नये वर्ष की नई अभिलाषा ----

बचपन के इन्द्र धनुषी रंगों में भीगे मासूम बच्चे भी इस ब्लॉग को पढ़ें - - - - - - - -

प्यारे बच्चो
एक दिन मैं भी तुम्हारी तरह छोटी थी I अब तो बहुत बड़ी हो गयी हूं I मगर छुटपन की यादें पीछा नहीं छोड़तीं I उन्हीं यादों को मैंने कहानी -किस्सों का रूप देने की कोशिश की है I इन्हें पढ़कर तुम्हारा मनोरंजन होगा और साथ में नई -नई बातें मालूम होंगी i
मुझसे तुम्हें एक वायदा करना पड़ेगा I पढ़ने के बाद एक लाइन लिख कर अपनी दीदी को अवश्य बताओगे कि तुमने कैसा अनुभव किया I इससे मुझे मतलब तुम्हारी दीदी को बहुत खुशी मिलेगी I जानते हो क्यों .......?उसमें तुम्हारे प्यार और भोलेपन की खुशबू होगी -- - - - - -I

सुधा भार्गव
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मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

जब मैं छोटी थी


॥12॥ ताश के पत्ते 
सुधा भार्गव 



छुटपन में मुझे ताश खेलने -ताश खेलते हुए लोगों को देखने का बहुत शौक था। दिवाली पर तो मजे ही मजे थे।

मुझे दीवाली की वह रात अच्छी तरह याद है जब हमारे घर में ताश खेले जाने वाले थे।
तैयारी  दिन में ही शुरू हो गई । खेलने की जगह बहुत सावधानी से चुनी गई ताकि बाबाजी को लोगों के आने -जाने की और ताश पीटने की कानों कान खबर न हो ।

नीचे के तल्ले में कमरे के अन्दर कमरा !वहाँ  गुदगुदे गद्दों पर झकझक करती चादर  । ४-५ मसनद लग गये  ।उसी के पास नई ताश की तीन गड्डियाँ और करीब एक मीटर लम्बी माला रखी थी ।  उसमे तांबे के छेद वाले सिक्के पिरोये हुए थे  ।यह

सिक्का एक पैसे
का था। उन दिनों इसी का चलन  था ।तीन पत्ती ,ताश का खेल इन्हीं पैसों से खेला गया  ।  बाद में हारने -जीतने वालों ने  उसके बदले करेंसी देकर अपने भाग्य का निपटारा कर लिया I
 
पिता जी के कुछ मित्र अलीगढ़ से आये ।  वे वहीं के  पढ़े थे । पिताजी उर्दू के  खास ज्ञाता और उनके मित्र-- शायरी में उस्ताद ! हमारे घर में फ़ोन  तो नहीं था पर  उन्हें बुलाने के लिए खासतौर से एक कर्मचारी भेजा गया  । 
 
संध्या  होते ही नौकरों की छुट्टी कर दी गई ।  अम्मा -चाची ने देशी पान लगाकर चांदी  के डिब्बे में पहले से ही कमरे में भेज  दिये । सूखी  मेवा ,गुंजिया -मठरी प्लेटों में सजी मेहमानों का इन्तजार कर रही थी  ।कोने में रखा  कांसे का पीकदान मुझे  बाबा के पीकदान की याद दिला रहा  था  ।
 

ऐसे मौकों पर घर की कोई महिला पुरुषों के आगे नहीं आती थी  ।
अब ऊपर -नीचे के चक्कर लगाये कौन ?रहते थे ऊपर ,खेल होने वाला था नीचे । तब याद  किये गये  रामू और रमिया -एक आवाज पर तुरंत हाजिर --मैं बनी रमिया ,मेरा छोटा भाई बना रामू  ।

मेहमानों के आने से पहले हमारी ट्रेनिंग शुरू हुई -----
--कोई आये -हाथ जोड़कर नमस्ते करोगे ।  किसी के पत्ते दीख  जायें तो बताओगे नहीं ।  सीढ़ियों पर धीरे -धीरे चढ़कर जाओगे । मुझे  खासतौर से इशारा करके कहा गया ---ए मुन्नी लालाजी (बाबा ) जी से कुछ नहीं कहना । जानते थे बाबा से बिना कहे मुझे कोई बात नहीं पचती । इस समय तो ताऊजी की हां में हाँ मिलानी ही थी सो झट से गर्दन हिला दी ।

