नये वर्ष की नई अभिलाषा ----

बचपन के इन्द्र धनुषी रंगों में भीगे मासूम बच्चे भी इस ब्लॉग को पढ़ें - - - - - - - -

प्यारे बच्चो
एक दिन मैं भी तुम्हारी तरह छोटी थी I अब तो बहुत बड़ी हो गयी हूं I मगर छुटपन की यादें पीछा नहीं छोड़तीं I उन्हीं यादों को मैंने कहानी -किस्सों का रूप देने की कोशिश की है I इन्हें पढ़कर तुम्हारा मनोरंजन होगा और साथ में नई -नई बातें मालूम होंगी i
मुझसे तुम्हें एक वायदा करना पड़ेगा I पढ़ने के बाद एक लाइन लिख कर अपनी दीदी को अवश्य बताओगे कि तुमने कैसा अनुभव किया I इससे मुझे मतलब तुम्हारी दीदी को बहुत खुशी मिलेगी I जानते हो क्यों .......?उसमें तुम्हारे प्यार और भोलेपन की खुशबू होगी -- - - - - -I

सुधा भार्गव
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मंगलवार, 1 दिसंबर 2015

यादों का सावन



॥1॥ बाग-बगीचे,खेत-खलिहान
सुधा भार्गव 



मुझे बचपन मेँ बाग-बगीचे और खेतों मेँ घूमने का बड़ा शौक था।
एक दिन मैंने बाबा से कहा –पिताजी के पास सब कुछ है पर न कोई बाग है और न कोई खेत। मेरे अच्छे बाबा,उनसे बोलो न-- एक छोटा सा बगीचा मेरे लिए खरीद लें।
-तू क्या करेगी मुनिया?
-मैं खट्टी –खट्टी अमिया तोड़कर खाऊँगी। आपके लिए अमरूद तोडूंगी।
-तेरे हाथ तो छोटे छोटे है। डाल तक जाएंगे ही नहीं।
-ओह बाबा –देखो मैं ऐसे उचक-उचक एड़ी के बल खड़ी हो जाऊँगी और लपककर डाली को पकड़ नीचे की तरफ खींच लूँगी।
-इस तरह तो तू धड़ाम से गिरेगी।
-ओह,तब मैं क्या करूँ। हा!याद आया—नंदू से कहूँगी मेरे साथ नसैनी लेकर बाग में चल। नसैनी पर चढ़कर अमरूद तोड़ लूँगी। 
-बेटी –लुढ़क लुढ़का जाएगी। तेरे लिए अभी बाजार से मीठे -मीठे अमरूद मँगवा देता हूँ।
- बाबा –आप समझते क्यों नहीं! तोड़कर खाने में जो मजा है वह खरीदकर खाने मैं नहीं आता।
-तू देर से पैदा हुई –पहले क्यों न हुई ?
-क्यों बाबा?
-तेरे परबाबा आढ़े गाँव के रहने वाले थे। उनके पास बाग- बगीचे और लंबे -चौड़े खेत थे। तू होती तो सारे दिन बाग के आम खाती और  खेतों में नन्ही चिड़िया सी उड़ती रहती।
-सब कहाँ गए बाबा?
-मैं शहर चला आया। बाग तो बेच दिए और खेत किसानों के पास हैं।  
-तो उनसे वापस ले लो।
-अब नहीं लिए जा सकते। उन्होंने सालों बड़ी मेहनत से खेतों में काम किया इसलिए उनको ही दे दिए। एक बार देकर चीज वापस नहीं ली जाती।
 -तब पिताजी से कहो मेरे लिए जल्दी ही कोई बाग ले लें।मैं अनमनी सी बोली। 
-बेटा जग्गी को बाग में कोई दिलचस्पी नहीं। हाँ, उसके कुछ दोस्त हैं जिनके बाग -बगीचे हैं। उससे कहूँगा तुझे बाग दिखा लाए।

