बचपन में
मुझे कुछ ज्यादा ही चोर डाकुओं से डर लगता था |करती भी क्या --!अनूपशहर छोटी सी जगह पर आये दिन चोरी -डकैती की बातें !
रात में डरावने चार सींगों बाले सपने आने शुरू हो जाते --मेरी तो जान ही निकल जाती |चूहा भी फुदकता तो लगता जरूर किसी चोर ने दरवाजा खोला है --बस आया --आया |जागता हुआ देखेगा तो जरूर मेरे मुँह में कपड़ा ठूंस देगा जिससे चिल्ला न सकूँ |हाथ पाँव रस्सी से बाँध दिये तो भाग भी न पाऊंगी |क्या करूँ !हाँ ध्यान में आया ,उसके आते ही आँखें मींच कर सोने का ऐसा नाटक करूँगी कि बच्चू भुलावे में आ जायेगा |मैं कम चालाक थोड़े ही हूँ |
सच में----
मैं आंखें कसकर भींच लेती पर अन्दर ही अन्दर काँपती --होठों पर शब्द थरथराते -
जय-जय हनुमान गोसाई
कृपा करो गुरू देव की नाई
भूत -पिशाच निकट नहीं आवे
भूत -पिशाच निकट नहीं आवे
नहीं आवे --------नहीं आवे --
एक दिन तो गजब हो गया !
थाने के पास एक सेठ जी की हवेली थी| वे शहर से काफी रूपये लेकर लौट रहे थे कि बस में बंदूक की नोक पर डकैतों ने लूट लिया |
अग्रवाल ताऊ के तो दो दिन पहले ही डाकुओं की चिट्ठी आ गई -सावधान !हम रात को आ रहे हैं --!
वे वास्तव में ही आ गये |उनकी माँ चिल्लाई तो गोली मार दी ,ताऊ जी से अलमारी की चाबी लेकर उन्हें रस्सी से बाँध दिया और ले गये सारे के सारे -सोने - चांदी के जेवर और रुपया पैसा।उन्हें बचाने को न पड़ोसी आया और
न ही सिपहिया जी ।
बहुत दिनों तक मैं परेशान रही और इतना समझ में आ गया कि मुसीबत में कोई काम आने वाला नहीं |
तब से मैं अपनी चीजों को बहुत सावधानी से रखती । छोटी सी संदूकची में किताबें भरकर स्कूल जाती थी, उसमें ताला लटकने लगा |माँ से कहती -अलमारी खुला न छोड़ा करो ।पिताजी रात में घर के ख़ास दरवाजे की कुंडी में अलीगढ़ का मोटा सा ताला लगाकर सोया करते ,उनके साथ साथ भी मैं जाने लगी। पिता जी से कहती--- ताला खींच कर देख लीजिये कहीं खुला न रह गया हो ।
पिता जी के पास बड़ी से बंदूक थी| रात में सोते समय उसे अपने उलटे हाथ की ओर गद्दे के नीचे रखकर सोते |उसे देखते ही दिमाग में खिचड़ी पकने लगती -- पिताजी तो दुबले पतले हैं |बंदूक को चोर की ओर तानने में उन्हें समय लगेगा !इतनी देर में कहीं चोर उनके हाथ से बंदूक छीन ले और उलटे उन्हीं के सीने पर दोनाली बंदूक रख दे तो---- हे भगवान्! क्या होगा !मैं अपना माथा पकड़ लेती ।
घर में कोई अजनबी आता तो उसे घूर -घूर कर देखती कहीं भेदिया तो नहीं है और चोरी करवा दे |अम्मा तो गुस्से में कह देतीं -- इसका तो शक्की दिमाग है --|
एक बार अम्मा को नानी से मिलने आगरा जाना पड़ा| मैं और छोटा भाई चाची के पास रहे |चाची -चाचा जी हमें बहुत प्यार करते थे ।
उस दिन
स्कूल से लौटकर देखा-- एक अजनबी औरत चाची के साथ खाट पर बैठी मटर छील रही है |उसको देखते ही मैं चौकन्नी हो गयी और कान उनकी बातों से जा चिपके |
चाची कह रही थीं --मेरी बहना सत्तो ,मटर तो मैं छील लूंगी --तू जाकर मेरे बर्तनों की अलमारी जरा ठीक करदे |नये गिलासों पर नाम भी खुदवाना है |नाम खोदने वाला नीचे बैठा है |
