नये वर्ष की नई अभिलाषा ----

बचपन के इन्द्र धनुषी रंगों में भीगे मासूम बच्चे भी इस ब्लॉग को पढ़ें - - - - - - - -

प्यारे बच्चो
एक दिन मैं भी तुम्हारी तरह छोटी थी I अब तो बहुत बड़ी हो गयी हूं I मगर छुटपन की यादें पीछा नहीं छोड़तीं I उन्हीं यादों को मैंने कहानी -किस्सों का रूप देने की कोशिश की है I इन्हें पढ़कर तुम्हारा मनोरंजन होगा और साथ में नई -नई बातें मालूम होंगी i
मुझसे तुम्हें एक वायदा करना पड़ेगा I पढ़ने के बाद एक लाइन लिख कर अपनी दीदी को अवश्य बताओगे कि तुमने कैसा अनुभव किया I इससे मुझे मतलब तुम्हारी दीदी को बहुत खुशी मिलेगी I जानते हो क्यों .......?उसमें तुम्हारे प्यार और भोलेपन की खुशबू होगी -- - - - - -I

सुधा भार्गव
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रविवार, 16 मार्च 2025

दोस्त मेरा रूठ गया





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     मित्रों ,अक्टूबर 2024 को फेसबुक पर मैंने एक पोस्ट डाली थी । हम सब साथ साथ एवं हिंदुस्तानी भाषा अकादमी, दिल्ली द्वारा *बचपन के पचपन में* कार्यक्रम हेतु चुनी गयी प्रविष्टियां:24सुधा भार्गव.....की रचना को सर्वश्रेष्ठ कहानी सम्मान मिला है।जिसका श्रेय मुझे नहीं मेरे दोस्त को जाता हैं।हमारी 70 साल से दोस्ती चली आ रही है।  ' 70 वर्षीय दोस्ती का सफरनामा' अभी जारी है।और दुआ कीजिये यह मेरी अंतिम सांस तक जारी रहे। 

मुझे बहुत दुआएं मिलीं पर कल मेरा यह दोस्त हमेशा के लिए मुझसे रूठकर चला गया है । अब तो बस यही दुआ चाहिए  वह जहाँ भी  रहे खुश रहे और मैं अकेली --उसकी यादों में डूबी रहूँ । 

70 वर्षीय दोस्ती का सफरनामा / सुधा भार्गव 

    सच्चा दोस्त मिलना बड़ा कठिन है अगर मिल भी गया तो उसको छोड़ने में खून के आंसू बहाने  पड़ते हैं। भूलना तो एकदम असंभव ! इसीलिए इस जीवन में मुझे भगवान ने दोस्ती का जो अद्भुत उपहार दिया है उसे मैंने पिछले 70 साल  से बड़ी सावधानी से दिल के लोकर में छिपाकर रखा है। जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है यह उपहार अनमोल हीरा होता जा रहा है। इसकी चमक दुगुनी हो गई है। इसके प्रति प्यार और लगाव ने एक अटूट बंधन का रूप ले लिया है।

      यह हीरा और कोई नहीं, मेरी  बचपन की सहेली  मंजू ही तो है।जैसा नाम वैसा ही रंग रूप!  नाजुक सी,भूरी- भूरी आंखों वाली ! हंसती  तो अनार दाने से दांत  चमचमा उठते।  मेरी आंखों में तो वही रूप उसका समाया हुआ है।जब मैं  पहली बार उससे मिली थी। 