बाबा के कहने पर पिता जी मुझे अपने दोस्त रमेश अंकल के बगीचे में लेगए। ठंडी-ठंडी --- खुशबू भरी हवा से मेरा मन खुश हो गया। कोयल की कूक सुन  मैं उसे पकड़ने  को उतावली हो उठी और उसकी आवाज का पीछा करने लगी। मेरी भागादौड़ी पर अंकल को  तरस आ गया।
बोले-कोयल को तुम बहुत प्यार करती हो। कोयल भी तुमको बहुत चाहती है। तभी तो गाना सुनाने आ जाती है पर हमेशा आजाद रहना चाहती है। इसलिए किसी के हाथ नहीं लगती।
मैं थककर बैठ गई।इतने में बाग में काम करने वाला जिंदा माली कुछ पके रसीले आम लेकर आ गया। 

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अंकल हमें बड़े शौक से  आम काटकर खिलाने लगे पर मुझे तो बाग में घूमने की जल्दी पड़ी थी। तीन-चार फाँके ही खाकर उठ गई।
दूर तो अकेली जाने की हिम्मत नहीं हुई ,बस आसपास ही चक्कर लगाने लगी। अमरूदों की खुशबू का एक झोंका आया तो सूंघते-सूंघते उसी दिशा की ओर बढ़ गई जिधर अमरूद के पेड़ की डालियाँ फलों  के बोझ से झुकी जा रही थीं। माँ  ने बताया था कि अमरूद से कब्ज जाता रहता है और मुझे ज़्यादातर कब्ज हो जाता। मन ही मन गुलगुले पकाने लगी -आज तो जी भर कर अमरूद खाऊँगी फिर तो कब्ज दुम दबा कर ऐसा भागेगा –ऐसा भागेगा कि भूल से भी  मेरे पेट में घुसने का नाम न लेगा। लेकिन जल्दी ही मेरे गुलगुले पिलपिले हो गए। 


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अमरूद तो लटके हुए थे पर सब के सब  कच्चे। न जाने कहाँ से एक तोता  भी पेड़ की डाल पर आकर बैठ हुआ था और अमरूदों को कुतर -कुतर कर झूठा किए दे रहा था। मैंने हुस--हुस करके उसे हाथ से उड़ाने की बहुत कोशिश की पर अमरूदों के आगे उसने मेरी एक न सुनी। मैं दुखी सी लौट आई।
 मुझे चुपचाप बैठा देख अंकल ने  सुझाव दिया-बिटिया,पिछवाड़े जाकर तुम माली के साथ सब्जियों की खेती भी देख आओ। गाजर-मूली से बातें कर तबियत खुश हो जाएगी।
-इसे पेड़-पौधे अच्छे भी लगते हैं। कहकर पिताजी ने मंजूरी दे दी।
मेरे पैरों में मानो पहिये लग गए हों। सरपट भागती हुई माली का पीछा करने लगी पर पीछे से आती आवाजें मेरा पीछा कर रही थी। पिता जी को कहते सुना-लगता है इसकी शादी ऐसे घर में करनी पड़ेगी जहां कुछ भी न हो पर बाग-बगीचे,खेत- खलिहान और गाय-भैंसें जरूर हों।वरना दहेज में यह सब देना पड़ेगा। फिर एक साथ हंसी के ठहाके हवा में तैर गए।
खेत में घुसते ही छोटे छोटे टमाटरों को देख ठिठक गई------


आह! कितने प्यारे टमाटर !

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Image result for smiling baby tomato clip art एक तोड़ा ही था कि माली काका भागता हुआ आया-ए लल्ली तूने यह क्या किय?यह बच्चा टमाटर बड़े होकर लाल गूदेदार मोटा-ताजा निकलता।च—च—बेचारा! समय से पहले ही मारा गया।
-मर गया –नहीं नहीं काका यह तो जिंदा है देखो कैसा लाल है और मैंने गप्प से मुंह में रख लिया-आह क्या खट्टा-खट्टा है।
तभी मेरी निगाह क्यारी में दो जुड़े टमाटरों पर पड़ी। मेरा तो मुंह खुला का खुला रह गया- जुड़वाँ टमाटर। ताई के जुड़वाँ बहनें हुई थीं। -----टमाटर के भी जुड़वाँ बच्चे ।
मैं पूछ बैठी-
-काका ये दोनों भाई हैं या बहन ?
-बहनें हैं बहने!वह हड़बड़ा गया। उसे ऐसे प्रश्न की आशा नहीं थी।
-तब तो ये खूब लड़ेंगी। मेरी बहनें भी खूब झगड़ती हैं। तुम्हें बहुत परेशान करेंगी ।थोड़ी सी बस पिटाई कर देना। कहकर हँस दी।
कुछ क्यारियों में बंदगोभी और फूल गोभी खिली पड़ रही थीं। बंदगोभियाँ तो पत्तों के बिछौने पर आराम फरमा रही थीं।उनमें से एक को देख लगा --अधखुली आँखों से मुझे बुला रही हैं। 