बिजली महारानी कभी भी आराम करने चली जाती थीं इसलिए शीशे की चिमनी वाला  पीतल का बड़ा  सा  लैम्प साफ करवाकर रखवा दिया गया था I बड़ा सावधान लग  रहा था कि अँधेरा होते ही सौ दीयों के बराबर जल  उठूँगा I


रात के ग्यारह बजते -बजते अंकल आने लगे । काले अंकल मुझे अभी तक याद है ।  कोयले की तरह काले पर सिर के बाल रुई की तरह सफेद, चमकदार ।  धोती -कुरता भी पहनते  एकदम सफेद झकझक।   हाथ में लिए रहते छड़ी  और चलते बड़ी शान से ।उस दिन भी जैसे ही  उनके इत्रका झोंका आया समझ गई काले अंकल आ गये ------I

इस मित्र मंडली में डाक्टर अंकल  सिख थे ,तहसीलदार अंकल क्रिश्चियन थे और शायर अंकल मुस्लिम   थे I
वे मुझे साथ -साथ बैठे बहुत अच्छे लग रहे थे I
 ठीक वैसे ही जैसे ये चार पत्ते
अलग -अलग फिर भी जुड़े हुए I


ताऊ जी की आवाज आई -बेटा ,गिलास पानी तो पिलाओ । मैं गिलास लेकर हाजिर !
कुछ अंकल सिगरेट पीते थे मगर शौचालय में जाकर --शिष्टता के दायरे में।  खेल तो शुरू हो गया मगर  तम्बाखू वाले पान बहुत तेजी से खाए जा रहे थे । ख़त्म होते  ही पुकार मच गई -मुन्नी बेटा --पान तो लगा दे ।देख वह रखा पानदान

-ताऊ जी इसमें सुपारी तो है  ही नहीं ।
--ओह अच्छे बच्चे ,ऊपर जाओ ,अपनी ताई से कटवाकर ले आओ I
--चिकनी सुपारी और बनारसी तम्बाखू भी मेरी गोदरेज (अलमारी ) से ले आना ।  चाबी देते हुए पिताजी बोले।
--मैं चाबी लेकर दूसरी मंजिल भागी मानो वह कुबेर के खजाने की चाबी हो ।
--'कितने मुश्किल से चाबी हाथ लगी है आज जरूर खखोड़बाजी करूँगी । 'सोच -सोचकर मैं झूम उठी ।

ऊपर के रैक में कपड़े उलट -पलट किये -

-अरे यह क्या ! कन्नौज का इत्र --शीशी खोलूं --न बाबा न ---एक बूंद कपड़ों पर टपक पड़ी तो चोरी पकड़ी जायेगी ।
दूसरा रैक देखा -करीने  से सजी सफेद कमीजें और पतली किनारी वाली धोतियाँ व  रुमाल । धोतियों की गड्डी उठाई तो नीचे रखी थी नोटों की गड्डी ।
--हे भगवान् !किसी ने मुझे छूता देख लिया तो चोर समझ बैठेगा।तम्बाखू का डिब्बा उठाकर धड़ाक से दरवाजा बंद किया । .एक छलांग में दो -दो सीढ़ियाँ पार करती हुई रमिया सेवा में  फिर हाजिर हो गई।
 खेल जोरों पर था----------
 


मुन्ना को तो नींद आई ,वह सोने चला गया। मेरी आँखों से तो नींद छू मंतर !जागने का एक ख़ास कारण भी था --जिसकी ट्रेल निकलती वह मुझे चवन्नी दे रहा था । मैं तो खुशी के समुद्र में डूबी जा रही थी । अंकल लोगों की सेवा करने से  ,मेवा खाने को मिल रही थी ।  बीच -बीच में शेर -शायरी सुनने को मिलती ।  मेरी समझ से तो बाहर था मगर सब वाह -वाह करते तो मैं भी वाह -वाह कर देती।

सुबह के चार बजते -बजते खेलने वाले उखड़ने  लगे। कुछ ने नाश्ता किया कुछ ने नहीं । न तो चाचा जी -पिताजी चाहते थे किसी को ताश खेलने की भनक पड़े और न ही खेलने वाले चाहते थे कि दरवाजे से निकलते हुए कोई उन्हें देख  ले ।

