॥19॥गोलमटोल कैथ
सुधा भार्गव
मैं जब छोटी थी कैथ-- आह! कैथ
के नाम से ही मुंह में पानी भर गया ,हाँ तो इसकी खट्टी –मीठी चटनी मुझे बहुत पसंद थी । लेकिन
हमारे घर तो कैथ आता ही नहीं था । उसमें खटास जो होती थी और खट्टी चीजें खाना
हमारे लिए मना था । इसके नाम से ही घर वालों के चेहरे बिगड़ जाते----!
दूसरे यह गरीबों का फल समझा
जाता था ।
मेरी सहेली चम्पा स्कूल में रोज कैथ की चटनी लाती और रोटी से लगा कर खाया करती ।
रोटी और कैथ की चटनी |
मैं
उसकी तरफ टुकुर –टुकुर देखती । एक दिन उसने तरस
खाकर मुझे भी आधी रोटी पर थोड़ी सी चटपटी
चटनी रख कर दे दी । आह क्या स्वाद । जीभ
के तो मजे । मुँह में बल खाती हुई झूम सी
रही थी । अब तो रोज ही हिस्सा बाँट होने
लगा और वह मेरी सबसे अच्छी सहेली बन गई ।
प्यारी -प्यारी सहेलियां |
एक दिन मैंने पूछा –चम्पा ,कैथ कैसा होता है ?
-तू इतना भी नहीं जानती
!वह तो गोल –गोल ,सफेद –सफेद ,पीला –पीला होता है और अंदर से बादामी रंग सा सुनहरा -सुनहरा । उसने अपना एक हाथ गोलाई में
घुमाते कहा ।
-मैंने तो कभी देखा ही
नहीं । सच्ची –मुच्ची कह रही हूँ ।
-चल –चल तुझे अभी दिखती
हूँ ।
मेरा उसने एक हाथ पकड़ा और
खींचती हुई स्कूल के बाहर ले गई ।
वह खुशी से चहकी । देख –देख उस ठेले वाले को ---चूरन –चटनी और लेमंजूस के पास ,टूटे हुए कैथसे भूरा –भूरा गूदा कैसा झांक रहा है !एक के ऊपर एक ,तीन -तीन शरारती कैथ! हमें बुला रहे हैं।
वह खुशी से चहकी । देख –देख उस ठेले वाले को ---चूरन –चटनी और लेमंजूस के पास ,टूटे हुए कैथसे भूरा –भूरा गूदा कैसा झांक रहा है !एक के ऊपर एक ,तीन -तीन शरारती कैथ! हमें बुला रहे हैं।
ठेले के पास आने पर
मैं अपने को रोक न सकी –आह! इसका खट्टा-मीठा गूदा
खाया जाए । बिना खाये ही जीभ चटकारे लेने लगी ।
-भैया 5 पैसे का कैथ दे दो
जरा । मैंने ठेलेवाले से कहा ।
एक मिनट भी नहीं गुज़रा कि
मैंने फिर अपनी बात दोहरा दी ।
-देता हूँ लल्ली,देता हूँ । जल्दी
काहे मचावत है ।
-हमारा नंबर आते –आते सारे
कैथ खतम हो गये तो ----
-अच्छा ले –पहले तुझे ही
दिये दूँ । वैसे मेरे झोले में कैथ भरे
पड़े हैं।
-भैया ,मुझे
एक साबत कैथ हाथ में दे दो ।मैं उसे छूकर देखूँगी । मैंने तो आज से पहले इसे देखा ही नहीं था ।
-गज़ब की बात करे है तू तो
। ले अभी थमाऊँ तोय ।
उस गोल –मटोल कैथ पर मैं
तो रीझ गई । मेरा बस चलता तो मैं उसे लेकर भाग जाती ।
मुझे लगा –कैथ मुझपर हंस रहा है और कहना चाह रहा है –कैसी छोरी है तू –अभी तक मुझसे नहीं मिली थी । अरे मुझ पर तो बच्चे जान देते हैं ।
मुझे लगा –कैथ मुझपर हंस रहा है और कहना चाह रहा है –कैसी छोरी है तू –अभी तक मुझसे नहीं मिली थी । अरे मुझ पर तो बच्चे जान देते हैं ।
मुझे उसकी हंसी चुभ सी गई
और उसी पल निश्चय कर लिया –मौका मिलते ही एक पूरा कैथ खाकर रहूँगी ।
ठेलेवाले ने पत्ते के बने दोने में कैथ का टुकड़ा रखा ,उसपर
नमक छिड़का और हमें पकड़ा दिया । लेकिन उससे क्या मेरा जी भरने वाला था ।
स्कूल से घर जाने के दो
रास्ते थे । एक गली –गली घूमते घुमावदार छोटा रास्ता ,दूसरा
बाजार जाते हुए सीधा मगर लंबा रास्ता । उस दिन ही पूरा का पूरा कैथ खाने का भूत
सवार हो गया । स्कूल की छुट्टी होते ही भागी अकेली सब्जी मंडी की ओर । कभी अकेली
सब्जी मंडी गई नहीं थी । बड़े से मैदान में टोकरियों में रखी सब्जियाँ या आलू
शकरकंदी ,तरबूज की ढेरियाँ ही ढेरियाँ दिखाई दे रही थीं ।
कैथ कहाँ ढ़ूंढू—किससे
पूंछूं ?मैं तो सकपका गई ।
बेर बेचने वाले से पूंछा –भैया
,कैथ कहाँ मिलेगा ?