फूल गोभी को देखकर तो इच्छा हुई –

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ऊपर का कच्चा –कच्चा गोरा फूल खा जाऊँ पर थोड़ा सा डर गई—कहीं हाथ लगाने से गोभी मैली न हो जाए और माली काका टोक दे---अरे लल्ली----यह तूने---- क्या किया?
आगे की दो क्यारियों में केवल पौधे लहरा रहे थे। मुझे बड़ा अजीब सा लगा- –अरे इनमें तो कोई सब्जी ही नहीं हैं।
-यह मूली का पौधा है –यह गाजर का है।माली बोला। 
-मूली –गाजर तो दिख ही नहीं रही?
-वे तो जमीन के अंदर हैं।
-जमीन के अंदर!माली काका उन्हें जल्दी निकालो । मिट्टी के नीचे उनका दम घुट रहा होगा।
-बच्ची, मूली -गाजर तो जमीन के अंदर ही खुश रहती हैं। साथ में चुकंदर जैसे दूसरे साथी भी उनके साथ होते हैं। 


-एक गाजर निकाल कर दिखाओ न ।
माली ने कुछ गाजर और मूली जमीन से उखाड़ी। मिट्टी से लथपथ। 
-इतनी गंदी !मैंने बुरा सा मुंह बनाया। 
-अभी मैं पानी से धोकर मिट्टी साफ लिए देता हूँ। 
  नहाने से तो गाजर -मूली की रंगत ही बदल गई एकदम चिकनी चिकनी। मेरी जीभ उनका स्वाद लेने को मचल उठी पर मांगना ठीक न समझा। माली काका मेरे मन की बात समझ गए। बड़े प्यार से बोले-खाएगी क्या बिटिया?
मैं चुप रही,आँखों ने पहले से ही मेरे मन की बात बता दी थी।  
जैसे ही उन्होंने मेरी तरफ गाजर-मूली बढाईं,मैंने  लपककर ले लीं मानो पहली बार देखी हों।  
उतनी मीठी गाजर कभी नहीं खाई थीं।उन्हें चबाते चबाते मैंने पूछा –काका तुम्हारे खेत में क्या गन्नों के ऊंचे –ऊंचे पेड़ भी हैं?
-है तो-- चलो दिखाऊँ।
काका आगे-आगे,मैं पीछे – पीछे। जैसे ही मैंने गन्ने के बड़े-बड़े पत्ते देखे, मेरी चाल तेज हो गई। अब मैं आगे-आगे,काका पीछे-पीछे ।
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मैं जल्दी से गन्नों के बीच मेँ घुस गई इस डर से कि कहीं काका पीछे से मुझे खींच न ले। वह चिल्लाते हुए मेरे पीछे भागे-अरे बिट्टो,अंदर मत घुस, तेरे पैरों से पेड़ों की जड़ों को चोट पहुंचेगी---वे कुम्हला जाएंगे।  

