नये वर्ष की नई अभिलाषा ----

बचपन के इन्द्र धनुषी रंगों में भीगे मासूम बच्चे भी इस ब्लॉग को पढ़ें - - - - - - - -

प्यारे बच्चो
एक दिन मैं भी तुम्हारी तरह छोटी थी I अब तो बहुत बड़ी हो गयी हूं I मगर छुटपन की यादें पीछा नहीं छोड़तीं I उन्हीं यादों को मैंने कहानी -किस्सों का रूप देने की कोशिश की है I इन्हें पढ़कर तुम्हारा मनोरंजन होगा और साथ में नई -नई बातें मालूम होंगी i
मुझसे तुम्हें एक वायदा करना पड़ेगा I पढ़ने के बाद एक लाइन लिख कर अपनी दीदी को अवश्य बताओगे कि तुमने कैसा अनुभव किया I इससे मुझे मतलब तुम्हारी दीदी को बहुत खुशी मिलेगी I जानते हो क्यों .......?उसमें तुम्हारे प्यार और भोलेपन की खुशबू होगी -- - - - - -I

सुधा भार्गव
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सोमवार, 6 जून 2011

जब मैं छोटी थी


॥10॥ तरबूज खरबूज की बहार 
सुधा भार्गव


  छुटपन में मुझे तरबूजे -खरबूजे खाने  का बड़ा शौक था।





गरमी के दिनों  में अनूपशहर में  गंगा नदी बहुत दूर चली जाती  हैं और छोड़ जाती हैं अपने पीछे बड़ा सा रेतीला मैदान जहाँ खरबूजे -तरबूजे की खेती होने लगती  है।                                



                                                                          बाबा रोज गंगा नहाने जाते  थे। मैं और मेरा छोटा भाई भी साथ हो लेते।रास्ते में खेत  मिलते। उनमें छोटी - छोटी -हरी ककड़ियों को देखकर मैं जैसे ही  तोड़ने को हाथ बढ़ाती जोर का धमाका  होता ---मुन्नी ----!जैसे बम  फूटा हो --!बढ़े हाथ तुरंत पीछे हो जाते।

एक बार रेतीले मैदान में धोबी का लड़का कैलाशी मिल गया  ।उसे देखकर  मैं बहुत खुश हुई ।सोचा--अब तो यहाँ   खूब धमाचौकड़ी करेंगे। उसके बाप ने भी
खेती की थी। गंगा स्नान के बाद बाबाजी पूजा के लिए बैठने ही वाले थे कि वह आया और बोला ---
--बाबू जी इन्हें अपना खेत दिखा लाऊँ ।

--ले जाओ लेकिन जल्दी आना।
  तीर की तरह वहाँ से हम निकले कहीं बाबा अपना इरादा न बदल दें।
कैलाशी मेरी उम्र का दस -ग्यारह वर्ष का होगा । हम एक -दूसरे का हाथ पकड़ते -मटकते चल दिये ।

रेतीला खेत बहुत दूर था  । सूखी बालू में चलने की आदत भला कहाँ !




 ----एक पैर उठाते दूसरा रेत में घुस जाता । कभी  चप्पल अन्दर घुस  जाती, केवल  पैर ही बालू से निकल  पाता ।
कैलाशी ने मुन्ना को तो अपने कंधे पर बैठा लिया और  मुझसे बोला ----
-नंगे पैर चलो और चप्पलों को हाथ में ले लो।
चलने में थोड़ी सुविधा हुई
। अच्छा हुआ सूर्य महाराज का मिजाज ठंडा था सो बालू  गर्म नहीं हुई   वरना   तलुए ही झुलस जाते।

थोड़ी दूर चलनेपर मैं तो हांफने लगी।कैलाशी मुन्ना को लिए हिरन की तरह भाग रहा था।
मैंने आवाज दी ,ओ-- कैलाशी-- धीरे चल ,मैं रास्ता भूल जाऊँगी ।
वह एक क्षण रुकता ---फिर भागने लगता मानो उसके पैरों में पहिये लगे हों।

हमको आया देख धोबी काका(कैलाशी के पिताजी )बड़ा खुश हुआ।उसने अपने लाल ,पतले अंगोछे  से लकड़ी का तख़्त झाड़ा और प्रेम से बैठाया।

कैलाशी की बहन पारो ने  फुर्ती से ३-४ हरी -मुलायम
ककड़ियां तोड़ीं ।पानी से धोईं।
बोली --भैया ,खाओ --दीदी  तुम भी खाओ।
हम खाने में सकुचा रहे थे।वह ही ---ही करके हंस पड़ी।
--अरे तुम्हें खाना भी नहीं आता ---!देखो ऐसे खाते हैं -------।

