नये वर्ष की नई अभिलाषा ----

बचपन के इन्द्र धनुषी रंगों में भीगे मासूम बच्चे भी इस ब्लॉग को पढ़ें - - - - - - - -

प्यारे बच्चो
एक दिन मैं भी तुम्हारी तरह छोटी थी I अब तो बहुत बड़ी हो गयी हूं I मगर छुटपन की यादें पीछा नहीं छोड़तीं I उन्हीं यादों को मैंने कहानी -किस्सों का रूप देने की कोशिश की है I इन्हें पढ़कर तुम्हारा मनोरंजन होगा और साथ में नई -नई बातें मालूम होंगी i
मुझसे तुम्हें एक वायदा करना पड़ेगा I पढ़ने के बाद एक लाइन लिख कर अपनी दीदी को अवश्य बताओगे कि तुमने कैसा अनुभव किया I इससे मुझे मतलब तुम्हारी दीदी को बहुत खुशी मिलेगी I जानते हो क्यों .......?उसमें तुम्हारे प्यार और भोलेपन की खुशबू होगी -- - - - - -I

सुधा भार्गव
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रविवार, 31 अक्तूबर 2010

जब मैं छोटी थी

 
॥7॥ गुड़िया घर 
सुधा भार्गव




मैं जब छोटी थी गुड़िया खेलने का बड़ा शौक था i
मेरे पास कोई एक गुड़िया नहीं थी बल्कि लकड़ी की अलमारी
में उनका  बड़ा सा घर बसा हुआ था I माँ के हाथ की बनी रंग-बिरंगी गुड़िया बहुत नखरेवाली  हमेशा चारपाई पर
बैठी रहती I                       

जयपुर से बुआ लकड़ी की गुड़िया लायीं I उसकी तो हमेशा गर्दन ही हिलती रहती I दूसरी बार  आयीं तो लकड़ी के बर्तन लायीं Iमुझे बड़ा बुरा लगा I

मैंने तो कह दिया --बुआ ,मेरी गुड़ियाँ तो स्टील के बर्तन में  खाती है और हाँ ,जमीन पर सोने से उन्हें ठण्ड लगती  है Iअगली बार आओ तो पलंग और मेज -कुर्सी  जरूर  ले आना I
बुआ के कारण गुड़िया घर  भरा -पूरा लगता था I

मैं मथुरा बड़े शौक से जाती  वहाँ मेरी मौसी रहती थींI मौसी सुन्दर -सुन्दर गुड़ियाँ ब नातीं I वहाँ पहुँचते  ही कहना शुरू कर देती --
-मेरी अच्छी मौसी! प्यारी सी एक गुड़िया बना दो I
-बिटिया ,जरा खाना बना लूँ फिर छोटी सी गुड़िया बना दूंगी I
-छोटी नहीं ---बड्डी सी - - अपने 
  दोनों हाथों को फैला देती I
-थोड़ी देर में फिर कहती --खाना बनाने में मौसी बहुत देर करती हो  I पहले मेरी गुड़िया बना दो |

माँ झुंझला पडतीं --जब देखो रट लगाये रहती है -गुड़िया बना दो ---गुड़िया बना दो I नहीं बनेगी तेरी गुड़िया I खाना बनाने के बाद तेरी मौसी खाना खायेगी I

पेट भरते ही मौसी पलंग पर लुढ़क जाती और भरने लगती खर्राटे मैं खड़ी इन्तजार करती --कब मौसी जगे ,कब कहूँ ;अब तो बना दो मेरी गुड़िया I

एक  दिन मौसी की नींद खुली I देखा -मैं  चुप से खड़ी हूँ I वे मेरे मन की बात जान गयीं I उठीं ,बक्से में से पुरानी धोती  निकाली I उसे जमीन पर फैलाया Iगुड़िया के हाथ की ड्राइंग करके उसकी दो परतें काटीं I

फुर्ती से चलते मौसी के हाथों ने शीघ्र ही सुई -धागा थामा,तीन तरफ से हाथ की सिलाई की I उसमें रुई भरकर बोली  --ले हो गया हाथ तैयार I
-एक ही हाथ बनेगा क्या !
-गुड़िया का दूसरा हाथ पैर सर सब बनेंगे तू देखती जा I

मैं सच में अपनी मौसी को निहार रही थी I
कभी कहती -ठंडा  पानी  लाऊँ I मिट्टी  के घड़े से पानी लाती I
कभी कहती -पंखा झल दूँ  Iछोटे हाथों से पंखा डुलाने  लगती I
मौसी की गुड़िया बन तो  गई पर - - -  - - - 
मेरी हंसी छूट पडी ---ही --ही --गंजी --इसके तो बाल ही नहीं  हैं I
-तू तो चाहती है एक मिनट में गुड़िया बन जाय I जरा सब्र करI इस सुई में धागा डाल I मुझे कम दिखाई देने लगा है I

मैंने धागा डाला I मौसी ने लम्बे -लम्बे बाल बनाये I हवा का झोंका आया, वे लहराने लगे I आँखों की जगह दो बटन टीप दिए I
-इसका तो मुंह ही नहीं है खायेगी कैसे !
-उफ !चुप हो जा !अब काले की जगह लाल धागा सुई में पिरो दे I
मौसी ने अनार के दानों से लाल ओंठ बना दिए I गुड़िया हंसने लगी I
मै बतियाने लगी--मेरी रानो,मौसी तुझे सितारों से चमकते कपडे पहनाएगी I
-मैं  तो थक गई ,कल पहनाऊंगी I
-मैं अभी  आपके पैर दाब देती हूँ I बोलो- कहाँ दर्द है !दो मिनट की ही तो  बात है बस अपनी जैसे साड़ी पहना दो I
माँ तो बरस पडी --हद कर दी तूने ! दीदी को अब आराम करने दे I
--डांट मत,बच्ची बहुत भोली है अभी पहना देती हूँ इसे  साड़ी I भद्दी भी लग रही है
|

मैं तो झूम -झूम उठी- आह! मेरी अच्छी मौसी !

  गुड़िया को जल्दी से गोदी में लिया और निकल गई बाहर घुमाने I लगा  जैसे वह मेरे शरीर का एक अंग हो I खुश होती तो उसे प्यार करती ,कोई मुझे डांटता तो जी भरकर उससे  शिकायत  करती I

                                                                                वह मुझे सच्ची दोस्त लगी इसलिए उसे मैंने गुड़िया घर में सजा कर रख दिया I वह मुझे टुकुर -टुकुर देखती  रहती पर समय की धूल ने हम दोनों के बीच पर्दा डाल दिया I
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