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काका की टोकमटोक से इस बार मेरा मुंह फूल गया और तीर की तरह निकल पिता जी के पास चल दी। 
मुझे उस पर बहुत गुस्सा आ रहा था। बाग तो अंकल का था ,वह मुझे रोकने वाला कौन ?पिताजी पर भी झुँझला रही थी –अगर आज उनका छोटा सा भी बाग होता तो कम से कम आजादी से तो घूमती। फल-फूलों को जी भर देखती । वहाँ यह काका पहुँचकर मुझे परेशान तो न करता। बाग तो देख लिया पर काका के कारण मजा नहीं आया। मेरा मन उछट गया और  पिता जी से जल्दी ही घर चलने की जिद करने लगी।
यह तो मैंने बाद मेँ जाना कि माली काका की टोकमटाक ठीक ही थी। जिस तरह से माँ बाप बच्चों को बड़े प्यार से पालते है उनके सुख-दुख का ध्यान रखते हैं उसी प्रकार माली काका भी तो बाग के हर पेड़ पौधों की जी जान से देखभाल कर रहा था। वह कैसे सह सकता था कि कोई उनको कष्ट पहुंचाए।
आज भी जब किसी फल-फूल को तोड़ने मेरे हाथ बढ़ते हैं तो माली काका की टोकमटाक याद आ जाती है। अपने से ही प्रश्न पूछने लगती हूँ क्या ऐसा करना ठीक है और उत्तर में हाथ स्वत: ही पीछे हट जाते हैं।
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(चित्र गूगल से लिए हैं) 

सोमवार, 17 अगस्त 2015

राजस्थान पत्रिका

         आज सुबह ही सुबह राजस्थान पत्रिका के वेब ब्लॉग कॉर्नर में अपने ब्लॉग ' बचपन के गलियारे' के बारे में कुछ लिखा देख आश्चर्य मिश्रित खुशी की सीमा न रही । जिज्ञासा वश एक सांस  में ही उसे पढ़ डाला । अपनी खुशी को आप सबके साथ  शेयर करना चाहती हूँ और इसके लिए आर्यन शर्मा जी को बहुत बहुत धन्यवाद देती हूँ।  
वेब ब्लॉग पर चर्चा 
दिनांक -21 मार्च,2015 



बचपन के गलियारे
     
     अक्सर हम लोगों को यह कहते सुनते हैं कि काश!हम बच्चे ही रहते। दरअसल,उनके मन में ऐसे विचार जिंदगी की आपाधापी से परेशान होने के बाद आते हैं, जिसमें उलझकर वे अपने बारे में बिलकुल भी नहीं सोच पाते। बड़े होने पर जिम्मेदारियों का बोझ इस कदर हावी हो जाता है कि हम छोटी-छोटी खुशियों का भी लुत्फ नहीं उठा पाते ,जबकि बचपन में ऐसी ही छोटी छोटी खुशियाँ असीम आनंद देती हैं। ऐसे में हमारा आज का ब्लॉग यूजर्स को बचपन के गलियारे में ले जाएगा  और उसी फन एवं एंजॉयमेंट का अहसास कराएगा,जो कभी हम बचपन में किया करते थे।      'बालशिल्पके  ब्लॉगर सुधाकल्प (सुधा भार्गव)बेंगलूर निवासी हैं। ब्लॉग में बच्चों को संबोधित करते हुए वे कहती हैं ,’एक दिन मैं भी तुम्हारी तरह छोटी थी। अब तो बहुत बड़ी हो गई हूँ। लेकिन छुटपन की यादें पीछा नहीं छोडतीं। उन्हीं यादों को मैंने कहानी किस्सों का रूप देने की कोशिश की है।लिहाजा ब्लॉग न सिर्फ बच्चों का मनोरंजन करेगा ,बल्कि बड़ों को भी अपने भोलेपन के दौर की खुशबू का अहसास करवाएगा। ब्लॉगर ने अपने बालसंस्मरण  ,’धोबी –धोबिन का संसार , में बचपन में घर पर गंदे कपड़े लेने आने वाले धोबी-धोबिन  के बारे में बताया है। उनका हुलिया कैसा था। वे कैसे परिधान पहनते  थे और घर के लोगों को कैसे संबोधित करते थे। । भले ही ये बातें आज फिजूल लगें,लेकिन बालमन हमेशा जिज्ञासा का केंद्र रहा है । धमाचौकड़ी,शैतानी और उस बचपन की मासूमियत को ब्लॉग के फ्रेम में बड़ी खूबसूरती के साथ जड़ा गया है,जिसमें आप खो जाएँगे।
ब्लोह का पता है-

