॥12॥ ताश के पत्ते
सुधा भार्गव
छुटपन में मुझे ताश खेलने -ताश खेलते हुए लोगों को देखने का बहुत शौक था। दिवाली पर तो मजे ही मजे थे।
मुझे दीवाली की वह रात अच्छी तरह याद है जब हमारे घर में ताश खेले जाने वाले थे।
तैयारी दिन में ही शुरू हो गई । खेलने की जगह बहुत सावधानी से चुनी गई ताकि बाबाजी को लोगों के आने -जाने की और ताश पीटने की कानों कान खबर न हो ।
नीचे के तल्ले में कमरे के अन्दर कमरा !वहाँ गुदगुदे गद्दों पर झकझक करती चादर । ४-५ मसनद लग गये ।उसी के पास नई ताश की तीन गड्डियाँ और करीब एक मीटर लम्बी माला रखी थी । उसमे तांबे के छेद वाले सिक्के पिरोये हुए थे ।यह
सिक्का एक पैसे
का था। उन दिनों इसी का चलन था ।तीन पत्ती ,ताश का खेल इन्हीं पैसों से खेला गया । बाद में हारने -जीतने वालों ने उसके बदले करेंसी देकर अपने भाग्य का निपटारा कर लिया I
पिता जी के कुछ मित्र अलीगढ़ से आये । वे वहीं के पढ़े थे । पिताजी उर्दू के खास ज्ञाता और उनके मित्र-- शायरी में उस्ताद ! हमारे घर में फ़ोन तो नहीं था पर उन्हें बुलाने के लिए खासतौर से एक कर्मचारी भेजा गया ।
संध्या होते ही नौकरों की छुट्टी कर दी गई । अम्मा -चाची ने देशी पान लगाकर चांदी के डिब्बे में पहले से ही कमरे में भेज दिये । सूखी मेवा ,गुंजिया -मठरी प्लेटों में सजी मेहमानों का इन्तजार कर रही थी ।कोने में रखा कांसे का पीकदान मुझे बाबा के पीकदान की याद दिला रहा था ।
ऐसे मौकों पर घर की कोई महिला पुरुषों के आगे नहीं आती थी ।
अब ऊपर -नीचे के चक्कर लगाये कौन ?रहते थे ऊपर ,खेल होने वाला था नीचे । तब याद किये गये रामू और रमिया -एक आवाज पर तुरंत हाजिर --मैं बनी रमिया ,मेरा छोटा भाई बना रामू ।
मेहमानों के आने से पहले हमारी ट्रेनिंग शुरू हुई -----
--कोई आये -हाथ जोड़कर नमस्ते करोगे । किसी के पत्ते दीख जायें तो बताओगे नहीं । सीढ़ियों पर धीरे -धीरे चढ़कर जाओगे । मुझे खासतौर से इशारा करके कहा गया ---ए मुन्नी लालाजी (बाबा ) जी से कुछ नहीं कहना । जानते थे बाबा से बिना कहे मुझे कोई बात नहीं पचती । इस समय तो ताऊजी की हां में हाँ मिलानी ही थी सो झट से गर्दन हिला दी ।
बिजली महारानी कभी भी आराम करने चली जाती थीं इसलिए शीशे की चिमनी वाला पीतल का बड़ा सा लैम्प साफ करवाकर रखवा दिया गया था I बड़ा सावधान लग रहा था कि अँधेरा होते ही सौ दीयों के बराबर जल उठूँगा I
रात के ग्यारह बजते -बजते अंकल आने लगे । काले अंकल मुझे अभी तक याद है । कोयले की तरह काले पर सिर के बाल रुई की तरह सफेद, चमकदार । धोती -कुरता भी पहनते एकदम सफेद झकझक। हाथ में लिए रहते छड़ी और चलते बड़ी शान से ।उस दिन भी जैसे ही उनके इत्रका झोंका आया समझ गई काले अंकल आ गये ------I
इस मित्र मंडली में डाक्टर अंकल सिख थे ,तहसीलदार अंकल क्रिश्चियन थे और शायर अंकल मुस्लिम थे I
वे मुझे साथ -साथ बैठे बहुत अच्छे लग रहे थे I
ठीक वैसे ही जैसे ये चार पत्ते
अलग -अलग फिर भी जुड़े हुए I
ताऊ जी की आवाज आई -बेटा ,गिलास पानी तो पिलाओ । मैं गिलास लेकर हाजिर !