     उसका नाम लेते ही मेरा बचपन आलती -पालती मारकर मेरे सामने आन बैठा है। हम बच्चे डिजिटल दुनिया के बच्चे नहीं थे, बहुत ही भोले और मासूम थे।  न ही प्रौढ़ बच्चे थे और न ही वृद्ध किशोर।बाल्यावस्था -किशोरावस्था  के बीच केवल एक सुनहरा महीन सा धागा खींचा हुआ था। जो स्वस्थ  वातावरण और मां-बाप के स्नेह की छत्रछाया में मजबूत होता चला गया। हम रूढ़िवादी घेरे से काफी आजाद थे । हमारी निजी सोच थी। दोनों के ही परिवार  स्वतंत्र विचार के थे । लेकिन फिर भी  मर्यादा और अनुशासन की तलवार हमेशा हमारे सिर पर लटकती हुई अपने कर्तव्य की याद दिलाती रहती थी जिसके कारण शिष्टता और  सद व्यवहार चरित्र का आभूषण बन गए ।ऐसे वातावरण के हम महकते फूल थे और खुशहाल बचपन की दोस्ती  बिरलों को ही नसीब होती है।मैं उनमें से एक हूँ और मुझे अपनी दोस्ती पर गर्व है। 

    हम अनूप शहर की आर्य कन्या पाठशाला कक्षा 5 में पढ़ते थे।उस दिन  जमीन पर बिछी लंबी-लंबी दरीनुमा  पट्टियों पर बैठे हुए थे। मेरी उसकी  पट्टी आमने-सामने थी।  पहला दिन था ।मैंने अनुभव किया-- भूरी आँखों वाली  एक लड़की मुझे  कनखियों से देख रही है। जैसे ही आंखें लड़ी मैने शरमा कर निगाहें  नीची  कर लीं।  कभी मैं उसे देखती तो कभी वह मुझे देखती । ना जाने कितनी देर तक यह आंखमिचौनी का खेल चला।बहन जी क्या  पढ़ा रही है क्या नहीं  ---कुछ  पता नहीं! बस सिर  से खिसकता रहा।हम अपनी टीचर को  बहन जी कहा करते थे।छुट्टी होने के बाद हमने अपना बस्ता समेटा  और एक दूसरे का हाथ पकड़े  क्लास से निकल दोस्ती की राह पर चल पड़े।

    कुछ दिनों के बाद कक्षा में एक नई लड़की आई।टिफिन टाइम में मैं उसके पास जाकर खड़ी हो गई।मंजू कुछ दूरी पर ही खड़ी थी।बुरा सा मुंह बनाते बोली,

     "सुधा, यहां तो आ।"

    मैं तुरंत उसके पास गई।वह  बोली-"इससे बात करने की जरूरत नहीं! न जाने अपने को क्या समझती है। बड़ी नकचढ़ी है।"

   "तुझे कैसे मालूम!"

   "अरे यह हमारे घर के सामने  ही तो  रहती है। इसके पिताजी तहसीलदार हैं।"

    उसके बाद से मैं उससे कतराने लगी।असल में हम दोनों चाहते हो नहीं थे कि कोई हम दोनों  के बीच में आए।

     हम शाम को बाहर खेलने जरूर निकलते थे।  स्कूल से घर पहुंचते  तो शाम का इंतजार करते!सूरज ढलते ही पहुंच जाते एक दूसरे के घर। --हंसते-इठलाते। फिर शुरू हो जाते हमारे  रास्ते नापने। वह मुझे घर तक छोड़ने आती-- मैं उसे छोड़ने जाती!फिर तय होता --आधे रास्ते साथ चलेंगे फिर मुड़ जाएँगे अपने घरों की ओर। दोनों घरों के बीच मुश्किल से 5मिनट  का पैदल रास्ता था। 

  हमारे किस्से तो खत्म होने का नाम ही नहीं लेते  थे । कौतुहल वश  सब नया-नया ही लगता था।एक बार तो कानाफूसी  करते  कक्षा में पकड़े गए। बहन जी ने  लगा दिया मेरे तड़ाक से  चांटा।कान पड़कर खड़े रहने का हुकुम और सुना दिया।  चांटा मेरे लगा लेकिन मंजू बेचैन सी हो गई। छुट्टी के बाद बोली-" तूने मेरा नाम क्यों नहीं ले  दिया ।सजा से तो बच जाती ।बात तो मैं भी कर रही थी।" 