उसने झट से एक ककड़ी दाँतों के बीच में दबाई।खट से आवाज हुई।मुँह में ककड़ी छप -छप चबाने लगी।
मैंने भी बकरी की तरह ककड़ी चबानी शुरू कर दी। ऐसा मजा आ रहा था कि अपनी सारी थकान भूल गई।
                              
      **            
-चलो ,तुम्हें खेत  की सैर कराता हूं।धोबी काका स्नेह से बोले। उन्होंने मेरे मुँह की बात छीन ली ।
बालू  में भी बड़ी मेहनत से क्यारियां बनाई गयी थीं। बीच -बीच में सरकंडे और बांस की खप्पचियां लगी थीं ताकि  बालू सरक न जाय।

एक क्यारी में नये -नये पत्तों के साथ मुलायम गद्दे पर  बेल फैली हुई थी।




 और ककड़ियाँ हिलमिलकर लेटी  थीं।दूसरी क्यारी में खरबूजे लुढ़क  रहे थे।मैंने  छोटा  सा खरबूजा तोड़ने को हाथ बढ़ाया।काका ने टोक दिया--
-अभी यह छोटा और कम  उम्र का है बड़े होने पर पकेगा
.मीठा भी हो जायेगा तब इसे तोड़ेंगे।
खरबूजा बच्चा शरारत से ठेंगा दिखाने लगा ।
  कैलाशी  एक खरबूजा् लेकर भागा -भागा आया।अपनी हथेलियों के बीच उसे जोर से दबाया  --दो टुकड़े हो गये।रसीले गूदे से भरा एक मेरी हथेली पर रखा दूसरा मुन्ना की हथेली पर।
बोला --खाओ।
-कैसे खाऊँ ?चाकू से पहले फांकें काटो।
-छोटे बाबू ,यहाँ चाकू कहाँ से आया।कटा हुआ आम छिलके के साथ कभी खाया है ---!
-हाँ !हाँ ---खाया है ।
-कैसे खाया --जरा बताओ।
-गूदा -गूदा खा लिया --छिलका-छिलका फ़ेंक दिया।
-तुम तो बहुत चतुर हो। बस ऐसे ही खरबूजा खा लो।

उसने खरबूजे के दो टुकड़ों के चार टुकड़े कर दि्ये। एक
टुकड़े  को  दोनों हाथों से पकड़ अपने  दांत उसमें  गड़ाये।देखते ही देखते गूदा चट  कर गया। छिलका  फ़ेंक दिया । हम भी उसकी नक़ल करने लगे। हरा--- .चीनी सा मीठा गूदा खरबूजे का---जल्दी ही पेट में समा गया।

खाते -बतियाते हम आगे बढ़ गये । दूर से मुझे काले सिर दिखाई दिये ।
-कैलाशी ,तुम्हारे खेत   में धूप में  भी  लोग सोते  रहते हैं क्या ?
-क्या कहा !--कहाँ  सोये हैं ---उसने लट्टू सी आँखें घुमायीं ।
उंगली उठाकर मैंने नाक की सीध में दूर इशारा किया।उसका तो हँसते -हँसते बुरा हाल हो गया।पेट पकड़ कर बैठ गया।  मैं हैरत में रह  गई।
क्यारी के  पास आये तो लगा कोई सोया -वोय़ा नहीं है बल्कि हरे -काले -पीले मटके औंधे  पड़े हैं।

-बाप रे !कितने बड़े चिकने -मोटे घड़े हैं ये जमीन पर क्यों रखे हैं ---फूट गये तो ---मुन्ना भाई  चकित हो उठा…।
-ये मटके नहीं हैं बाबू!ये तो तरबूज हैं।इसे  खाते हैं।तुम तो हमें बहुत हँसाते हो--ह--ह--ह--ही--ही--।
-मैंने तो इसे कभी खाया ही नहीं।
-अभी काट कर खिलाता हूं।
काटा तो अन्दर से एकदम लाल ! तरबूज  भी हमारी बातों
पर खूब हंसा होगा ।तभी तो उसका गोरा -गोरा मुँह  हँसते -हँसते लाल हो गया है--कैलाशी बोला ।
उसमें बहुत कम काले बीज थे।स्वादवाला और मीठा -मीठा तरबूज  कैलाशी के  छोटे   भाई की तरह


हम  गपागप खा  गये ।

हम सब बुरी तरह थक गये थे।बाबा के पास हमें पहुँचाने के लिए धोबी काका साथ आया।उसके सिर पर एक टोकरी थी।जिसमें रखे तरबूजों की खुशबू मेरी नाक में घुसी जा रही थी। पेट में तो तरबूज ठूसम-ठास भर लिया था पर मन कर रहा था इन्हें भी खा जाऊँ।

बाबा तो सफेद चंदन का टीका लगाये माला फेर रहे थे --ॐ ---ॐ ---ॐ ।
-डाँ .बाबू ,यह घर के लिए ------|