-आर्यन शर्मा  





शनिवार, 30 मई 2015

जब मैं छोटी थी



॥22॥ ठप्पा लगाओ खटाखट

सुधा भार्गव
 


मैं जब छोटी थी लिफाफे -पोस्टकार्ड पर सरकारी मोहर से खटाखट ठप्पा लगाने में बड़ा मजा आता था।पर पोस्ट आफिस में घुसना गुड़िया का खेल न था।
हमारी हवेली के मुख्य दरवाजे के बाएँ भार्गव फार्मेसी पोस्ट ऑफिस था। सरकारी डाकखाने के पोस्टमास्टर जी रिटायर हो गए तो पिता जी ने उन्हें आदर सहित भार्गव पोस्ट ऑफिस में रख लिया। वे ज़्यादातर धोती कमीज पहनते थे। हाँ,बैग लाना न भूलते।जो कभी उनके हाथ में लटकता तो कभी दीवार पर। बात कम,काम ज्यादा वाली पटरी पर चलते।

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हम बच्चों को पोस्ट आफिस में घुसना मना था। उसके दो दरवाजे थे। एक सड़क की तरफ खुलता था और दूसरा हमारे घर की दुवारी में खुलता था। वह ज़्यादातर भिड़ा रहता। करीब दो बजे मैं और मेरा भाई  स्कूल से आते । उस समय पोस्ट ऑफिस से खटखट की आवाज आती । हमें बड़ी अजीब सी लगती। एक दिन भिड़े दरवाजे से अंदर झाँककर देखा –पोस्टमास्टर जी के सामने बहुत से पोस्टकार्ड व लिफाफे रखे हैं। एक को हाथ में लेते ,उसे मेज पर एक किनारे रखकर दूसरे हाथ से उस पर पूरी –ताकत से पोस्ट ऑफिस की मोहर (stamp)लगाते।उसी से धम --धम की आवाज होती। हमें भी शौक चिर्राया स्टाम्प लगाने का। हमारे लिए यह एक नए खेल से ज्यादा कुछ नहीं था।घुसें तो कैसे घुसें डाकखाने में। कई दिन की ताक-झांक के बाद पता लगा कि 2बजे मास्टर जी 

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लैटरबाक्स से चिट्ठियाँ निकालने बाहर जाते हैं और उसी के बाद ठप्पा लगाने की धमा चौकड़ी शुरू होती है। पिताजी भी दोपहर का खाना खाकर उस समय थोड़ा आराम करते थे। बस हो गया हमारा रास्ता साफ ।
एक दिन जैसे ही दरवाजा खोलकर मास्टरजी लैटरबॉक्स से चिट्ठियाँ लेने बाहर निकले, मैं अपने भाई के साथ बिल्ली की तरह दबे पाँव पोस्ट ऑफिस में घुस गई। बड़े रौब से हम कुर्सियों पर बैठ गए। हमें वहाँ बैठे देखकर मास्टर जी खुश तो हुए पर कड़क आवाज में पूछे बिना न रहे –तुम लोग यहाँ कैसे ?
हमने हाथ जोड़कर नमस्कार किया। वे कुछ पिघले।
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-क्या तुम्हें पुराने टिकट चाहिए?  





-नहीं!हमने ज़ोर से अपनी गर्दन हिला दी। 
 -तब क्या चाहिए ?
-हमें चिट्ठियों पर जरा स्टाम्प मारना है – खट-खटाखट –खट।   
-अरे ये बच्चों का खेल नहीं है।
-बस एक बार मार लेने दीजिए। हम गिड़गिड़ाए।
-अच्छा ,मैं हाथ पकड़कर लगवाता हूँ। खट –खट -----।
-बस एक बार और --।
-खट –खट --। बस जाओ।
-अरे मैंने तो मोहर मारी ही नहीं। भाई बोल उठा। 