    हमारी दोस्ती के कारण मेरे पिताजी भी उसके पिताजी से मिलने लगे।मैं उनको अंकल कहती थी। वे मवेशी डॉक्टर थे।   करीब 3 साल बाद  सुना कि उनका   ट्रांसफर नैनीताल हो गया है। हम दोनों ने रो- रो कर घर भर दिया। जाने से पहले अंकल  मेरे पिताजी से बोले- "भाई साहब, ये दोनों एक दूसरे से बहुत प्यार करते हैं।उदास भी बहुत हैं । लेकिन मुझको तो जाना ही पड़ेगा। अच्छा होगा कि हम मिलते रहें  और बच्चों को मिलाते रहें।  दोनों ने 'हाँ" कहते हुए  हाथ मिलाये। उसे समय मैं और मंजू पास ही  खड़े थे। दोनों की  आंखों के प्याले पानी से भरे थे। 

    हमारे माता-पिता ने अपना वायदा पूरा किया। एक दूसरे को मिलाने का इंतजाम करते रहे।  हमने चिट्ठी लिखनी नहीं छोड़ीं। दूसरे शहर जाने से मंजू  का पता बदलता तो मुझे सूचना जरूर देती थी।  हम 15 दिन में एक बार तो चिट्ठी लिखते ही थे। अगर नहीं लिख पाते तो शिकायतों का पुलिंदा चल देता। 

    कक्षा 10 पास करने के बाद अंकल का ट्रांसफर बुलंदशहर हो गया।मेरे तो  धरती पर पैर पड़ते ही न थे। भार्गव फ़ार्मेसी में दवाइयाँ बनती थीं।   पिताजी उसी के संबंध में   बुलंदशहर जाया करते थे। मैं चहक उठी -  “इस बार मैं भी आपके साथ चलूँगी।”मौका मिलते ही पहुंच गई  मंजू के  घर। उसे कुत्तों से बहुत प्यार और मुझे महाचिढ़ ! बुलंदशहर उसके घर के बड़े से गेट पर दो टोमी  पहलवानों को भौंकता देख मेरी तो सिट्टी -पिट्टी गायब !लगा मेरी बोटी- बोटी नोचकर खा जाएँगे। मैं तो बिदक  पड़ी-"पहले इन्हें बँधवा तब मैं तेरे पास आऊंगी।और हाँ !इनमें से कोई भी हमारे कमरे में नहीं घुसेगा।" 

     जब हम मिलते तो एक कमरा हमारे लिए ही रिजर्व होता।  उसमें किसी को  आने-जाने की इजाजत नहीं थी। 2 साल के बाद मिले थे।  बातों का पहाड़ जमा हो गया था। पेट में खलबली मची हुई थी। जैसे ही डिनर खाया कमरे में घुसते ही मंजू ने  दरवाजा  बंद किया  पर मन का दरवाजा खुल गया।उस समय हमारी दुनिया बहुत छोटी और साफ सुथरी थी। माता - पिता, चाचा- ताऊ, भाई- बहन और दोस्तों तक ही सीमित थी। लेकिन ऊलजलूल- बेबकूफी की बातें खूब करते । वे ठीक हैं या गलत इसकी तो हमें समझ नहीं थी पर धैर्य से सुनते हुए एक दूसरे की हाँ में हाँ मिला देते।हँसते हुए उनका आनंद भी लेते।   आधी रात फुर्र से बीत जाती। फिर तो घोड़े बेचकर सोये तो सुबह 8 बजे ही नींद खुलती। 

