नये वर्ष की नई अभिलाषा ----

बचपन के इन्द्र धनुषी रंगों में भीगे मासूम बच्चे भी इस ब्लॉग को पढ़ें - - - - - - - -

प्यारे बच्चो
एक दिन मैं भी तुम्हारी तरह छोटी थी I अब तो बहुत बड़ी हो गयी हूं I मगर छुटपन की यादें पीछा नहीं छोड़तीं I उन्हीं यादों को मैंने कहानी -किस्सों का रूप देने की कोशिश की है I इन्हें पढ़कर तुम्हारा मनोरंजन होगा और साथ में नई -नई बातें मालूम होंगी i
मुझसे तुम्हें एक वायदा करना पड़ेगा I पढ़ने के बाद एक लाइन लिख कर अपनी दीदी को अवश्य बताओगे कि तुमने कैसा अनुभव किया I इससे मुझे मतलब तुम्हारी दीदी को बहुत खुशी मिलेगी I जानते हो क्यों .......?उसमें तुम्हारे प्यार और भोलेपन की खुशबू होगी -- - - - - -I

सुधा भार्गव
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शनिवार, 30 मई 2015

जब मैं छोटी थी



॥22॥ ठप्पा लगाओ खटाखट

सुधा भार्गव
 


मैं जब छोटी थी लिफाफे -पोस्टकार्ड पर सरकारी मोहर से खटाखट ठप्पा लगाने में बड़ा मजा आता था।पर पोस्ट आफिस में घुसना गुड़िया का खेल न था।
हमारी हवेली के मुख्य दरवाजे के बाएँ भार्गव फार्मेसी पोस्ट ऑफिस था। सरकारी डाकखाने के पोस्टमास्टर जी रिटायर हो गए तो पिता जी ने उन्हें आदर सहित भार्गव पोस्ट ऑफिस में रख लिया। वे ज़्यादातर धोती कमीज पहनते थे। हाँ,बैग लाना न भूलते।जो कभी उनके हाथ में लटकता तो कभी दीवार पर। बात कम,काम ज्यादा वाली पटरी पर चलते।

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हम बच्चों को पोस्ट आफिस में घुसना मना था। उसके दो दरवाजे थे। एक सड़क की तरफ खुलता था और दूसरा हमारे घर की दुवारी में खुलता था। वह ज़्यादातर भिड़ा रहता। करीब दो बजे मैं और मेरा भाई  स्कूल से आते । उस समय पोस्ट ऑफिस से खटखट की आवाज आती । हमें बड़ी अजीब सी लगती। एक दिन भिड़े दरवाजे से अंदर झाँककर देखा –पोस्टमास्टर जी के सामने बहुत से पोस्टकार्ड व लिफाफे रखे हैं। एक को हाथ में लेते ,उसे मेज पर एक किनारे रखकर दूसरे हाथ से उस पर पूरी –ताकत से पोस्ट ऑफिस की मोहर (stamp)लगाते।उसी से धम --धम की आवाज होती। हमें भी शौक चिर्राया स्टाम्प लगाने का। हमारे लिए यह एक नए खेल से ज्यादा कुछ नहीं था।घुसें तो कैसे घुसें डाकखाने में। कई दिन की ताक-झांक के बाद पता लगा कि 2बजे मास्टर जी 

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लैटरबाक्स से चिट्ठियाँ निकालने बाहर जाते हैं और उसी के बाद ठप्पा लगाने की धमा चौकड़ी शुरू होती है। पिताजी भी दोपहर का खाना खाकर उस समय थोड़ा आराम करते थे। बस हो गया हमारा रास्ता साफ ।
एक दिन जैसे ही दरवाजा खोलकर मास्टरजी लैटरबॉक्स से चिट्ठियाँ लेने बाहर निकले, मैं अपने भाई के साथ बिल्ली की तरह दबे पाँव पोस्ट ऑफिस में घुस गई। बड़े रौब से हम कुर्सियों पर बैठ गए। हमें वहाँ बैठे देखकर मास्टर जी खुश तो हुए पर कड़क आवाज में पूछे बिना न रहे –तुम लोग यहाँ कैसे ?
हमने हाथ जोड़कर नमस्कार किया। वे कुछ पिघले।
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-क्या तुम्हें पुराने टिकट चाहिए?  