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-तुम भी मारोगे !अच्छा एक शर्त है, आज के बाद फिर कभी नहीं। बच्चों की यह जगह नहीं हैं ।
हमने ज़ोर से सर हिलाया –ठी---क है।
यह खेल बड़ा दिलचस्प लगा और हम अपने को काबू में न रख सके। ऐसे मामलों में हम दो नहीं ,एक और एक ग्यारह के बराबर हो जाते और हिम्मत आसमान तक पहुँच जाती । अब तो जब –तब निधड़क पोस्ट आफिस में घुस जाते और उनके सिर पर सवार हो जाते । वैसे हम उनसे बड़े खुशामदी स्वर में नमस्ते किया करते। वे नमस्ते का जबाव घबराते –घबराते देते। हम मोहर पर कब्जाकर शुरू कर देते –एक-दो-तीन। 

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-ले भइया अब तेरी बारी है –खटखट –एक-दो-तीन। मास्टर जी को गुस्सा आता । जबर्दस्ती मोहर हमारे हाथ से छीन लेते।
-बस बहुत हो गया ---निकलो यहाँ से बाहर या बुलाऊँ तुम्हारे पिताजी को। पिताजी का नाम सुनकर हम भाग खड़े होते।
धीरे –धीरे मैं मनीआर्डर करना,तार देना,पासबुक में पैसा जमा करना सीख गई क्योंकि पिता जी के काम से मैं बहुत जाती रहती थे।  मुझे उस तरह का काम करना अच्छा भी लगता । उस समय मास्टर जी मुझे आने से नहीं रोकते थे और बहुत प्यार से समझाते पर मुन्ना भाई के होने से मुझे शैतानी सूझती और एक ही रट लगाती –आज तो चिट्ठियों पर मोहर मैं लगाऊँगी। ले मुन्ना ---लिफाफों पर तू भी लगा ले । उस समय मास्टर जी खीज जाते । हम उनकी परेशानी का मजा लेते और खटखट कुछ चिट्ठियों पर स्टम्प लगा कर भाग जाते ।


उन दिनों न कंप्यूटर थे न मोबाइल फोन । टेलीफोन भी घर –घर नहीं थे पर पत्र धड़ाधड़ लिखे जाते थे । एक्सप्रेस लैटर भी खूब चलते थे ।इनपर कुछ ज्यादा टिकट लगाने पड़ते थे। हम मोहर मारने के लिए ज़्यादातर उन्हीं को लपकते। शादी बाद मैंने भी एक्स्प्रेस लेटर का सहारा लिया। पीहर आने पर चिट्ठी लिखकर पोस्ट ऑफिस में जाती और उसपर टिकट लगा देती। अक्ल आने पर मोहर लगाने का खेल भी खतम हो गया या कहो बचपन की शरारतें घुटने टेक चुकी थीं लेकिन मास्टर जी की निगाहों में अब  भी मैं वही छोटी लल्ली थी। जाने को मुड़ती तो कहते –लल्ली इस पर मोहर तो लगाती जा । मैं नीची निगाह किए मोहर लगाती। उनके स्नेह और अपनेपन को देख मेरी आँखें भर आतीं और आंसुओं को छिपाती दरवाजे से निकल जाती। आज भी उनका स्नेह मेरी यादों की खिड़की से झाँकता नजर आता है। 

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गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

मैं जब छोटी थी


॥ 21॥ हा ! हा! रसीले आम 
सुधा भार्गव 










बचपन में मुझे आम खाने का बड़ा शौक था। घर में जितने भी आम आते –देखकर लगता सब के  सब गपागप खा जाऊँ। बाबा भी हमें खूब आम खिलाते। वे होम्योपैथिक डॉक्टर थे और उनकी दुकान सब्जी मंडी के पास ही थी। दुकान  में उनकी मेज-कुर्सी से कुछ दूरी पर करीब दो फुट लंबी अलम्यूनियम की टंकी एक स्टूल पर रखी होती जिसमें पीतल की टोंटी चमचमाती हँसती। आम के मौसम में उसके नीचे बड़ा सा तसला आसन जमाए बैठ जाता।  भीमा आम वाला डाल के पके चुसवा आम उसमें भर देता।बाबा उसके सारे परिवार को मुफ्त में दवा देते इस कारण वह चुन -चुनकर मीठे आम लाता। 

