॥1॥ बाग-बगीचे,खेत-खलिहान
सुधा भार्गव
मुझे बचपन मेँ बाग-बगीचे और खेतों मेँ घूमने का बड़ा शौक था।
एक दिन मैंने बाबा से कहा –पिताजी के पास सब कुछ है
पर न कोई बाग है और न कोई खेत। मेरे अच्छे बाबा,उनसे बोलो
न-- एक छोटा सा बगीचा मेरे लिए खरीद लें।
-तू क्या करेगी मुनिया?
-मैं खट्टी –खट्टी अमिया तोड़कर खाऊँगी। आपके लिए
अमरूद तोडूंगी।
-तेरे हाथ तो छोटे छोटे है। डाल तक जाएंगे ही नहीं।
-ओह बाबा –देखो मैं ऐसे उचक-उचक एड़ी के बल खड़ी हो
जाऊँगी और लपककर डाली को पकड़ नीचे की तरफ खींच लूँगी।
-इस तरह तो तू धड़ाम से गिरेगी।
-ओह,तब मैं क्या करूँ।
हा!याद आया—नंदू से कहूँगी मेरे साथ नसैनी लेकर बाग में चल। नसैनी पर चढ़कर अमरूद
तोड़ लूँगी।
-बेटी –लुढ़क लुढ़का जाएगी। तेरे लिए अभी बाजार से
मीठे -मीठे अमरूद मँगवा देता हूँ।
- बाबा –आप समझते क्यों नहीं! तोड़कर खाने में जो मजा
है वह खरीदकर खाने मैं नहीं आता।
-तू देर से पैदा हुई –पहले क्यों न हुई ?
-क्यों बाबा?
-तेरे परबाबा आढ़े गाँव के रहने वाले थे। उनके पास
बाग- बगीचे और लंबे -चौड़े खेत थे। तू होती तो सारे दिन बाग के आम खाती और खेतों में नन्ही चिड़िया सी उड़ती रहती।
-सब कहाँ गए बाबा?
-मैं शहर चला आया। बाग तो बेच दिए और खेत किसानों के पास हैं।
-तो उनसे वापस ले लो।
-अब नहीं लिए जा सकते। उन्होंने सालों बड़ी मेहनत से
खेतों में काम किया इसलिए उनको ही दे दिए। एक बार देकर चीज वापस नहीं ली जाती।
-तब पिताजी से कहो मेरे लिए जल्दी ही कोई बाग ले लें।मैं अनमनी सी बोली।
-बेटा जग्गी को बाग में कोई दिलचस्पी नहीं। हाँ, उसके कुछ दोस्त
हैं जिनके बाग -बगीचे हैं। उससे कहूँगा तुझे बाग दिखा लाए।
बाबा के कहने पर पिता जी मुझे अपने दोस्त रमेश अंकल
के बगीचे में लेगए। ठंडी-ठंडी --- खुशबू भरी हवा से मेरा मन खुश हो गया। कोयल की कूक सुन मैं उसे पकड़ने को
उतावली हो उठी और उसकी आवाज का पीछा करने लगी। मेरी भागादौड़ी पर अंकल को तरस आ गया।
बोले-कोयल को तुम बहुत प्यार करती हो। कोयल भी
तुमको बहुत चाहती है। तभी तो गाना सुनाने आ जाती है पर हमेशा आजाद रहना चाहती है। इसलिए
किसी के हाथ नहीं लगती।
मैं थककर बैठ गई। इतने में बाग में काम करने वाला जिंदा माली कुछ पके रसीले आम लेकर आ गया।
अंकल हमें बड़े शौक से आम काटकर खिलाने लगे पर मुझे तो बाग में घूमने की जल्दी पड़ी थी। तीन-चार फाँके ही
खाकर उठ गई।
दूर तो अकेली जाने की हिम्मत नहीं हुई ,बस आसपास ही चक्कर लगाने लगी। अमरूदों की खुशबू का एक झोंका आया तो
सूंघते-सूंघते उसी दिशा की ओर बढ़ गई जिधर अमरूद के पेड़ की डालियाँ फलों के बोझ से झुकी जा रही थीं। माँ ने बताया था कि अमरूद से कब्ज जाता रहता है और
मुझे ज़्यादातर कब्ज हो जाता। मन ही मन गुलगुले पकाने लगी -आज तो जी भर कर अमरूद
खाऊँगी फिर तो कब्ज दुम दबा कर ऐसा भागेगा –ऐसा भागेगा कि भूल से भी
मेरे पेट में घुसने का नाम न लेगा। लेकिन जल्दी ही मेरे गुलगुले पिलपिले हो
गए।