-क्या नाम लिखवाओगी? जीजा जी का नाम तो ओमी है |
-पहचान के लिए केवल 'ओ ' ही काफी है |
सुनते ही मेरा तो दिल बैठ गया |जिस कमरे में चाची की बहन जी जाने वाली थीं वहाँ बर्तन रखने के लिए दो छोटी अलमारी रखी हुई थीं -एक चाची की दूसरी अम्मा की |एक हफ्ते पहले मुरादाबादी २४ गिलास खरीदे गये थे |पीतल के होते हुए भी झकाझक चमक रहे थे |
चाची ने अपने गिलास अपनी अलमारी में रख दिये और अम्मा दूसरी अलमारी में रख कर चली गईं । अलमारियां खुली ही रहती थीं बस चिटकनी बंद रहती थीं । इन दिनों तो मुझे चारों तरफ चोर ही चोर नजर आते । |मन का भूत बोला - सावधान -तुम्हारी माँ का एक गिलास तो गायब होने वाला है ही ।
मैंने जल्दी से किताबों की बकसिया जमीन पर पटकी |भागी -भागी कमरे में गई और अम्मा की अलमारी के आगे पहरेदार की तरह खड़ी हो गई।
सत्तो काकी कमरे में आईं और बड़े इत्मिनान से १२ गिलासों पर -ओ -लिखवाने के बाद दूसरी अलमारी की ओर बढ़ीं | मैं बिदक पड़ी --
-यह तो अम्मा की अलमारी है --|
मन मारकर मैं रह गई| काश !मैं भी उनकी तरह बड़ी होती तो ----?
उन्होंने छ :गिलास निकाले और उनपर 'ओ ' खुदवाने लगीं |
-ये तो अम्मा के गिलास हैं !
-अरे चुप रह !ख़बरदार जो किसी से कहा ---!
-अम्मा से भी नहीं-- !
मेरे शब्दों ने उनका मुँह सी दिया । इस गलत काम से मैं गुस्से में फुसफुसा रही थी ----
चोरी चटाक
तेरा --तेरा --
भोलुआ पटाक ।
माँ के आते ही मेरा इंजन चालू हो गया ----
-माँ --माँ, सत्तो काकी ने आपकी अलमारी में से ६गिलास निकाल लिए और उन पर ओ खुदवा दिया है |वे चाची की अलमारी में रखे हैं |
-क्या मेरा -तेरा लगा रखा है ..जिस घर में जायेगी दो टुकड़े करा देगी --पूरी बात सुने बिना ही वे मुझ पर विफर पड़ी । |
सोचा था -- जासूसी पर मुझे शाबासी मिलेगी मगर यहाँ तो सब गड्ड मड्ड हो गया| मैं रुआंसी हो गई |
माँ को शायद दया आ गई |प्यार से बोलीं --
-बेटा ,गिलासों में इसी घर के लोग तो पानी पीयेंगे ,फिर क्या फर्क पड़ता है वे मेरी अलमारी में रहें या चाची की अलमारी में |
ऊपर से मैं खामोश थी मगर अन्दर ही अन्दर उबाल खा रही थी --अम्मा बहुत सीधी हैं ,इन्हें तो कोई भी लूटकर ले जायेगा |
उस समय मैं उनकी बात नहीं समझी थी पर जैसे -जैसे प्रौढ़ता की चादर तनती गई उनकी सहृदयता व सहनशीलता की छाप मनोमस्तिष्क पर गहराने लगी |अब तो माँ हमारे मध्य नहीं हैं पर उन्होंने डांट के साथ जो सीख दी ,उस से अंकुरित फल -फूलों से मेरी बगिया महक -महक पड़ रही है ।
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg4-mMAHEm-78IrZFmF7FEvKJgK9ZkgfRNJTIcMBJ6V2NgUcLvVQ_9oLdIKmKrmeReUKtMfIIHwgPOSU2h05z35nB4mxd27qhMigOEoeAKgf5LcZ9W5w6R9otRyar5R_S2atEVFarpI68gp/s320/DSC01182.JPG)
फोटोग्राफी -सुधा भार्गव
(अन्य समस्त चित्र गूगल से साभार )
बचपन में
मुझे कुछ ज्यादा ही चोर डाकुओं से डर लगता था |करती भी क्या --!अनूपशहर छोटी सी जगह पर आये दिन चोरी -डकैती की बातें !