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भीमा आमवाल 
टंकी में पानी भरना भी उसी का काम था।4-5 घंटे आम पानी में नहाते -गोते लगाते।ठंडे हो जाने के बाद ही उनको पेट में जाने की आज्ञा थी। मेरी सहेली कुंती के बाबा भी आमों को पानी में भिगोते रहते थे। और वह उन्हें देख -देख मेरी तरह बहुत देर तक खाने को तरसती रहती। 

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कुंती के बाबा 
मैं सोचा करती 
–बाबा तो मेरे हैं इसलिए उनकी हर चीज पर मेरा सबसे ज्यादा अधिकार है। इसी कारण तसले के ज्यादा से ज्यादा आम खाने की फिराक में रहती।
भरी दोपहरी स्कूल से आते ही बस्ता घर में फेंक चल देती दुकान की ओर।अगर किसी ने टोक दिया –किधर चली इस गर्मी में ---- लगता बिल्ली रास्ता काट गई। मन मसोसकर 4बजे तक धूप ढलने तक इंतजार करना पड़ता। इस समय मैं अकेले ही जाने की कोशिश करती –कहीं कोई भाई साथ में चिपक गया तो आम के हिस्से बाँट हो जाएंगे।

नियम था स्कूल से सीधे घर आओ। एक दिन तो मैंने हिम्मत करके सारे नियम ताक पर रख दिए और स्कूल से सीधे दुकान पर जा पहुंची। बाबा मेरे आने का कारण तो समझ गए पर  उनकी त्यौरियाँ चढ़ गईं--- आम भागे तो नहीं जा रहे थे फिर टीकाटीक दोपहरी में आने का क्या मतलब! मटकी का ठंडा पानी पीकर बैठ जाओ । मेरे साथ घर चलना। 

     
    डांट खाने पर भी मैं बड़ी खुश!आज तो शाम तक खूब आम खाने को मिलेंगे।
    पानी में तैरते पीले-पीले ,गुलाबी गाल वाले आमों को देख लगा वे हंस हंस कर
मुझे बुला रहे हैं। अपने को ज्यादा काबू में न रख
सकी ।बोली -बाबा,मैं आम खाऊँगी।
-अभी नहीं—आम को थोड़े देर भीगने दो जिससे उनकी गर्मी शांत हो जाए वरना फोड़े-फुंसियाँ निकल आएंगे।

मैं इंतजार करने लगी।
इतने में 2-3 मरीज आ गए। उनके सामने मांगने में शर्म  आने लगी। बाबा मरीजों से कहने लगे-यह हमारी पोती है। कक्षा 6 में पढ़ती है। बहुत होशियार है।बेटा –जरा काली सल्फ की पाँच पुड़ियाँ तो बनाओ। हरी कंपाउंडर कुछ लेने गया है।
मैं बड़ी शान से उठी और तीन दिनों के लिए दवाई की पुड़ियाँ बनाकर दे दी। ये पुड़ियाँ कागज की थीं। वैसे भी बाबा का काम कर के उन्हें खुश कर देना चाहती थी ताकि आम मिलने की शुरुआत तो हो।
उनके जाते ही फिर बोल पड़ी –बाबा-----।  
                                                                        बाबा ने पूरी बात सुने बिना मेरे हाथ में दो आम थमा दिए जिन्हें चूसकर मन ही 

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 मन उछलने लगी – आज तो मैंने सबसे पहले खाए हैं।किसी और को तो मिले भी नहीं ---टिल्ली---टिल्ली।

दो आम तो दो मिनट  में ही खतम हो गए। बाकी आमों की खुशबू सूंघते –सूंघते 4बज गए। बाबा को मुझ पर तरस आया-भूख लगी होगी ,6 बजे तक घर जाना होगा। बोले -ये दो आम और ले लो।
हाथ बढ़ाकर झट से लपक लिए कहीं बाबा का मन न बदल जाए।Image result for two small mangoes
आह!चार आम --बल्ले --बल्ले। जल्दी जल्दी चूस गई।
  
