॥7॥ तमंचे का जादू
सुधा भार्गव
झबलू
नगर में छ्ब्बू और छबीली रहते थे । दोनों भाई-बहन बड़े शैतान थे। न जाने कब क्या
गुल खिला दें । जरा –जरा सी बात पर झगड़ पड़ते। पर तब भी दोनों में बड़ा प्यार था
। छब्बू के पास हरी, लाल,सफेद , धारियों वाला लकड़ी का एक लट्टू था जो
देखने में बड़ा सुंदर था।
छब्बू उसके चारों तरफ डोरी लपेटता। फिर डोरी को अपनी
उंगली में फँसाकर लट्टू को ज़ोर से जमीन पर फेंकता। बस शुरू हो जाता अपनी कीली पर गोल
गोल उसका घूमना ।
इतना ही नहीं लट्टू को
छब्बू एक कुशल कलाकार की तरह फुर्ती से अपनी हथेली पर रख लेता। वह फिर नाचता ही रहता---- नाचता ही रहता। छबीली को अपना भाई एक बाजीगर लगता। वह उसे एकटक निहारती । उसकी इच्छा होती कि वह भी उसकी
तरह लट्टू घुमाये पर छब्बू! छब्बू तो उसे
छूने ही नहीं देता। वह गिड़गिड़ाती –“भैया बस एक बार दे दे।‘’
ज़ोर से चिल्लाता छब्बू –‘नहीं--’ । छ्बीली
सहम जाती और रोने लगती। मजाल है भाई का दिल पसीज जाए।
छबीली
अपने पापा की लाड़ली शहजादी थी। कोमल- कोमल गालों पर पट-पट बहते आँसू उनसे न देखे गए। अपनी बेटी को खुश
करने के लिए वे दिल्ली से एक विचित्र सा लट्टू ले आए है। शायद उसका बार -बार का
रोना उनसे न सहा गया। बोले-“अब तुझे न घड़ी
-घड़ी रोने की जरूरत है और न अपने शैतान भाई से लट्टू मांगने की जरूरत ।चल तुझे
लट्टू देता हूँ । फिर मिलकर लट्टू
घुमायेंगे।’’
"हाँ प्यारे पप्पू ऐसा घुमाएंगे ---ऐसा घुमाएंगे कि भैया देखते ही रह जाएगा। उसे तो मैं छूने ही नहीं दूँगी।" एक पल
को छ्बीली की आँखें चमक उठीं।
पर जल्दी बुझ
सी गई। बोली-“लट्टू---!लट्टू तो मुझे घुमाना ही नहीं आता।’’
“मैं
तो जादू का लट्टू लाया हूँ। उसे तू खूब घुमाएगी---गोल—गोल घुमाएगी। उसके साथ तू भी
खुशी के मारे गोल-गोल घूमेगी। ’’ पापा ने मुसकाते हुए कहा।
“सच
में पापा !क्या मुझे लट्टू घुमाना आ जाएगा?”
“हाँ –हाँ
क्यों नहीं?कोशिश करने
से क्या नहीं हो सकता!” छ्बीली का चेहरा गुलाब सा खिल उठा। वह लट्टू देखने को लालायित हो
उठी।
पापा
ने अलमारी से एक तमंचा निकालकर उसके हाथों में रख दिया । छबीली तो धक्क से रह गई।
घबराहट में मुंह से बस निकला-‘तमंचा’। दूसरे ही पल तमंचा पापा की ओर बढ़ते बोली- “न
–न मैं नहीं लेती इसे । गलती से इसका बटन दब गया तो निकल पड़ेगी गोली।”
“घबरा ना !यह तमंचा जैसा लग रहा है पर इसका बटन दबाने से
एक लाल-नीली रोशनी फैलाता लट्टू निकलेगा
और जमीन पर बड़ी तेजी से घूमने लगेगा।ले चला लट्टू ।’’
अविश्वास
से पापा की ओर देखा । डरी-डरी सी बोली “-नहीं!नहीं --पहले आप तमंचा चलाकर दिखाओ।”
पापा के बटन
दबाते ही एक नीला लट्टू उछलकर जमीन पर आ
गया और अपनी आँखें मटका -मटका कर घरर—घरर घूमने लगा। छबीली आश्चर्य से भर उठी-“अरे
इसके लिए तो डोरी की भी जरूरत नहीं पड़ी। अरे इसके तो दो हाथ भी हैं।" कमर झुका कर वह उसके चारों तरफ आँखें घुमाती ,कहीं
यह करामाती लट्टू ठप्प तो नहीं हो गया पर वह तो घूमता ही रहा –घूमता ही रहा । थकने का नाम
नहीं। फिर तो छबीली का मन भी हरर- हरर करता झूमने लगा। उसे लगा मानो लट्टू कोई मीठा
गाना गा रहा है। लट्टू के रुकते ही उसे फुर्ती से उठा लिया-“आह मेरा प्यारा लटुआ!’’ मचल उठी “–पापा जल्दी दो मेरा लटुआ । अब
मैं घुमाऊंगी।’’ उतावलेपन से पापा के हाथ से तमंचा खींचने लगी।
“अरे
रुक ,पहले तमंचे में लट्टू तो फँसाने दे।’’
छबीली में इतना सब्र कहाँ! बेताबी से उसने खींच
ही लिया और पूरे ज़ोर से क्लिक करते बटन
दबाया। लट्टू पहले से भी ज्यादा उछल -उछलकर अपने करतब दिखाने लगा। मानो वह सर्कस का
जोकर हो। अब तो वह छ्बीली का दोस्त बन गया ।
शाम को
वह बड़ी शान से तमंचे वाला लट्टू लेकर घर से निकल पड़ी। वह अपने साथियों को उसे
दिखाकर अचरज में डाल देना चाहती थी।
रास्ते
में उसकी सहेली कम्मो मिल गई। उसे जल्दी जल्दी जाता देख पूछ बैठी- “अरे –रे –रे—छबीली कहाँ चली। और यह तेरे हाथ में क्या है—तमंचा –बाप
रे किसी को मारने का इरादा है क्या ?