रात में डरावने चार सींगों बाले सपने आने शुरू हो जाते --मेरी तो जान ही निकल जाती |चूहा भी फुदकता तो लगता जरूर किसी चोर ने दरवाजा खोला है --बस आया --आया |जागता हुआ देखेगा तो जरूर मेरे मुँह में कपड़ा ठूंस देगा जिससे चिल्ला न सकूँ |हाथ पाँव रस्सी से बाँध दिये तो भाग भी न पाऊंगी |क्या करूँ !हाँ ध्यान में आया ,उसके आते ही आँखें मींच कर सोने का ऐसा नाटक करूँगी कि बच्चू भुलावे में आ जायेगा |मैं कम चालाक थोड़े ही हूँ |
सच में----
मैं आंखें कसकर भींच लेती पर अन्दर ही अन्दर काँपती --होठों पर शब्द थरथराते -
जय-जय हनुमान गोसाई
कृपा करो गुरू देव की नाई
थाने के पास एक सेठ जी की हवेली थी| वे शहर से काफी रूपये लेकर लौट रहे थे कि बस में बंदूक की नोक पर डकैतों ने लूट लिया |
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjhgXejzgmwonhkZtaBqO8tLUq78MEUo-ZhmywRDlj-UfP3I5O1VIYB50ZeIgKNGohkuNWy9RK1G5dGZByq50QSx3mOddHzHJt0pC_zhTkmLA8Sh_Afc7KCfwwKJqX2JVwBWqI9SaL65haK/s1600/police.jpg)
बहुत दिनों तक मैं परेशान रही और इतना समझ में आ गया कि मुसीबत में कोई काम आने वाला नहीं |
पिता जी के पास बड़ी से बंदूक थी| रात में सोते समय उसे अपने उलटे हाथ की ओर गद्दे के नीचे रखकर सोते |उसे देखते ही दिमाग में खिचड़ी पकने लगती -- पिताजी तो दुबले पतले हैं |बंदूक को चोर की ओर तानने में उन्हें समय लगेगा !इतनी देर में कहीं चोर उनके हाथ से बंदूक छीन ले और उलटे उन्हीं के सीने पर दोनाली बंदूक रख दे तो---- हे भगवान्! क्या होगा !मैं अपना माथा पकड़ लेती ।
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj7r5aSfpRUY0r89_5QH48NUbn83VQ2U6Ansqa6u1hMw_GLs9jy5JxOWaBp1tA0NHvPQg1zu_-n69gjevAiefKqkv-NOewJt-td9quyH98OlCgE_udHaKD9EAxoVCNpNMX5ehKHsnh9O73D/s1600/peas.jpg)
स्कूल से लौटकर देखा-- एक अजनबी औरत चाची के साथ खाट पर बैठी मटर छील रही है |उसको देखते ही मैं चौकन्नी हो गयी और कान उनकी बातों से जा चिपके |
चाची ने अपने गिलास अपनी अलमारी में रख दिये और अम्मा दूसरी अलमारी में रख कर चली गईं । अलमारियां खुली ही रहती थीं बस चिटकनी बंद रहती थीं । इन दिनों तो मुझे चारों तरफ चोर ही चोर नजर आते । |मन का भूत बोला - सावधान -तुम्हारी माँ का एक गिलास तो गायब होने वाला है ही ।
मैंने जल्दी से किताबों की बकसिया जमीन पर पटकी |भागी -भागी कमरे में गई और अम्मा की अलमारी के आगे पहरेदार की तरह खड़ी हो गई।
-ये तो अम्मा के गिलास हैं !
मेरे शब्दों ने उनका मुँह सी दिया । इस गलत काम से मैं गुस्से में फुसफुसा रही थी ----
चोरी चटाक
तेरा --तेरा --
भोलुआ पटाक ।
माँ के आते ही मेरा इंजन चालू हो गया ----
उस समय मैं उनकी बात नहीं समझी थी पर जैसे -जैसे प्रौढ़ता की चादर तनती गई उनकी सहृदयता व सहनशीलता की छाप मनोमस्तिष्क पर गहराने लगी |अब तो माँ हमारे मध्य नहीं हैं पर उन्होंने डांट के साथ जो सीख दी ,उस से अंकुरित फल -फूलों से मेरी बगिया महक -महक पड़ रही है ।
फोटोग्राफी -सुधा भार्गव |
(अन्य समस्त चित्र गूगल से साभार )