मैं कुछ -कुछ समझ  गई कि
खेलने वालों को खेल की सीमा और अपनी मान -मर्यादा का ध्यान है और उनके दिल में उमंग -उल्लास और स्नेह  की बाती जल रही  है जिसकी रोशनी में वे आज मिलकर आनंदित होना चाहते हैं  I

दिवाली तो आज भी मनाते  है पर वह  सदभावों का दरिया कहाँ ! लगता है त्यौहार झूठी शान -शौकत से भरा कोरा व्यवसाय हो गया है।
आओ एक दीप जलाएं

* * * * *

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

जब मैं छोटी थी


॥11॥खट्टी-मीठी इमली 
सुधा भार्गव


मैं जब छोटी थी मुझे इमली .बेर ,जामुन खाने का बड़ा शौक था। लेकिन उन्हें खाते ही खांसी हो जाती।गले से ऐसी आवाज निकालती मानो कुत्ता भौंक रहा हो | 

मुझे खांसता देख पिताजी को बहुत दुःख होता मानो उनकी दुखती रग को किसी ने  दबा दिया हो। वे  साँस के मरीज थे। हमेशा उनके दिमाग में खौफ की खिचड़ी पकती रहती ---कहीं यह रोग किसी बच्चे को विरासत में न दे जाऊँ।



सोमवार, 6 जून 2011

जब मैं छोटी थी


॥10॥ तरबूज खरबूज की बहार 
सुधा भार्गव


  छुटपन में मुझे तरबूजे -खरबूजे खाने  का बड़ा शौक था।





गरमी के दिनों  में अनूपशहर में  गंगा नदी बहुत दूर चली जाती  हैं और छोड़ जाती हैं अपने पीछे बड़ा सा रेतीला मैदान जहाँ खरबूजे -तरबूजे की खेती होने लगती  है।                                



                                                                          बाबा रोज गंगा नहाने जाते  थे। मैं और मेरा छोटा भाई भी साथ हो लेते।रास्ते में खेत  मिलते। उनमें छोटी - छोटी -हरी ककड़ियों को देखकर मैं जैसे ही  तोड़ने को हाथ बढ़ाती जोर का धमाका  होता ---मुन्नी ----!जैसे बम  फूटा हो --!बढ़े हाथ तुरंत पीछे हो जाते।

एक बार रेतीले मैदान में धोबी का लड़का कैलाशी मिल गया  ।उसे देखकर  मैं बहुत खुश हुई ।सोचा--अब तो यहाँ   खूब धमाचौकड़ी करेंगे। उसके बाप ने भी
खेती की थी। गंगा स्नान के बाद बाबाजी पूजा के लिए बैठने ही वाले थे कि वह आया और बोला ---
--बाबू जी इन्हें अपना खेत दिखा लाऊँ ।

--ले जाओ लेकिन जल्दी आना।
  तीर की तरह वहाँ से हम निकले कहीं बाबा अपना इरादा न बदल दें।
कैलाशी मेरी उम्र का दस -ग्यारह वर्ष का होगा । हम एक -दूसरे का हाथ पकड़ते -मटकते चल दिये ।

रेतीला खेत बहुत दूर था  । सूखी बालू में चलने की आदत भला कहाँ !




 ----एक पैर उठाते दूसरा रेत में घुस जाता । कभी  चप्पल अन्दर घुस  जाती, केवल  पैर ही बालू से निकल  पाता ।
कैलाशी ने मुन्ना को तो अपने कंधे पर बैठा लिया और  मुझसे बोला ----
-नंगे पैर चलो और चप्पलों को हाथ में ले लो।
चलने में थोड़ी सुविधा हुई
। अच्छा हुआ सूर्य महाराज का मिजाज ठंडा था सो बालू  गर्म नहीं हुई   वरना   तलुए ही झुलस जाते।

थोड़ी दूर चलनेपर मैं तो हांफने लगी।कैलाशी मुन्ना को लिए हिरन की तरह भाग रहा था।
मैंने आवाज दी ,ओ-- कैलाशी-- धीरे चल ,मैं रास्ता भूल जाऊँगी ।
वह एक क्षण रुकता ---फिर भागने लगता मानो उसके पैरों में पहिये लगे हों।