-नहीं!हमने ज़ोर से अपनी गर्दन हिला दी। 
 -तब क्या चाहिए ?
-हमें चिट्ठियों पर जरा स्टाम्प मारना है – खट-खटाखट –खट।   
-अरे ये बच्चों का खेल नहीं है।
-बस एक बार मार लेने दीजिए। हम गिड़गिड़ाए।
-अच्छा ,मैं हाथ पकड़कर लगवाता हूँ। खट –खट -----।
-बस एक बार और --।
-खट –खट --। बस जाओ।
-अरे मैंने तो मोहर मारी ही नहीं। भाई बोल उठा। 

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-तुम भी मारोगे !अच्छा एक शर्त है, आज के बाद फिर कभी नहीं। बच्चों की यह जगह नहीं हैं ।
हमने ज़ोर से सर हिलाया –ठी---क है।
यह खेल बड़ा दिलचस्प लगा और हम अपने को काबू में न रख सके। ऐसे मामलों में हम दो नहीं ,एक और एक ग्यारह के बराबर हो जाते और हिम्मत आसमान तक पहुँच जाती । अब तो जब –तब निधड़क पोस्ट आफिस में घुस जाते और उनके सिर पर सवार हो जाते । वैसे हम उनसे बड़े खुशामदी स्वर में नमस्ते किया करते। वे नमस्ते का जबाव घबराते –घबराते देते। हम मोहर पर कब्जाकर शुरू कर देते –एक-दो-तीन। 

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-ले भइया अब तेरी बारी है –खटखट –एक-दो-तीन। मास्टर जी को गुस्सा आता । जबर्दस्ती मोहर हमारे हाथ से छीन लेते।
-बस बहुत हो गया ---निकलो यहाँ से बाहर या बुलाऊँ तुम्हारे पिताजी को। पिताजी का नाम सुनकर हम भाग खड़े होते।
धीरे –धीरे मैं मनीआर्डर करना,तार देना,पासबुक में पैसा जमा करना सीख गई क्योंकि पिता जी के काम से मैं बहुत जाती रहती थे।  मुझे उस तरह का काम करना अच्छा भी लगता । उस समय मास्टर जी मुझे आने से नहीं रोकते थे और बहुत प्यार से समझाते पर मुन्ना भाई के होने से मुझे शैतानी सूझती और एक ही रट लगाती –आज तो चिट्ठियों पर मोहर मैं लगाऊँगी। ले मुन्ना ---लिफाफों पर तू भी लगा ले । उस समय मास्टर जी खीज जाते । हम उनकी परेशानी का मजा लेते और खटखट कुछ चिट्ठियों पर स्टम्प लगा कर भाग जाते ।


उन दिनों न कंप्यूटर थे न मोबाइल फोन । टेलीफोन भी घर –घर नहीं थे पर पत्र धड़ाधड़ लिखे जाते थे । एक्सप्रेस लैटर भी खूब चलते थे ।इनपर कुछ ज्यादा टिकट लगाने पड़ते थे। हम मोहर मारने के लिए ज़्यादातर उन्हीं को लपकते। शादी बाद मैंने भी एक्स्प्रेस लेटर का सहारा लिया। पीहर आने पर चिट्ठी लिखकर पोस्ट ऑफिस में जाती और उसपर टिकट लगा देती। अक्ल आने पर मोहर लगाने का खेल भी खतम हो गया या कहो बचपन की शरारतें घुटने टेक चुकी थीं लेकिन मास्टर जी की निगाहों में अब  भी मैं वही छोटी लल्ली थी। जाने को मुड़ती तो कहते –लल्ली इस पर मोहर तो लगाती जा । मैं नीची निगाह किए मोहर लगाती। उनके स्नेह और अपनेपन को देख मेरी आँखें भर आतीं और आंसुओं को छिपाती दरवाजे से निकल जाती। आज भी उनका स्नेह मेरी यादों की खिड़की से झाँकता नजर आता है। 

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3 टिप्‍पणियां:

  1. आपने अपने बचपन की बहुत खुबसूरत शरारत से हमें अवगत कराया है जो मन को छू जाती है.यह एक ऐसी यादें होती हैं जो हर किसी को ताउम्र पीछा करती हुई गुदगुदाती रहती हैं.इतनी सुन्दर यादों को परोसने के लिए आपको बधाई देता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि बच्चों को बहुत पसंद आएगी.

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    1. अशोक जी
      आपको ठप्पेवाला मेरा संस्मरण पसंद आया ,यह जानकार बहुत अच्छा लगा। कभी-कभी तो मुझे ही अपने लिखे को पढ़कर हंसी छूट पड़ती है। क्या करें बचपन होता ही है नादान सा--मासूम सा --भोला -भाला।

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  2. बचपन हर गम से बेगाना होता है

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