अमरूद तो लटके हुए थे पर सब के सब कच्चे। न जाने कहाँ से एक तोता भी पेड़ की डाल पर आकर बैठ हुआ था और अमरूदों को कुतर -कुतर कर झूठा किए दे रहा था। मैंने हुस--हुस करके उसे हाथ से उड़ाने की बहुत कोशिश की पर अमरूदों के आगे उसने मेरी एक न सुनी। मैं दुखी सी लौट आई।
अमरूद तो लटके हुए थे पर सब के सब कच्चे। न जाने कहाँ से एक तोता भी पेड़ की डाल पर आकर बैठ हुआ था और अमरूदों को कुतर -कुतर कर झूठा किए दे रहा था। मैंने हुस--हुस करके उसे हाथ से उड़ाने की बहुत कोशिश की पर अमरूदों के आगे उसने मेरी एक न सुनी। मैं दुखी सी लौट आई।
-इसे पेड़-पौधे अच्छे भी लगते हैं। कहकर पिताजी ने
मंजूरी दे दी।
मेरे पैरों में मानो पहिये लग गए हों। सरपट भागती
हुई माली का पीछा करने लगी पर पीछे से आती
आवाजें मेरा पीछा कर रही थी। पिता जी को कहते सुना-लगता है इसकी शादी ऐसे घर में
करनी पड़ेगी जहां कुछ भी न हो पर बाग-बगीचे,खेत- खलिहान और
गाय-भैंसें जरूर हों।वरना दहेज में यह सब देना पड़ेगा। फिर एक साथ हंसी के ठहाके
हवा में तैर गए।
खेत में घुसते ही छोटे छोटे टमाटरों को देख ठिठक
गई------
आह! कितने प्यारे टमाटर !
एक तोड़ा ही था कि माली काका भागता हुआ आया-ए लल्ली तूने यह क्या किय?यह बच्चा टमाटर बड़े होकर लाल गूदेदार मोटा-ताजा निकलता।च—च—बेचारा! समय से पहले ही मारा गया।
आह! कितने प्यारे टमाटर !
एक तोड़ा ही था कि माली काका भागता हुआ आया-ए लल्ली तूने यह क्या किय?यह बच्चा टमाटर बड़े होकर लाल गूदेदार मोटा-ताजा निकलता।च—च—बेचारा! समय से पहले ही मारा गया।
-मर गया –नहीं नहीं काका यह तो जिंदा है देखो कैसा
लाल है और मैंने गप्प से मुंह में रख लिया-आह क्या खट्टा-खट्टा है।
तभी मेरी निगाह क्यारी में दो जुड़े टमाटरों पर पड़ी। मेरा तो मुंह खुला का खुला रह
गया- जुड़वाँ टमाटर। ताई के जुड़वाँ बहनें हुई थीं। -----टमाटर के भी जुड़वाँ बच्चे ।
मैं पूछ बैठी-
-काका ये दोनों भाई हैं या बहन ?
-बहनें हैं बहने!वह हड़बड़ा गया। उसे ऐसे प्रश्न की
आशा नहीं थी।
-तब तो ये खूब लड़ेंगी। मेरी बहनें भी खूब झगड़ती
हैं। तुम्हें बहुत परेशान करेंगी ।थोड़ी सी बस पिटाई कर देना। कहकर हँस दी।
कुछ क्यारियों में बंदगोभी और फूल गोभी खिली पड़ रही थीं। बंदगोभियाँ तो पत्तों के बिछौने पर आराम फरमा रही थीं।उनमें से एक को देख लगा --अधखुली
आँखों से मुझे बुला रही हैं।
फूल गोभी को देखकर तो इच्छा हुई –
ऊपर का कच्चा –कच्चा गोरा फूल खा जाऊँ पर थोड़ा सा डर गई—कहीं हाथ लगाने से गोभी मैली न हो जाए और माली काका टोक दे---अरे लल्ली----यह तूने---- क्या किया?
फूल गोभी को देखकर तो इच्छा हुई –
ऊपर का कच्चा –कच्चा गोरा फूल खा जाऊँ पर थोड़ा सा डर गई—कहीं हाथ लगाने से गोभी मैली न हो जाए और माली काका टोक दे---अरे लल्ली----यह तूने---- क्या किया?
आगे की दो क्यारियों में केवल पौधे लहरा रहे थे। मुझे बड़ा अजीब सा लगा- –अरे
इनमें तो कोई सब्जी ही नहीं हैं।
-यह मूली का पौधा है –यह गाजर का है।माली बोला।
-मूली –गाजर तो दिख ही नहीं रही?