   मंजू ने  बी .ए .बुलंदशहर  डी .ए .वी. कोलिज से किया और मैं टीका राम गर्ल्स कालेज  अलीगढ़ चली गई । हम बड़े हो रहे थे हमारी बातें भी बड़ी-बड़ी होने लगी थी। वे  चिट्ठियों में नहीं समाती थी। हम टेलीफोन करने लगे थे। मेरी वार्डन को भी  पता लग गया था । जब काफी देर बातें करते हो जाता तो बंगाली वार्डन चिल्लाती- भार्गव बंद कोरो।"अब तो मिलने पर हम किशोर अपने शहर के,अपने  कालिज के  किस्से चटकारे ले लेकर सुनते -सुनाते ---और एक दूसरी ही दुनिया में चले जाते जहां बस वह होती या मैं। 

    बी .ए. की परीक्षा देकर मंजू मेरठ अपने ताऊ जी के पास गई। इसके अलावा उसके पिताजी सेंट्रल डेरी फार्म अलीगढ़ में अफसर बनकर आने वाले थे।अपने चचेरे भाई के साथ मिलने मैं उससे मिलने वहीं पहुँच गई।  उसके ताऊजी के एक लड़की थी जो हमारी ही उम्र की थी । एक दिन वह हमारे पास आकर बैठ गई।  । मैं संकोच से भर उठी ।मंजू मुझे दूसरे कमरे में ले गई। बोली-"इसकी बात सुनने की बहुत बुरी आदत है यह जाकर  सबसे कह देगी।"

   उस समय स्कूल के दाखिले के समय 5+या 6+का उम्र का चक्कर न था। 18 वर्ष के होते- होते हमने  बी.ए.की डिग्री लेली थी। पर हम अपने भविष्य के बारे में थोड़ा सजग हो गए थे। आँखों में सपने भी तिरने लगे थे। गंभीरता का बाना पहनते बोली,"समझ नहीं आता सुधा,एम. ए.  कहाँ रहकर करूँ। ताऊ जी के पास रहकर करूं या मामा जी के यहां से--।" 

   "तुझे कौन अच्छे लगते हैं?"

    "ताई के पास रहूँगी तब तो बड़ा काम करना पड़ेगा।  मुझे तो काम करने की आदत नहीं !पिता जी के यहाँ तो तूने देखा न---2-2 अम्मा  की सहायता करने आती हैं। अपनी लड़की से तो  कहेंगी नहीं, सब मेरे  ही सिर आयेगा । फिर बता मैं पढ़ाई कैसे करूंगी!" 

   "तब अपने मामा जी के यहां रहकर कर ना ।"

  "तुझे पता नहीं! मेरे मामा  तो  बहुत बड़े आर्टिस्ट हैं।सबको आर्टिस्ट बना देना चाहते हैं। जब भी  मिलती हूं बोलते रहेंगे -यह चित्र बनाओ, वह चित्र बनाओ।  रंग भरना  तो सुधा मेरे लिए एक सर दर्द है।"

   हम आपस में दिल खोलते रहे।  जो दिमाग में आया वही बातें करने लगते चाहे वह किसी की भलाई हो चाहे बुराई हो।  ना हमें रिश्तो की अहमियत मालूम थी।न दुनियादारी! 

     हम दोनों के घरों में शादी के चर्चे होने लगे थे। बात तो कोई पचती नहीं थी। उससे मिलते ही  कह बैठी -"मंजू , मेरी शादी की बातें हो रही है।” 

    “हां ,मेरे पिताजी भी कुछ कह रहे थे।बहुत सतर्क होकर रहना है । ऐसा न हो कि किसी को भी गले बांध दें। मैंने तो सोच लिया है किसी टीचर से तो शादी करनी ही नहीं  है।"

   "तू ठीक कह रही है।  सारी होमवर्क की कॉपी घर में लाकर रख देगा और हमसे कहेगा  इनका करेक्शन करो।हम तो बेमौत मारे  गए।" 

    "मैंने तो निश्चय कर लिया है इंजीनियर से शादी करूंगी या किसी डॉक्टर से।"मंजू ने कहा ।  

    "मैं भी ऐसा ही करूंगी। और हाँ बिना देखे हम शादी नहीं करेंगे।वरना मेरे ताऊ जी जैसा हाल होगा।" 

    "उनको क्या हुआ?"

