नये वर्ष की नई अभिलाषा ----

बचपन के इन्द्र धनुषी रंगों में भीगे मासूम बच्चे भी इस ब्लॉग को पढ़ें - - - - - - - -

प्यारे बच्चो
एक दिन मैं भी तुम्हारी तरह छोटी थी I अब तो बहुत बड़ी हो गयी हूं I मगर छुटपन की यादें पीछा नहीं छोड़तीं I उन्हीं यादों को मैंने कहानी -किस्सों का रूप देने की कोशिश की है I इन्हें पढ़कर तुम्हारा मनोरंजन होगा और साथ में नई -नई बातें मालूम होंगी i
मुझसे तुम्हें एक वायदा करना पड़ेगा I पढ़ने के बाद एक लाइन लिख कर अपनी दीदी को अवश्य बताओगे कि तुमने कैसा अनुभव किया I इससे मुझे मतलब तुम्हारी दीदी को बहुत खुशी मिलेगी I जानते हो क्यों .......?उसमें तुम्हारे प्यार और भोलेपन की खुशबू होगी -- - - - - -I

सुधा भार्गव
subharga@gmail.com
baalshilp.blogspot.com(बचपन के गलियारे
)
sudhashilp.blogspot.com( केवल लघुकथाएं )
baalkunj.blogspot.com(बच्चों की कहानियां)
http://yatharthta.blogspot.com/(फूल और काँटे)

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

जब मैं छोटी थी


॥ 9॥ गंगा का  आँचल
सुधा भार्गव

मैं  जब छोटी थी गंगा नदी के किनारे उछलकूद मचाने का बड़ा शौक था ।





गंगा नदी हमारे घर से थोड़ी दूर पर ही कलकल करती बहती ।  अनूपशहर तहसील  (जिला बुलंदशहर )के पटपरी  मोहल्ले में ऊंचाई पर तिमंजिला मकान था ।जिस पर लगा   भार्गव फार्मेसी का बोर्ड-- अपने में एक पहचान थी।







गंगा का मौसम बदलता रहता | कभी खट्टा कभी मीठा।
 








सर्दियों में जब गंगा  में  बाढ़ आती ,उसके किनारे बने पक्के घाटों की सीढ़ियाँ पानी में ड़ूब जातीं। एक बार तो घाट पर बने कमरों में भी पानी भर  गया।अंधेरी  रात में हमें अपनी छत से गुस्से में भरी लहरों की सांय -सांय की आवाज सुनते समय लग रहा था बस वे आईं ---आईं और हमारे  दरवाजे से टक रायीं । मैं  डर के मारे रातभर सो भी नहीं पाई।

गरमी में गंगा का पानी सूखने लगता्।  वे  दूर चली  जाती्।तब तो-- मजा ही मजा--। छुट्टी के दिन किनारे  जाकर बालू का मैं महल बनाती ।




जिसका महल ऊंचा बनता आप जानकार उसे लात मार भाग जाती |मैं आगे -आगे .महल बनाने वाला पीछे -पीछे । पकड़ायी में आजाती तो एक थप्पड़ लग ही जाता  । इसी बीच पिताजी की कड़क दार आवाज सुनाई देती --रुक जाओ --------।
भागते कदम जम जाते |


मुझे मछलियाँ  बहुत प्यारी लगतीं  ।मैं उन्हें घर में रखना चाहती थी ।

कई बार कम पानी में रंग -बिरंगी तैरती मछलियाँ  पकड़नी चाहीं  पर वे मेरे हाथ से निकल -निकल जातीं |
दुखी मन से एक दिन  मैंने पूछा --शीला ,मैं मछली कैसे पकडूं!
-चुटकी बजाते ही पकड़ सकती हो । मछली आटे की गोलियां बड़े शौक से खाती है
|


 गोलियां देखते ही वह  दौड़ी आयेगी  बस --तुम उसे  पकड़ लेना ।मेरी सहेली बोली।

मैंने रात में ही माँ के पीछे पड़कर आटे की गोलियां बनवा लीं । अगली शाम शीला के साथ खुशी से गंगा किनारे चल  दी --आज तो एक लाल ,एक नीली .,एक पीली मछली लेकर ही लौटूंगी । साथ ही मछलियों को बंद करने के लिए एक डिब्बा भी ले लिया।

-शीला --शीला मैं  आटे की गोलियां डालती हूँ | तू मछलियाँ पकड़।
-न बाबा ---मैं नहीं पकड़ सकती।
-क्यों ?डरती है क्या ----डरपोक  कहीं की ----।
तू डाल गोलियां ,मैं पकड़ती  हूँ ----।मैं झुंझला उठी।
-अरे जल्दी पकड़ देख --देख मछली खाकर भाग गई।शीला
घबराई



-अभी पकड़ती हूँ --छप---छप।
-एक भी नहीं पकड़ी ----सारी गोलियां ख़त्म हो गईं ।
-कैसे पकडूं --बहुत चा्लाक  हैं मछलियाँ।मेरे हाथ बढ़ाने  से पहले ही भाग जाती हैं।मैं रोती सी हो गई।
-मछली चालाक नहीं है ।वह तो सब समय पानी में रहती है । बिना पानी के तो मर जायेगी !
-मर जायेगी -----भगवान् के घर चली जायेगी -----।
-हाँ ------ ।

-नहीं --नहीं--मैं उसे मारना नहीं चाहती । चल  चलें ------।

मैं खाली हाथ घर लौट आई पर लगा हाथ भरे -भरे हैं और मछलियाँ पानी से मुँह निकाल -निकालकर कह रहीं हैं थैंक्यू -------थैंक्यू --|




 * * * * * * * *