-लाला परचूनी की दुकान के
पास । यहाँ से सीधी चली जाओ ।
चलते –चलते घबराहट होने
लगी । कच्चा रास्ता कीचड़ से भरा –चप्पल घुस जाती तो निकलने का नाम न लेती,लेकिन
कैथ खाना था तो खाना था ।
-यह कैथ है क्या ?
-हाँ !कैसा लेना है –कच्चा
या पका ? टोकरी वाले ने पूछा ।
कच्चा –पक्का ! दिमाग घूम
गया ।
-मैं उस पर नमक छिड़ककर
उंगली से निकाल निकाल कर खाऊँगी ।
-तोड़ दूँ क्या कैथ को ?
-हाँ –हाँ ! उस पर नमक भी
छिड़क दो । लगा जैसे मुझे कुबेर का खजाना मिल गया हो ।
थोड़ा चखते ,स्वाद
लेते अपने घर का रुख लिया जो पटपरी मोहल्ले में था । रास्ता लंबा था पर मैंने चाल घीमी कर रखी थी ,घर
पहुँचते –पहुँचते कैथ जो खतम करना था ।यही डांट से बचने का एकमात्र तरीका था ।
हवेली के दरवाजे पर दस्तक देने से पहले छिलका फेंक दिया और हाथ को मुँह की तरफ ले जाकर फ्रॉक की बाँह से मुँह पोंछ लिया । मेरा तो यही रुमाल था । इसी कारण बाँह अक्सर गंदी दिखाई देती ।
हवेली के दरवाजे पर दस्तक देने से पहले छिलका फेंक दिया और हाथ को मुँह की तरफ ले जाकर फ्रॉक की बाँह से मुँह पोंछ लिया । मेरा तो यही रुमाल था । इसी कारण बाँह अक्सर गंदी दिखाई देती ।
टिफिन खाते समय घर का सिला
नैपकिन होता । उसे कभी ले जाती ,कभी भूल जाती । स्कूल में इसके बारे में कोई कठोर
नियम न था सो सब चलता था । घर में जरूर
कुछ कठोर नियम थे पर उनके होते हुए भी अपना काम तो चल ही जाता था ।
उस दिन तो चेहरे पर विजयी
मुस्कान लिए बेधड़क घर में घुसी और कैथ भी
तो मेरे पेट में पड़ा –पड़ा हँसकर मेरा साथ दे रहा था । सोते समय प्रार्थना करती रही –हे भगवान ऐसी कोई तरकीब
करो जो खूब कैथ खाने को मिलें । झपकी आते ही गज़ब का सपना देखा- एक बंदर
धोखेबाज बंदर |
पेड़ पर बैठा खूब कैथ खा रहा है और
मेरे लिए नीचे गिराता जा रहा है।लेकिन सुबह उठी तो मालूम हुआ कि वह धोखेबाज मेरे हिस्से के भी
लेकर भाग गया ।
छविकार -सुधा भार्गव
छविकार -सुधा भार्गव
क्रमश :