-वे तो जमीन के अंदर हैं।
-जमीन के अंदर!माली काका उन्हें जल्दी निकालो ।
मिट्टी के नीचे उनका दम घुट रहा होगा।
-बच्ची, मूली -गाजर तो
जमीन के अंदर ही खुश रहती हैं। साथ में चुकंदर जैसे दूसरे साथी भी उनके साथ होते हैं।
-एक गाजर निकाल कर दिखाओ न ।
माली ने कुछ गाजर और मूली जमीन से उखाड़ी। मिट्टी से लथपथ।
-इतनी गंदी !मैंने बुरा सा मुंह बनाया।
-अभी मैं पानी से धोकर मिट्टी साफ लिए देता हूँ।
नहाने से तो गाजर -मूली की रंगत ही बदल गई एकदम चिकनी चिकनी। मेरी जीभ उनका स्वाद लेने को मचल उठी पर मांगना ठीक न समझा। माली काका मेरे मन की बात समझ गए। बड़े प्यार से बोले-खाएगी क्या बिटिया?
-इतनी गंदी !मैंने बुरा सा मुंह बनाया।
-अभी मैं पानी से धोकर मिट्टी साफ लिए देता हूँ।
नहाने से तो गाजर -मूली की रंगत ही बदल गई एकदम चिकनी चिकनी। मेरी जीभ उनका स्वाद लेने को मचल उठी पर मांगना ठीक न समझा। माली काका मेरे मन की बात समझ गए। बड़े प्यार से बोले-खाएगी क्या बिटिया?
मैं चुप रही,आँखों ने पहले से
ही मेरे मन की बात बता दी थी।
जैसे ही उन्होंने मेरी तरफ गाजर-मूली बढाईं,मैंने लपककर ले लीं मानो पहली बार देखी हों।
उतनी मीठी गाजर कभी नहीं खाई थीं।उन्हें चबाते चबाते मैंने पूछा –काका तुम्हारे खेत में क्या गन्नों के ऊंचे –ऊंचे पेड़ भी हैं?
उतनी मीठी गाजर कभी नहीं खाई थीं।उन्हें चबाते चबाते मैंने पूछा –काका तुम्हारे खेत में क्या गन्नों के ऊंचे –ऊंचे पेड़ भी हैं?
-है तो-- चलो दिखाऊँ।
काका आगे-आगे,मैं पीछे – पीछे।
जैसे ही मैंने गन्ने के बड़े-बड़े पत्ते देखे, मेरी चाल तेज हो
गई। अब मैं आगे-आगे,काका पीछे-पीछे ।
मैं जल्दी से गन्नों के
बीच मेँ घुस गई इस डर से कि कहीं काका पीछे से मुझे खींच न ले। वह चिल्लाते हुए
मेरे पीछे भागे-अरे बिट्टो,अंदर मत घुस, तेरे पैरों से पेड़ों की जड़ों को चोट पहुंचेगी---वे कुम्हला जाएंगे।
काका की टोकमटोक से इस बार मेरा मुंह फूल गया और तीर की तरह निकल पिता जी के पास चल दी।
मुझे उस पर बहुत गुस्सा आ रहा था। बाग तो अंकल का था ,वह मुझे रोकने वाला कौन ?पिताजी पर भी झुँझला रही थी –अगर आज उनका छोटा सा भी बाग होता तो कम से कम आजादी से तो घूमती। फल-फूलों को जी भर देखती । वहाँ यह काका पहुँचकर मुझे परेशान तो न करता। बाग तो देख लिया पर काका के कारण मजा नहीं आया। मेरा मन उछट गया और पिता जी से जल्दी ही घर चलने की जिद करने लगी।
यह तो मैंने बाद मेँ जाना कि माली काका की टोकमटाक
ठीक ही थी। जिस तरह से माँ बाप बच्चों को बड़े प्यार से पालते है उनके सुख-दुख का
ध्यान रखते हैं उसी प्रकार माली काका भी तो बाग के हर पेड़ पौधों की जी जान से
देखभाल कर रहा था। वह कैसे सह सकता था कि कोई उनको कष्ट पहुंचाए।
आज भी जब किसी फल-फूल को तोड़ने मेरे हाथ बढ़ते हैं तो माली
काका की टोकमटाक याद आ जाती है। अपने से ही प्रश्न पूछने लगती हूँ क्या ऐसा करना ठीक है और उत्तर में हाथ स्वत: ही पीछे हट जाते हैं।
(चित्र गूगल से लिए हैं)
(चित्र गूगल से लिए हैं)