कुछ अंकल सिगरेट पीते थे मगर शौचालय में जाकर --शिष्टता के दायरे में। खेल तो शुरू हो गया मगर तम्बाखू वाले पान बहुत तेजी से खाए जा रहे थे । ख़त्म होते ही पुकार मच गई -मुन्नी बेटा --पान तो लगा दे ।देख वह रखा पानदान
-ताऊ जी इसमें सुपारी तो है ही नहीं ।
--ओह अच्छे बच्चे ,ऊपर जाओ ,अपनी ताई से कटवाकर ले आओ I
--चिकनी सुपारी और बनारसी तम्बाखू भी मेरी गोदरेज (अलमारी ) से ले आना । चाबी देते हुए पिताजी बोले।
--मैं चाबी लेकर दूसरी मंजिल भागी मानो वह कुबेर के खजाने की चाबी हो ।
--'कितने मुश्किल से चाबी हाथ लगी है आज जरूर खखोड़बाजी करूँगी । 'सोच -सोचकर मैं झूम उठी ।
ऊपर के रैक में कपड़े उलट -पलट किये -
-अरे यह क्या ! कन्नौज का इत्र --शीशी खोलूं --न बाबा न ---एक बूंद कपड़ों पर टपक पड़ी तो चोरी पकड़ी जायेगी ।
दूसरा रैक देखा -करीने से सजी सफेद कमीजें और पतली किनारी वाली धोतियाँ व रुमाल । धोतियों की गड्डी उठाई तो नीचे रखी थी नोटों की गड्डी ।
--हे भगवान् !किसी ने मुझे छूता देख लिया तो चोर समझ बैठेगा।तम्बाखू का डिब्बा उठाकर धड़ाक से दरवाजा बंद किया । .एक छलांग में दो -दो सीढ़ियाँ पार करती हुई रमिया सेवा में फिर हाजिर हो गई।
खेल जोरों पर था----------
मुन्ना को तो नींद आई ,वह सोने चला गया। मेरी आँखों से तो नींद छू मंतर !जागने का एक ख़ास कारण भी था --जिसकी ट्रेल निकलती वह मुझे चवन्नी दे रहा था । मैं तो खुशी के समुद्र में डूबी जा रही थी । अंकल लोगों की सेवा करने से ,मेवा खाने को मिल रही थी । बीच -बीच में शेर -शायरी सुनने को मिलती । मेरी समझ से तो बाहर था मगर सब वाह -वाह करते तो मैं भी वाह -वाह कर देती।
सुबह के चार बजते -बजते खेलने वाले उखड़ने लगे। कुछ ने नाश्ता किया कुछ ने नहीं । न तो चाचा जी -पिताजी चाहते थे किसी को ताश खेलने की भनक पड़े और न ही खेलने वाले चाहते थे कि दरवाजे से निकलते हुए कोई उन्हें देख ले ।
मैं कुछ -कुछ समझ गई कि
खेलने वालों को खेल की सीमा और अपनी मान -मर्यादा का ध्यान है और उनके दिल में उमंग -उल्लास और स्नेह की बाती जल रही है जिसकी रोशनी में वे आज मिलकर आनंदित होना चाहते हैं I
दिवाली तो आज भी मनाते है पर वह सदभावों का दरिया कहाँ ! लगता है त्यौहार झूठी शान -शौकत से भरा कोरा व्यवसाय हो गया है।
आओ एक दीप जलाएं
* * * * *
शुभकामनाएं--
जवाब देंहटाएंरचो रँगोली लाभ-शुभ, जले दिवाली दीप |
माँ लक्ष्मी का आगमन, घर-आँगन रख लीप ||
घर-आँगन रख लीप, करो स्वागत तैयारी |
लेखक-कवि मजदूर, कृषक, नौकर, व्यापारी
नहीं खेलना ताश, नशे की छोडो टोली |
दो बच्चों का साथ, रचो मिल सभी रँगोली ||
दिवाली तो बीत गई पर यादें बाकी हैं. बहुत अच्छा लगा आपकी यादों से रू बी रू होना.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
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