“नहीं
री कम्मो! यह तमंचा जरूर है पर जादू का है।’’
“जादू का
--। कम्मो अचरज से अपनी बड़ी -बड़ी पलकें झपकाने लगी।
“तो
मुझे दिखा न इसका जादू।’’
“इसकी
एक और खासियत है। तमंचे के ऊपर जो लट्टू बैठा है उसके बिना तमंचा अपना जादू नहीं
दिखाता।’’
“ओफ
तो देरी किस बात की। कह न इससे दिखाये अपना जादू !’’
छबीली
ने खटाक से तमंचे का क्लिप दबाया, फटाक से रंगबिरंगा एक मोटा सा लट्टू जमीन पर कूद पड़ा। उसने अपने पतले से दोनों हाथ फैलाकर गोल -गोल चक्कर
लगाने शुरू कर दिये। कम्मों को तो वह बड़ा प्यारा सा नचइया लगा । उसके भी पाँव
थिरकने शुरू हो गए। कम्मों तो थक गई पर लट्टू तो नाचता ही रहा। लेकिन वह भी कब तक
नाचता—कुछ देर में वह भी जमीन पर लुढ़क पड़ा।
“बेचारा
बहुत थक गया। ला इसे मैं उठा दूँ ।’’ कम्मो को उस पर
बड़ी दया आई।
“न—न इसे
न छूना !मैं इसे किसी को भी न लेने दूँगी।’’
“अपने
भैया को भी नहीं!’’
“उसका
तो नाम भी न ले। वह अपना लट्टू मुझे नहीं छूने देता तो मैं क्यों उसे छूने दूँ।
उसने अपने को समझ क्या रखा है। अब तो मैं भी लट्टू चैंपियन से कम नहीं। चल कम्मों
चल --- मेरे साथ चल। अब दूसरों को इस तमंचे का जादू दिखाती हूँ।’’
दोनों
मुश्किल से चार कदम ही आगे गई होंगी कि
छ्बीली के पैर जमीन से चिपक कर रह गए। उसने जो देखा उस पर विश्वास ही न कर सकी।
छब्बू के पास भी उसके जैसा तमंचा लट्टू था और बड़ी शान से अपने दोस्त हल्लू-बल्लू के
सामने उसे नचा रहा था।
उसे बहुत
ज़ोर से गुस्सा आया और पैर पटकती अपने पापा के पास जा पहुंची-“आप भाई को लट्टू क्यों लाये? जब वह मुझे नहीं
देता तो आपने क्यों उसे दिया?”
“बिटिया ,मैं उसके लिए नहीं लाता तो वह रोता। तुझे अपना
प्यारा भैया रोते अच्छा लगता क्या?’’उन्होंने उसे समझाना
चाहा।
सच में
वह छब्बू को रोता एकदम नहीं देख सकती थी।वह उसे बहुत चाहती थी। उसे पापा की बात सोलह आने ठीक लगी। गुस्सा न
जाने कहाँ उड़न छू हो गया। जल्दी ही सब कुछ भूल -भालकर अपने भाई के पास चल
दी और उसके साथ लट्टू घूमाने में मगन हो गई। हल्लू,बल्लू,गेंदा,गुल्ली,जमुना,जानू उनके चारों
तरफ गोला बनाकर खड़े हो गए। दोनों ही के लट्टू हाथ हिला -हिलाकर जमीन पर अपने करतब दिखा रहे थे। भोले बच्चों को
लगा मानों लट्टू हाय-हेलो कर डिस्को डांस
कर रहे हैं। वे खूब हँसे –--ऐसे हँसे कि हँसते हँसते उनका पेट फूल गया। नटखट बच्चे उछलते हुए तालियाँ बजाकर गा उठे --
घूम रे घूम लट्टू राजा घूम
झूम-झूम लटुआ रानी झूम
रंग-बिरंगे ,छैल-छबीले
इनकी तो
मच गई धूम
एक पैर पर देखो रे भैया
वो तो नाचे झूम- - झूम
झम---झम---झूम--झूम
अपने दोस्तों को आनंद मग्न देख भाई -बहन के
चेहरे से खुशी टपकी पड़ती थी---इतनी खुशी जो डिजिटल गेम्स, कैजुअल गेम्स ,वीडियो गेम्स खेलने से भी नही मिलती
।
समाप्त
बचपन के गलियारे और यादों का सावन सच अपने बचपन मैं पहुँच गई अभिव्यक्ति बहुत अच्छे से की है
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