संस्मरण
॥ 6॥ बाबा का बटुआ
सुधा भार्गव
बालवाटिका ; जुलाई अंक में प्रकाशित 2019
बाबा
के पास कपड़े का सिला एक बटुआ था जो डोरी के खींचने से बंद होता था और डोरी
से ही खुलता था। उसे देखकर मुझे अलादीन चालीस चोर की कहानी याद आती।जैसे ही बाबा
डोरी खींचते ,मैं कहती-खुल जा सिम सिम । बाबा मुझे 10 पैसे
देते। भाई को भी इतने ही पैसे देते। पर
मैं एक बार उसकी हथेली पर रखे सिक्के को गौर से देख लेती –कहीं उसे मुझ से ज्यादा तो नहीं मिल
गया। बाबा के बटुए में ढेर से सिक्के बजते
रहते थे। जहां कुछ सिक्कों को मिलाकर एक रुपया बना , अखबार
के कागज में उसे लपेटकर लकड़ी की सन्दूकची में रख देते। दीवाली-दशहरा आने पर
अम्मा-पिताजी,चाचा चाची तथा अन्य बड़ों को 2-2 रुपए
देते।बच्चों को चवन्नी (25पैसे)ही मिलती। हमें जो मिलता उसी से संतुष्ट। मैं चाहती
भी नहीं थी बाबा से रुपया लूँ। जब वे सबको रुपए बांटते तो मेरे दिल में कुछ होने
लगता---बाबा का सारा पैसा खतम हो जाएगा। कोई मना भी नहीं करता—सब लपक लपक कर ले
लेते हैं।
मुझे
काजू खाने का बड़ा शौक था। सो मैं उछलती-
कूदती मुट्ठी में बाबा की चवन्नी को कैद किए पंसारी की दुकान पर जा पहुँचती।
लिफाफे भर काजू वह मेरे हाथ में थमा देता और मैं चिड़िया की तरह चुगते- चुगते घर
पहुँचती तब तक लिफाफा खाली हो जाता। पिता जी मेरी इस आदत को जानते थे,इस कारण पैसे देते ही नहीं थे। न पैसे होएंगे न बाजार जाऊँगी।असल में
बाजार और सड़क पर चलते -चलते मेरा खाना उन्हें बड़ा बुरा लगता था। इस मायने में मुझे
अपने बाबा ही अच्छे लगते थे। उनके सामने पिता जी का अनुशासन चिड़िया की तरह फुर्र
से खिड़की के बाहर उड़ जाता।
स्कूल
जाने से पहले बाबा के क्लीनिक से होते हुए जाती ताकि कुछ जेब खर्च मिल जाए और
पिताजी को कानों कान खबर न हो। वे रोज मुझे 10 पैसे ही देते थे पर उससे मेरा चेहरा गुलाब की तरह खिल
जाता।
उन
दिनों बर्फ वाली आइसक्रीम बड़ी- बड़ी थरमसों में लेकर बेचते थे या बर्फीली चुस्की के
ठेले होते थे। मैं दस पैसे में दो चुसकियाँ लेती । एक पर हरे रंग का शरबत डलवाती
दूसरे पर लाल रंग का शर्बत। आह! क्या
चूस -चूसकर उसका स्वाद लेती।
एक
दिन पकौड़ी खाने की मेरी इच्छा हुई। सरकारी अस्पताल के पास ठेलेवाला मूंग की दाल
में आलू के छोटे –छोटे टुकड़े डालकर करारी पकौड़ी बनाता था। खाते समय सरसों के तेल
की सोंधाहट नथुनों में भर जाती। चटनी तो बड़ी चटपटी लाजबाब थी। खाओ तो आँख में पानी
और सी—सी करते ही बनता पर खाये बिना भी नहीं रहा जाता था। पकौड़ी के लिए पैसे कहाँ
से जुटाएँ !समस्या आन खड़ी हुई।
अचानक
ध्यान में आया –बाबा का बटुआ!बड़ी हिम्मत करके बाबा के पास मैं अपने भाई के साथ गई
शायद पैसे मिल जाएँ । साथ में तीन साल का छोटू भी था,गज़ब का शैतान और महाफुरतीला। उसे अपने साथ ले जाने में घबराती थी। न जाने
कौन सा बखेड़ा पैदा कर दे। उस दिन तो वह साथ में ही था। अगर कहती-भैया माँ के पास
जाओ ,तब तो और अड़ जाता—ऊँह
अड़ियल टट्टू ।
बाबा
के पास पहुँचकर मैं बड़ी दीनता से बोली-“बाबा! पैसे--।”
“अरे
सुबह नहीं दिए!”
बाबा
को दुविधा में पड़ा देख झट से मैंने कह दिया - “नहीं बाबा!”
न
जाने क्या सोचकर बाबा ने अपनी थैली निकाली । उसे खोली। कुछ पैसे मेरी हथेली पर रख दिए। मुन्ना को वे दे भी नहीं
पाए कि छोटू चिल्लाया –पहले मुझे दो ---मुझे दो। उसने सोचा,उसका नंबर आने से पहले पैसे खतम ही न हो जाएँ। वह बाबा जी के हाथ से थैली
ही छीनकर भाग गया। मैं उसके पीछे -पीछे भागी। थैली उससे छीनकर बाबा के हाथ में रख दी—“बाबा इसे जल्दी
से अंदर रख दीजिए वरना छोटू ले लेगा।”
“अरे
उसे भी लेने दो—छोटू-छोटू।” उन्होंने आवाज लगाई।
वह
अपनी कारिस्तानी पर हँसता हुआ एक कुर्सी के पीछे से प्रकट हो गया और हथेली आगे बढ़ा
दी। दूसरे ही पल सफेद सिक्का उसपर चमकने
लगा । छोटू ने उसे कसकर हथेली में बंद कर लिया ,कहीं हम
उसे उड़ा न लें।
छोटू को तो गेंद लाने का लालच देकर घर में ही छोड़ दिया और मैं मुन्ना के
साथ बाजार की ओर भाग खड़ी हुई। मन में बात आई कि बाबा तो हमें पैसे देते हैं,अपने हिस्से की मिठाई देते हैं। हमें भी उनके लिए कुछ करना चाहिए। यह सोच
कर गरम गरम पकौड़ियाँ खरीदीं और आकर बाबा के पास बैठ गए। मैं चाहती थी, “पहले बाबा खाएं फिर हम।”
हमें
बैठा देख बाबा अचरज में पड़ गए। बोले-“बच्चे यहाँ कैसे?”
मैंने
धीरे से प्लेट उनकी तरफ बढ़ा दी –“बाबा,पकौड़ियाँ!”
“क्या
करूं इनका!”
“आप
खाओ।”
“मुझे
तो भूख नहीं।”
“तब
---हम भी नहीं खाएँगे।”
बाबा
के गंभीर चेहरे पर मुस्कान फैल गई। उन्होंने एक पकौड़ी उठाई—“बस ,अब तुम खाओ।”
हमारा
मन खुशी से नाच उठा---बाबा ने खा ली –बाबा ने खा ली। फिर तो बिना किसी देरी के
फटाफट सारी पकौड़ियाँ चट कर गए।
तो
ऐसा था मेरे प्यारे बाबा का बटुआ—एकदम अलादीन का चिराग।
समाप्त
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