॥10॥ तरबूज खरबूज की बहार
सुधा भार्गव
छुटपन में मुझे तरबूजे -खरबूजे खाने का बड़ा शौक था।


गरमी के दिनों में अनूपशहर में गंगा नदी बहुत दूर चली जाती हैं और छोड़ जाती हैं अपने पीछे बड़ा सा रेतीला मैदान जहाँ खरबूजे -तरबूजे की खेती होने लगती है।

बाबा रोज गंगा नहाने जाते थे। मैं और मेरा छोटा भाई भी साथ हो लेते।रास्ते में खेत मिलते। उनमें छोटी - छोटी -हरी ककड़ियों को देखकर मैं जैसे ही तोड़ने को हाथ बढ़ाती जोर का धमाका होता ---मुन्नी ----!जैसे बम फूटा हो --!बढ़े हाथ तुरंत पीछे हो जाते।
एक बार रेतीले मैदान में धोबी का लड़का कैलाशी मिल गया ।उसे देखकर मैं बहुत खुश हुई ।सोचा--अब तो यहाँ खूब धमाचौकड़ी करेंगे। उसके बाप ने भी खेती की थी। गंगा स्नान के बाद बाबाजी पूजा के लिए बैठने ही वाले थे कि वह आया और बोला ---
--बाबू जी इन्हें अपना खेत दिखा लाऊँ ।

--ले जाओ लेकिन जल्दी आना।
तीर की तरह वहाँ से हम निकले कहीं बाबा अपना इरादा न बदल दें।
कैलाशी मेरी उम्र का दस -ग्यारह वर्ष का होगा । हम एक -दूसरे का हाथ पकड़ते -मटकते चल दिये ।
रेतीला खेत बहुत दूर था । सूखी बालू में चलने की आदत भला कहाँ !

----एक पैर उठाते दूसरा रेत में घुस जाता । कभी चप्पल अन्दर घुस जाती, केवल पैर ही बालू से निकल पाता ।
कैलाशी ने मुन्ना को तो अपने कंधे पर बैठा लिया और मुझसे बोला ----
-नंगे पैर चलो और चप्पलों को हाथ में ले लो।
चलने में थोड़ी सुविधा हुई । अच्छा हुआ सूर्य महाराज का मिजाज ठंडा था सो बालू गर्म नहीं हुई वरना तलुए ही झुलस जाते।
थोड़ी दूर चलनेपर मैं तो हांफने लगी।कैलाशी मुन्ना को लिए हिरन की तरह भाग रहा था।
मैंने आवाज दी ,ओ-- कैलाशी-- धीरे चल ,मैं रास्ता भूल जाऊँगी ।
वह एक क्षण रुकता ---फिर भागने लगता मानो उसके पैरों में पहिये लगे हों।
हमको आया देख धोबी काका(कैलाशी के पिताजी )बड़ा खुश हुआ।उसने अपने लाल ,पतले अंगोछे से लकड़ी का तख़्त झाड़ा और प्रेम से बैठाया।
कैलाशी की बहन पारो ने फुर्ती से ३-४ हरी -मुलायम ककड़ियां तोड़ीं ।पानी से धोईं।

बोली --भैया ,खाओ --दीदी तुम भी खाओ।
हम खाने में सकुचा रहे थे।वह ही ---ही करके हंस पड़ी।
--अरे तुम्हें खाना भी नहीं आता ---!देखो ऐसे खाते हैं -------।
उसने झट से एक ककड़ी दाँतों के बीच में दबाई।खट से आवाज हुई।मुँह में ककड़ी छप -छप चबाने लगी।
मैंने भी बकरी की तरह ककड़ी चबानी शुरू कर दी। ऐसा मजा आ रहा था कि अपनी सारी थकान भूल गई।
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-चलो ,तुम्हें खेत की सैर कराता हूं।धोबी काका स्नेह से बोले। उन्होंने मेरे मुँह की बात छीन ली ।
बालू में भी बड़ी मेहनत से क्यारियां बनाई गयी थीं। बीच -बीच में सरकंडे और बांस की खप्पचियां लगी थीं ताकि बालू सरक न जाय।
एक क्यारी में नये -नये पत्तों के साथ मुलायम गद्दे पर बेल फैली हुई थी।