6 बजते ही दुकान बंद हुई। आगे –आगे मैं बाबा के साथ ,पीछे-पीछे कंपाउडर आम का झोला लटकाए चल रहा था। कोट,अचकन पहने मेरे मुच्छी वाले बाबा उस समय बड़े रोबीले लग रहे थे। दुकानवाले बाबा को सलाम ठोकते । लगता सिर झुकाकर वे मुझे ही सलाम कर रहे हैं। मेरी गर्दन शान से तन जाती। वैसे भी इठलाती-इतराती हवा में उड़ रही थी -----घर जाकर तो दो आम और मिलेंगे।  हिसाब लगाया -बाबा,अम्मा–पिताजी,चाची –चाचा सबके दो –दो,मुन्ना के दो ,छोटे भाइयों को तो एक -एक ही चल जाएगा –छोटे हैं न। बांटने के बाद दो आम तो जरूर बच जाएंगे। उन्हें तो रात में आराम से खाऊँगी जब सब सो जाएंगे।
रात के भोजन के समय अम्मा ने सबको आम दिए। वे दूसरों को आम देती मुझे कुछ-कुछ होने लगता। झोले में झांककर देखती –खतम तो नहीं हो गए। घर में सबको देने के बाद अम्मा ने नौकरों को भी दिए। बाद में मुझे आवाज लगाई ,मैं दौड़ी-दौड़ी गई कि बचे आम तो अब मेरे हिस्से ही पड़ेंगे।
बोली –ये आम रख आ।
-माँ मुझे तो तुमने आम दिए ही नहीं ---।मैंने अपना हाथ पसार दिया।
-तेरे बाबा ने जरूर तुझे दिए होंगे।

मैं चुप !कहीं पोल न खुल जाए।
- अच्छा ले –तू भी दो ले ले। मगर इससे ज्यादा नहीं !आम की ऐसी दीवानी है कि खाना पीना भी भूल जाए।
अम्मा की झिड़की भी बुरी नहीं लगी।आखिर आम तो मिले। एक हाथ से मुन्ना का हाथ पकड़ा और दूसरे हाथ में दो आम थामे दनादन सीढ़ियाँ चढ़ छत पर जा पहुंची। एक आम मुन्ना को दिया। इस बार तो उसे देना ही था वरना मुझे अकेली छोड़ नीचे भाग जाता।  दूसरा मैंने चूसा। गुठली को बहुत देर तक चूसते रहे जैसे मेरी छोटी बहन अंगूठा चूसती थी।
अब मैं यह सोचने लगी कि गुठली का क्या किया जाए। 
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तभी रक्का अपनी दोमंज़िले घर की छत पर खड़ा दीख गया। उसने हमारी दो पतंगें काटी थीं,इससे मैं उससे चिढ़ी बैठी थी।
-मुन्ना ,देख रक्का खड़ा है ,इसकी छत पर गुठली से निशाना लगाते हैं।
-अरे अभी नहीं !अंकल भी छत पर हैं ।
 हम झट से मुँडेर के पीछे छिप गए।बीच बीच में उचककर देखते रक्का की छत खाली हुई या नहीं।  
रक्का जल्दी ही अपने पिता जी के साथ नीचे चला गया और हमने छककर लगाया गुठली से निशाना—पड़ी उसी की छत पर। हमारा तिमंजिला मकान होने के कारण इस निशानेबाजी को कोई देख न सका वरना हम ही लाल-पीली आँखों का निशाना बन जाते। इसके बाद एक मिनट भी छत पर रुके नहीं। दबे पाँव कमर के बल झुके झुके नीचे उतर आए।
रात को बहुत देर तक नींद नहीं आई। एक ही बात सोच रही थी-आज तो बाजी मार ली --एक नहीं--दो नहीं --पाँच -पाँच आम खाए है। कल आम ही आम खाऊँ तो कितना अच्छा हो।

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बालमन की चौकड़ी में आम के साथ साथ गुठली का भी बड़ा नाम और काम था।  वे दिन याद आते ही चेहरा तो बस खिल खिल उठता है।


(चित्र -गूगल से साभार )

क्रमश: