नये वर्ष की नई अभिलाषा ----

बचपन के इन्द्र धनुषी रंगों में भीगे मासूम बच्चे भी इस ब्लॉग को पढ़ें - - - - - - - -

प्यारे बच्चो
एक दिन मैं भी तुम्हारी तरह छोटी थी I अब तो बहुत बड़ी हो गयी हूं I मगर छुटपन की यादें पीछा नहीं छोड़तीं I उन्हीं यादों को मैंने कहानी -किस्सों का रूप देने की कोशिश की है I इन्हें पढ़कर तुम्हारा मनोरंजन होगा और साथ में नई -नई बातें मालूम होंगी i
मुझसे तुम्हें एक वायदा करना पड़ेगा I पढ़ने के बाद एक लाइन लिख कर अपनी दीदी को अवश्य बताओगे कि तुमने कैसा अनुभव किया I इससे मुझे मतलब तुम्हारी दीदी को बहुत खुशी मिलेगी I जानते हो क्यों .......?उसमें तुम्हारे प्यार और भोलेपन की खुशबू होगी -- - - - - -I

सुधा भार्गव
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रविवार, 15 मार्च 2015

जब मैं छोटी थी



॥20॥ धोबी -धोबिन का संसार

सुधा भार्गव  



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 मैं जब छोटी थी धोबी हमारे घर में गंदे कपड़े लेने आता था और धोबिन उन्हें देने आती। वे दादी-बाबा के समय से कपड़े धोते थे। दोनों ताड़ की तरह लंबे थे। कुछ कुछ कालू भी थे। फिर भी  पर भी मुझे अच्छे लगते थे।

मुझे अच्छी तरह याद है -धोबी कान में चांदी के कुंडल और हाथ में कड़ा पहने रहता था। धोबिन के तो क्या कहने --- चमकदार छींट का घेरदार लहंगा –ओढ़ना पहने ,चांदी के गहनों से लदी फदी जब आती तो मैं उसके पैरों की तरफ देख गिनती गिनना शुरू कर देती 1—2—3-लच्छे,पायजेब ,बिछुए। फिर हाथों को देखती और शुरू हो जाती 1—2—3—चूड़ी,कड़े,पछेली। कभी गले को देख बुदबुदाती –हँसली,मटरमाला नौलड़ीबताशे वाला हार! घूँघट के कारण उसके कान- नाक नहीं देख पाती थी।हाँ माथे पर बंधा बोर(एक गहना) उठा -उठा सा देखने से उसका पता लग जाता था। भारी से लहंगे पर भारी सी तगड़ी पहनकर चलती तो कमर लचक लचक जाती । एक हाथ से हल्का सा घूँघट संभालती और दूसरे हाथ से सिर पर रखी कपड़ों की गठरी धीरे धीरे आती,अम्मा से कहती –बहूरानी राम राम । वह तो मुझे सच में बहुत-बहुत अच्छी लगती थी।

कमरे में दादी की एक बड़ी सी फोटो थी। मैंने उन्हें देखा नहीं था पर वे तो  धोबिन से भी ज्यादा जेवर पहने हुए थीं। दादी ने चार जगह से कानों को छिदवा रखा था । उनमें लंबे-लंबे झुमके बालियाँ पहने थीं । नाक में भी तीन तीन जगह छेदन—दोनों तरफ दो लौंग और बीच में मोती वाली झुमकी। धोबिन में मुझे दादी की झलक मिलती थी इसलिया आसानी से कल्पना कर बैठी कि हो न हो धोबिन ने भी दादी की तरह कान -नाक में पहन रखा होगा। पर हाय राम नाक -कान में इतने छेद कराने से  तो बड़ा दर्द हुआ होगा। मैंने तो एक छेद कराने में आसमान सिर पर उठा लिया था। एक बार नायन काकी ने सुई में काला धागा पिरोकर मेरे कानों में आर -पार उसे  भोंक दी थी। कितना रोई चिल्लाई। सरसों का तेल और हल्दी से सेक कर- करके  मुझे परेशान कर दिया था। बहुत दिनों तक जैसे ही मैं घर में उस काकी को देखती, कुटकुटाती –माँ,इसे क्यों बुलाती हो।

एक दिन अम्मा बोलीं-मुन्नी तू हमेशा धोबिन को घूरती रहती है यह आदत ठीक नहीं।
-माँ उसे देख मुझे दादी की याद आती है। वह दादी की तरह ही हाथों-पैरों में खूब सारे जेवर पहनती है।
-बेटा तुम्हारी दादी तो सोने के पहनती थीं और धोबिन चांदी के पहनती है। चांदी के जेवर छोटी जात के पहनते हैं। हम लोगों में नहीं पहनते है।
-क्यों माँ?
क्योंकि सोना महंगा होता है । इसे छोटी जात नहीं खरीद नहीं सकती।
-क्यों माँ!
क्योंकि ये गरीब बेपढ़े- होते है ,इनके पास ज्यादा पैसा नहीं होता।   
-ये पढ़ते –लिखते क्यों नहीं माँ?
-क्यों की बच्ची!भाग यहाँ से मेरा खोपड़ा खाली कर दिया।
मैं माँ के डर के मारे चुप हो गई।पर मुझे लगा –माँ मुझसे कुछ छिपा रही है। बहुत समय तक अपने सवाल का जबाव ढूंढती रही। एक दिन मेरे सवाल का जबाव मिल ही गया।
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जग्गी की माँ 
जग्गी, धोबी का बेटा  कभी कभी अपनी माँ के साथ हमारे घर आया करता था।

 उसकी माँ ज्यादतर अपनी परेशानियां माँ को बताने बैठ जाती । उस समय उसका घूँघट ऊपर हो जाता । 

ऐसे में मैं और जग्गी बतियाने लगते। वह भी कल्लू था मगर कपड़े पहनता एकदम झकाझक सफेद।
एकदिन मैंने पूछा –जग्गी इतने सफेद कपड़े पहनता है । गंदे हो जाते होंगे । माँ से खूब डांट पड़ती होगी।   
-हँसकर बोला-ये मेरे कपड़े थोड़े ही हैं,दूसरों के हैं।
मैं पूछती-जग्गी तेरे बाल हमेशा खड़े रहते है। तेल लगाकर काढ़ता क्यों नहीं?
वह फिर हँसता और कहता-मैंने आजतक कभी तेल नहीं लगाया।
-तेरे पास तेल लगाने को पैसे नहीं हैं क्या?मैं तुझे तेल ला दूँगी।
-वह फिर हँसता-मुझे तेल से बू आती है।
उसकी बात पर मैं भी हंस देती।


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हम दोनों के बीच ऊंच –नीच की कोई तलवार नहीं लटकती थी । बस दो मासूम दिल खुलकर हँसते थे।

उस दिन जब जग्गी आया मुझ पर अपने सवाल का जवाब खोजने का भूत सवार था। उस पर  बंदूक सी दाग बैठी-ओ जग्गी तू स्कूल पढ़ने क्यों नहीं जाता?तू गरीब है क्या?
एकाएक वह उदास हो गया । बोला-इतना गरीब भी नहीं हूँ कि स्कूल की फीस न दे सकूँ। पर कोई पढ़ने दे तब न !
-तू मुझे बता कौन है वह, मैं उसकी शिकायत पिता जी से कर दूँगी।
-मैं छोटी जात का हूँ इसलिए स्कूल में कोई घुसने नहीं देगा। उसने बहुत घीरे से मरियल सी आवाज में कहा।
उसकी जात वाली बात तो मैं नहीं समझ सकी पर मैंने उसे दुखी कर दिया था यह सोचकर मैं भी दुखी हो गई। 
धोबी के मरने के बाद धोबिन का रूप-रंग बदल गया। उसने सारे जेवर उतारकर रख दिए। मैंने सोचा गहने चोरी हो गए हैं। मेरा दुख और बढ़ गया। लेकिन एक दिन मैंने उसे माँ से कहते सुना –बहू,सारे गहने उतारकर घर में ही कच्चे फर्श के नीचे दबा दिए थे ।न जाने कब -कब में बड़ा छोरा तगड़ी निकालकर ले गया और बेच खाई। उसे कपड़े धोना पसंद नहीं। निठल्ले ने बाप की कमाई पर नजर रखने की कसम खा ली है। तीन -तीन बच्चों की शादी करनी है।अब तो ये गहने ही मेरा सहारा है।बड़े से तो कोई उम्मीद नहीं। 
माँ ने क्या कहा यह तो नहीं मालूम पर अगले दिन वह आई और एक मिट्टी की हांडी माँ के हवाले करके चली गई। मुझमें कौतूहल जागा-इसमें क्या---- है?अम्मा से पूछने की हिम्मत नहीं हुई। कमरे से लगी एक कोठरी थी जिसमें बड़ी सी लकड़ी की अलमारी थी। उसी में अम्मा ने हांडी रख दी। यह तो अंदाज लग गया कि इसमें कीमती सामान है,पर क्या है?पहेली ही बनकर रह गया। इस पहेली को सुलझाने की कतरबोंत दिमाग में चलती रहती। आते जाते कोठरी में ताक झांक बनी रहती कब चुपके से अंदर जाऊं और हांडी में झांकू।

एक दिन दबे पाँव कोठरी में घुस गई । अंदर अंधेरा था लेकिन आपजानकर लाइट नहीं जलाई। जरा सा शक होने पर माँ आन धमकतीं और मेरी  खोज अधूरी रह जाती। चोरों की तरह धीरे से अलमारी खोली –कहीं चूँ –चूँ न कर पड़े,हांडी में हाथ डाला। अंगुलियों की टकराहट से खनखन करके सिक्के बज उठे। हिम्मत करके उँगलियाँ गहराई में घुसाई। मुट्ठी में भरकर सिक्के हाथ ऊपर किए। मुट्ठी खोली-चांदी की चमक से सिक्के अंधेरे में साफ नजर आ गए-बाप रे-- इतने सारे सिक्के ---अरे यह तो विक्टोरिया का है,जार्जपंचम –एडवर्ड !




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इन्हीं के बारे में तो पिताजी बातें करते हैं। पूरे ब्रिटिश साम्राज्य की सैर मिनटों में कर ली। नन्हें से दिमाग ने अंगड़ाई ली –धोबिन कितनी तकदीर वाली है इसके समय चाँदी के सिक्के चलते थे।न जाने अब सब कहाँ गए। मेरे पास तो एक भी सिक्का नहीं है।बस पीतल,ताँबे के हैं।हांडी में सिक्कों की तो भरमार है। अरे ,यह तो अठन्नी है। यह चुहिया सी है चवन्नी !
अपना हाथ और नीचे घुसाया-लो मिल गई हँसली—जरा पहनकर देखूँ ।


ओह! यह तो मेरे गले में घुसती ही नहीं। 


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पायल  –---यह तो बड़ी भारी है।


यहाँ तो सिक्के ही सिक्के लटक रहे हैं । 

धोबिन तो बड़ी अमीर है। फिर कपड़े न जाने क्यों धोती है। मेरी अंगुलियाँ मटकी में घूमती रहीं और सिक्के मेरे दिमाग को घुमाते रहे। न जाने कब तक यह चलता अगर ज़ोर से खट की आवाज न हुई होती। मैं भागी कोठरी से कि अम्मा आ गई। तभी सामने से मोटे से चूहे को भागते देखा हंसी फूट पड़ी –धत तेरे की –चूहे से डर गई मैं तो ।
   
अपने बापू के मरने के बाद जग्गी ही गंदे कपड़े लेकर जाता। ढेर से कपड़ों की गठरी सिर पर रखता तो उसका चेहरा दिखाई ही नहीं देता था। मुझसे पहले की तरह बातें भी नहीं करता और हँसता भी नहीं था। हमेशा जल्दी में रहता।
एक दिन मैंने पूछा –जग्गी तुझे बहुत काम रहता है?
-हाँ,माँ अकेली पड़ गई है।उसको तो देखना ही होगा। धीरे धीरे बापू का काम मैं करने लगूँगा। उसे कुछ नहीं करने दूंगा।
जग्गी मेरे बराबर का था पर मुझे लगा वह मुझसे बहुत बड़ा हो गया है।

उसके बापू के मरने का दुख अम्मा –पिताजी को भी बहुत था।  उन्होंने कपड़ों की धुलाई के पैसे भी बढ़ा दिए थे। पर जग्गी  पिताजी से बहुत डरता था। कभी मैंने उसे सिर उठाकर बात करते नहीं देखा । हमेशा नजर नीचे किए खड़ा रहता या जमीन पर बैठता। । पिताजी सफेद कमीज और सफेद धोती पहनते और शानदार रूमाल रखते। एक बार कमीज के कॉलर पर ठीक से प्रेस नहीं हुई ,बस उनका पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। ज्वालामुखी से फट पड़े- और जड़ दिया  उसके चांटा। मुझे बहुत बुरा लगा। अपने बच्चे को तो डांटते-मारते मैंने देखा था पर पिता जी तो दूसरे के बच्चे को मार रहे थे। न उसने अपना बचाव किया और न पिताजी ने अपना हाथ रोका। बस सिर नीचा किए आँसू बहाने लगा। ऐसा लगा मानो पिताजी को मारने का अधिकार था और चोटें सहना जग्गी का काम था। 

जग्गी को मैं बहुत दिनों तक नहीं भुला पाई और माँ की बात बहुत दिनों के बाद समझ में आयी कि वह छोटी जात का है और हम है ऊंच जात के इसी कारण उन्हें सताने की हिम्मत होती थी।पढ़ लिखकर कहीं छोटे लोग ऊंच जात से आगे न बढ़ जाएँ इसीकारण उनके बच्चों को स्कूल  में पढ़ने नहीं दिया जाता था। जग्गी तभी अनपढ़ रहा।

Image result for sad abstract artअब भी जब अखवार की सुर्खियों में दलित दलन ,दलित दहन  के बारे में पढ़ती हूँ तो जग्गी की याद ताजा हो उठती है। न जाने कब ऊंच-नीच का भेद भाव मिटेगा। भारत देश तो उनका भी है फिर उनके साथ ऐसा दुर्व्यवहार क्यों।  

5 टिप्‍पणियां:

  1. बचपन में बालमन पर टंकित कई घटनाएँ जीवन भर पीछा करती हैं जिसे आपने बखूबी इस घटना को कहानी के माध्यम से उकेरा है.इतनी ख़ूबसूरत प्रस्तुति के लिए मैं आपको बधाई देता हूँ.

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  2. बहुत ही सुंदर रचना प्रस्‍तुत की है आपने। धन्‍यवाद।

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    1. कहकशां जी ,बहुत बहुत शुक्रिया। आपका ब्लॉग भी देखा । धीरे धीरे कहानियाँ पढ़ूँगी । कहानियाँ दिल लु
      भाने वाली लंगी।

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    2. कहकशां जी ,बहुत बहुत शुक्रिया। आपका ब्लॉग भी देखा । धीरे धीरे कहानियाँ पढ़ूँगी । कहानियाँ दिल लु
      भाने वाली लंगी।

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