    "ताऊ जी तो सिविल इंजीनियर! लेकिन बिना देखे उन्होंने शादी कर ली!"

   "फिर क्या हुआ ?"

    "हुआ क्या! ताई तो अनपढ़ निकली !रोज झगड़ा होता!"

   "हे भगवान !"उसने अपना हाथ सिर पर दे मारा।"दूसरे ही पल हम ठहाका मार कर हँस पड़े।    

     अब जब भी कोई रिश्ता आता , सबसे पहले पूछा जाता - “पिताजी लड़का क्या करता है!” माता-पिता के साथ भगवान भी हमारी मर्जी समझ गया था। उसके खिलाफ जाने की उसकी हिम्मत न हुई । हम दोनों की शादी इंजीनियर से ही हुई। मेरी शादी उससे  1 साल पहले हो गई थी ।उसकी  शादी के रिश्ते की शुरुआत का किस्सा भी कम हैरान करने वाला नहीं!मैं ही नियति  के चक्र को देख विस्मित थी। कभी सोचा भी नहीं था कि भविष्य में हमारी मित्रता आत्मीयता से इतनी भरपूर हो उठेगी ।

  शादी के बाद मैं कोलकत्ता चली  गई।  मेरे मियां जी जय इंजीनियरिंग वर्क्स उषा फैक्ट्री में इंजीनियर  थे। एक दिन मंजू की मम्मी का पत्र  आया कि कोलकाता में एक इंजीनियर बाबू हैं।  उनसे  तुम मिलो । मेरा छोटा भाई बनारस से कोलकाता बंगाल केमिकल फैक्ट्री में ट्रेनिंग लेने के लिए आया था। उसे मैंने इंजीनियर बाबू  से मिलने के लिए भेजा और कहा- " भैया, उनको लंच या डिनर के लिए निमंत्रित  करके आना।" जैसे ही  भाई उनसे मिला-- दोनों एक दूसरे को देखते ही रह गए।  क्योंकि इंजीनियर बाबू मेरे भाई के सीनियर निकले।  भाई उनको पहचान गया था। जब भाई ने आने का कारण बताया तो वे एक मिनट को सकपका गए। वे भी चकित   हम भी चकित। मैं तो इंजीनियर बाबू से  मिलते ही खुशी से उछल पड़ी। तुरंत मंजू की मम्मी को फोन किया-" आंटी कुछ भी देखने- सुनने की बात नहीं! लड़का बहुत अच्छा है।" सबसे ज्यादा मैं यह सोच--सोचकर झूम  रही थी कि मैं और मंजू एक ही किस्मत लिखाकर आए हैं।दोनों को ही इंजीनियर मिल  गये।न जाने कितने ऐसे रोमांचक क्षण मेरी दोस्ती की राह पर बिछे मिलेंगे  ।अगर कहने बैठी तो पूरी एक किताब बन जाएगी। 

    शादी बाद मंजू कलकत्ते न आकर रांची चली गई। वहीं उसके पति की पोस्टिंग हो गई। जल्दी ही छोटा सा मुनमुन गोदी में लेकर मुझसे मिलने आई।  उसके बाद तो वह हैदराबाद गई तो वहीं की होकर रह गई । बहुत मिलने को मन तड़पता था पर बच्चों के पालने और पढ़ाई में दस साल निकल गए। अब तो चिट्ठी का ही आसरा था। लेकिन तकदीर ने ज़ोर मारा और मिस्टर भार्गव को कंपनी की   तरफ से 3 साल को  हैदराबाद आना पड़ा। दोस्ती का कुम्हलाया वृक्ष  फिर से  हरा -भरा हो गया। व्यस्तता के होते हुये भी हमारी दोस्ती की गाड़ी उमा नगर और  निजामुद्दीन के बीच दौड़  पड़ती। 