और ककड़ियाँ हिलमिलकर लेटी थीं।दूसरी क्यारी में खरबूजे लुढ़क रहे थे।मैंने छोटा सा खरबूजा तोड़ने को हाथ बढ़ाया।काका ने टोक दिया--
-अभी यह छोटा और कम उम्र का है बड़े होने पर पकेगा

खरबूजा बच्चा शरारत से ठेंगा दिखाने लगा ।
कैलाशी एक खरबूजा् लेकर भागा -भागा आया।अपनी हथेलियों के बीच उसे जोर से दबाया --दो टुकड़े हो गये।रसीले गूदे से भरा एक मेरी हथेली पर रखा दूसरा मुन्ना की हथेली पर।
बोला --खाओ।
-कैसे खाऊँ ?चाकू से पहले फांकें काटो।
-छोटे बाबू ,यहाँ चाकू कहाँ से आया।कटा हुआ आम छिलके के साथ कभी खाया है ---!
-हाँ !हाँ ---खाया है ।
-कैसे खाया --जरा बताओ।
-गूदा -गूदा खा लिया --छिलका-छिलका फ़ेंक दिया।
-तुम तो बहुत चतुर हो। बस ऐसे ही खरबूजा खा लो।
उसने खरबूजे के दो टुकड़ों के चार टुकड़े कर दि्ये। एक

खाते -बतियाते हम आगे बढ़ गये । दूर से मुझे काले सिर दिखाई दिये ।
-कैलाशी ,तुम्हारे खेत में धूप में भी लोग सोते रहते हैं क्या ?
-क्या कहा !--कहाँ सोये हैं ---उसने लट्टू सी आँखें घुमायीं ।
उंगली उठाकर मैंने नाक की सीध में दूर इशारा किया।उसका तो हँसते -हँसते बुरा हाल हो गया।पेट पकड़ कर बैठ गया। मैं हैरत में रह गई।
क्यारी के पास आये तो लगा कोई सोया -वोय़ा नहीं है बल्कि हरे -काले -पीले मटके औंधे पड़े हैं।

-बाप रे !कितने बड़े चिकने -मोटे घड़े हैं ये जमीन पर क्यों रखे हैं ---फूट गये तो ---मुन्ना भाई चकित हो उठा…।
-ये मटके नहीं हैं बाबू!ये तो तरबूज हैं।इसे खाते हैं।तुम तो हमें बहुत हँसाते हो--ह--ह--ह--ही--ही--।
-मैंने तो इसे कभी खाया ही नहीं।
-अभी काट कर खिलाता हूं।
काटा तो अन्दर से एकदम लाल ! तरबूज भी हमारी बातों

उसमें बहुत कम काले बीज थे।स्वादवाला और मीठा -मीठा तरबूज कैलाशी के छोटे भाई की तरह

हम गपागप खा गये ।
हम सब बुरी तरह थक गये थे।बाबा के पास हमें पहुँचाने के लिए धोबी काका साथ आया।उसके सिर पर एक टोकरी थी।जिसमें रखे तरबूजों की खुशबू मेरी नाक में घुसी जा रही थी। पेट में तो तरबूज ठूसम-ठास भर लिया था पर मन कर रहा था इन्हें भी खा जाऊँ।
बाबा तो सफेद चंदन का टीका लगाये माला फेर रहे थे --ॐ ---ॐ ---ॐ ।
-डाँ .बाबू ,यह घर के लिए ------|

-तुम तो बहुत सारे तरबूजे ले आये हो।
-बाबूजी मना मत करो । आप आये दिन मेरे बच्चों को अपने बच्चे समझ इलाज करते रहते हैं।क्या मैं इतना भी नहीं कर सकता।
बाबा उसके अपनेपन को देखकर चुप हो गये।
उस दिन तरबूजे -खरबूजों के घर की खूब सैर हुई।अब तो न धोबी काका जैसा इंसान मिलता है न ही गंगा के उस किनारे जाना होता है जहाँ मेरा जन्म हुआ ।लेकिन जब भी बाजार में खरबूज -तरबूज देखती हूँ धोबी काका और उनके स्नेह में भीगे तरबूज -खरबूज खूब याद आते हैं जिनका स्वाद ही निराला था।

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