-तुम तो बहुत सारे तरबूजे  ले आये हो।
-बाबूजी मना मत करो । आप आये दिन मेरे बच्चों को अपने  बच्चे समझ  इलाज करते रहते हैं।क्या मैं इतना भी नहीं कर सकता।
बाबा उसके अपनेपन को देखकर चुप हो गये।

उस दिन तरबूजे -खरबूजों के घर की खूब सैर हुई।अब तो  न धोबी काका जैसा इंसान मिलता है न ही गंगा के उस  किनारे जाना होता है जहाँ मेरा जन्म हुआ ।लेकिन जब भी बाजार में खरबूज -तरबूज देखती हूँ धोबी काका और उनके स्नेह में भीगे तरबूज  -खरबूज खूब याद आते हैं जिनका स्वाद ही निराला था।


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15 टिप्‍पणियां:

  1. मुंह में पानी आ गया...अभी पापा से बोलती हूँ.
    ___________________

    'पाखी की दुनिया ' में आपका स्वागत है !!

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  2. प्रिय पाखी
    आशा है अब तक तुमने तरबूजा -खरबूजा जरूर खा लिया होगा ।मैने अपने दिमाग की डायरी में तुम्हारा जन्मदिन लिख लिया है।तुमने लाल-लाल तरबूजों से मुलाकात की यह जानकर मुझे बहुत अच्छा लगा।
    सुधा भार्गव

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  3. swathy vigya ka niym hai ki ritu fal hi swasthy kr hota hai n ki frij kiye huye fl
    aap ne bchchon ko sundr dng se ritu flon se prichy krvaya hai
    sadhuvad

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  4. मेरे पापा भी अनूप शहर के तरबूजों की कथा सुनाया करते थे .अहा मीठे मीठे.

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  5. बड़ा कुछ याद आया इन तरबूजों और ककड़ियों से...


    सुन्दर संस्मरण....

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  6. बडी मीठी यादें हैं और बहुत खूबसूरत भी ।

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  7. शिखा जी
    वैसे तो दुनिया में बहुत से शहर हैं।पर सबसे अनोखा शहर अनूपशहर ही है। कण-कण,पल-पल अनूप। हा--हा--हा--।
    सुधा भार्गव

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  8. प्रणाम !
    वाकई तरबूज देख मुँह में पानी आ गया , सुंदर ! मगर एक बात कि गुस्ताखी करना चाहुगा कि अगर जहा आप ने '' बाप '' कह संबोधित किया है वहा '' पिता '' लिखते तो और खूब सूरती आ जाती क्यूँ ये बच्चों के लिए भी ज़रूरी है , एक अच्छी कहानी के लिए बधाई , साधुवाद !
    सादर !

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  9. हम भी तो आ सकते हैं

    तरबूज का स्वाद लेने--


    कल कैलाश C शर्मा जी का बच्चों का ब्लॉग देखा था

    आज आपका|

    बच्चों के लिए लिखना एक

    कठिन काम है पर आप पारंगत हैं |

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  10. बहुत सुनदर विवरण और हाँ तबूज की बात चली वह भी अनूप -शहर के तरबूजों की हमने खूब खाएं हैं .बचपन बुलंदशहर में बीता .अनूप शहर और जहांगीराबाद भी देखा था .अनूप शहर में तो डिग्री कोलिज में इंटर व्यू भी दे आये थे १९६७ में पर किस्मत में तो कर्म भूमि हरियाणा लिखा था .तीन ही तो शहर हैं हिन्दुस्तान में -बुलंद शहर ,अनूप -शहर और सरदार -शहर .और हाँ एक बार अम्मा बतातीं थीं,गंगा में हम बह गए थे ,पानी का सांप आ गया था .अम्मा के हाथ से नन्ना वीरू छूट गया था .

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  11. मित्रगण
    बड़ी खुशी होती है जब अनूपशहर -बुलंदशहर से परिचित जनों से परिचय होता है और आत्मीयता बढ़ती है। गंगा किनारे के तरबूजे जिसने खालिए उसके लिए जहान के तरबूजे फीके--।ऐसा प्रतीत होता है कि इस ब्लाग का आरम्भ सार्थक हुआ। उम्र की चढ़ती सीढ़ियों पर कोई एकाएक रुक जाये और कहे --मेरा बचपन तो उमड़ते -घुमड़ते बादलों की तरह बरस कर अपनी महक फैला रहा है तो उस महक में डूबी टिप्पणी की खुशबू मुझ तक टकराती है।वह पल अति सुकून का होता है।
    सुधा भार्गव

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  12. gazab ka blog hai...aur gazab ka post bhi..badi pyaari soch ke saath rachaya basaaya ek sansaar lagta hai..


    humara bhi hausla badhaaye:
    http://teri-galatfahmi.blogspot.com/

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  13. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

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