाएंआनंद आ गया, सुन्दर संस्मरण...
सादर...
मेरे पैतृक घर के अहाते में सन्योग से खट्टी और मीठी दोनो प्रकार की इमली के पेड थे मैं ज्यादातर मीठी इमली वाले पेड पर चढ जाया करता था।आज आपका संस्मरण पढकर वह सब याद आया। चित्र भी सुन्दर हैं।आभार पढवाने के लिए।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया रहा यह संस्मरण!
जवाब देंहटाएंइसकी चर्चा तो चर्चा मंच पर बी थी!
बचपन की मीठी यादें दिल को बहुत भायीं।
जवाब देंहटाएंइमली का स्वाद भी गजब होता है।
जवाब देंहटाएंएक शब्द में सारी बात कहना चाहूँगा --
जवाब देंहटाएं'वाह!'