      हम और हमारे हालात काफी बदल गए थे।। अपनी- अपनी  गृहस्थी थी ।  लगातार बैठकर  फालतू की गप्प ठोंकने का समय नहीं । बातों के विषय भी बदल गए थे। घर बच्चे व  ससुराल की बातें साझा  करते। अब तो गंभीरता से सलाह मशवरा भी करते थे। मंजू तो मुझसे भी ज्यादा व्यस्त थी क्योंकि कॉलेज में प्रोफसर  थी न! कभी कभी मैं उसे चुपचाप  घरबार का  काम करते हुए देखती तो भी लगता -- मौन मुखर है। याद नहीं पड़ता कि कभी हमारा झगड़ा या मनमुटाव हुआ हो। होता भी कैसे!उसकी सारी बातें तो मुझे अच्छी लगती हैं। वह है ही ऐसी। 

     देखते ही देखते हमारे बच्चों की शादियाँ हो गईं। हम सासू -माँ हो गए।  दादी-नानी बने । अब तो पोते-पोतियों  की शादियां भी होने लगी हैं।  शादियों में  शरीक होकर एक दूसरे की ख़ुशियाँ बाँटी ।संयोग की बात कि मेरे-उसके बच्चों के बच्चे  बाहर स्टडी करके यू .एस .ए .में हैं। बाल हमारे चाँदी से चमक रहे हैं पर पदोन्नति  बराबर हो रही  है। मैं तो पड़दादी भी बन चुकी हूँ। मंजू इंतजार कर रही होगी । क्योंकि हमारी तकदीर की रेखाएँ तो समांन्तर चलती है।  

     अब तो वर्षों से मेरी  सहेली पूना रहती है और  मैं बैंगलोर ।  2014 में उसके वैवाहिक जीवन की 50वीं वर्षगाँठ के अवसर पर पूना  गई थी।  जब अपनों की खुशियाँ दिल के दरवाजे पर दस्तक देती हैं तो ऐसा सुख मिलता है जिसे व्यक्त करने के लिए शब्द ढूँढे से नहीं मिलते । उस दिन मैं ऐसी ही खुशियों की एक बारात में शामिल हुई  थी। 

    उम्र के इस पड़ाव पर जब हमने 80 सीढ़ियाँ पार कर ली  हैं एक दूसरे के पास जल्दी - जल्दी तो  नहीं जा पाते। लेकिन मीलों की दूरियाँ हमें कभी दूर न रख सकीं।   इस मामले में मोबाइल हमारे साथ कदम से कदम मिलाये रहता है।  कभी  व्हाट्सएप पर तो कभी वीडियो पर एक दूसरे को खुश देख बच्चों की  तरह उछल पड़ते हैं। बचपन लौट कर हमारे सामने गुनगुनाने लगता है।भूल जाते हैं हम दादी-- परदादी भी हैं।मुरझाया चेहरा देख या थकी आवाज सुन टीस सी होती है।दो हाथ दुआ को उठ जाते हैं ।  अनुभवों का पिटारा खोल एक दूसरे को हिम्मत बँधाते हैं। अब तक तो हमारी दोस्ती का रेशम सा  धागा कमजोर नहीं पड़ा है --अब  क्या पड़ेगा! 

      एक बात तो मैं जान गई हूँ -“हमारी दोस्ती दो दिलों के बीच का अद्भुत इंद्रधनुष है।जिसका सृजन  प्यार ,मासूमियत,अल्हड़पन ,दुख ,खुशी, रहस्य और सम्मान जैसे सात रंगों के सामंजस्य  से हुआ है।” इसलिए ईश्वर से विनती है कि हर जन्म में आगे -पीछे मंजू को ही मेरी दोस्ती के लिए भेज देना। 

समाप्त 

सुधा भार्गव 

जे ब्लॉक 703,स्प्रिंगफील्ड एपार्टमेंट,सरजापुरा रोड,बैंगलोर -560102 .।मोबाइल -9731552847