हमको आया देख धोबी काका(कैलाशी के पिताजी )बड़ा खुश हुआ।उसने अपने लाल ,पतले अंगोछे  से लकड़ी का तख़्त झाड़ा और प्रेम से बैठाया।

कैलाशी की बहन पारो ने  फुर्ती से ३-४ हरी -मुलायम
ककड़ियां तोड़ीं ।पानी से धोईं।
बोली --भैया ,खाओ --दीदी  तुम भी खाओ।
हम खाने में सकुचा रहे थे।वह ही ---ही करके हंस पड़ी।
--अरे तुम्हें खाना भी नहीं आता ---!देखो ऐसे खाते हैं -------।

उसने झट से एक ककड़ी दाँतों के बीच में दबाई।खट से आवाज हुई।मुँह में ककड़ी छप -छप चबाने लगी।
मैंने भी बकरी की तरह ककड़ी चबानी शुरू कर दी। ऐसा मजा आ रहा था कि अपनी सारी थकान भूल गई।
                              
      **            
-चलो ,तुम्हें खेत  की सैर कराता हूं।धोबी काका स्नेह से बोले। उन्होंने मेरे मुँह की बात छीन ली ।
बालू  में भी बड़ी मेहनत से क्यारियां बनाई गयी थीं। बीच -बीच में सरकंडे और बांस की खप्पचियां लगी थीं ताकि  बालू सरक न जाय।

एक क्यारी में नये -नये पत्तों के साथ मुलायम गद्दे पर  बेल फैली हुई थी।




 और ककड़ियाँ हिलमिलकर लेटी  थीं।दूसरी क्यारी में खरबूजे लुढ़क  रहे थे।मैंने  छोटा  सा खरबूजा तोड़ने को हाथ बढ़ाया।काका ने टोक दिया--
-अभी यह छोटा और कम  उम्र का है बड़े होने पर पकेगा
.मीठा भी हो जायेगा तब इसे तोड़ेंगे।
खरबूजा बच्चा शरारत से ठेंगा दिखाने लगा ।
  कैलाशी  एक खरबूजा् लेकर भागा -भागा आया।अपनी हथेलियों के बीच उसे जोर से दबाया  --दो टुकड़े हो गये।रसीले गूदे से भरा एक मेरी हथेली पर रखा दूसरा मुन्ना की हथेली पर।
बोला --खाओ।
-कैसे खाऊँ ?चाकू से पहले फांकें काटो।
-छोटे बाबू ,यहाँ चाकू कहाँ से आया।कटा हुआ आम छिलके के साथ कभी खाया है ---!
-हाँ !हाँ ---खाया है ।
-कैसे खाया --जरा बताओ।
-गूदा -गूदा खा लिया --छिलका-छिलका फ़ेंक दिया।
-तुम तो बहुत चतुर हो। बस ऐसे ही खरबूजा खा लो।

उसने खरबूजे के दो टुकड़ों के चार टुकड़े कर दि्ये। एक
टुकड़े  को  दोनों हाथों से पकड़ अपने  दांत उसमें  गड़ाये।देखते ही देखते गूदा चट  कर गया। छिलका  फ़ेंक दिया । हम भी उसकी नक़ल करने लगे। हरा--- .चीनी सा मीठा गूदा खरबूजे का---जल्दी ही पेट में समा गया।

खाते -बतियाते हम आगे बढ़ गये । दूर से मुझे काले सिर दिखाई दिये ।
-कैलाशी ,तुम्हारे खेत   में धूप में  भी  लोग सोते  रहते हैं क्या ?
-क्या कहा !--कहाँ  सोये हैं ---उसने लट्टू सी आँखें घुमायीं ।
उंगली उठाकर मैंने नाक की सीध में दूर इशारा किया।उसका तो हँसते -हँसते बुरा हाल हो गया।पेट पकड़ कर बैठ गया।  मैं हैरत में रह  गई।
क्यारी के  पास आये तो लगा कोई सोया -वोय़ा नहीं है बल्कि हरे -काले -पीले मटके औंधे  पड़े हैं।

-बाप रे !कितने बड़े चिकने -मोटे घड़े हैं ये जमीन पर क्यों रखे हैं ---फूट गये तो ---मुन्ना भाई  चकित हो उठा…।
-ये मटके नहीं हैं बाबू!ये तो तरबूज हैं।इसे  खाते हैं।तुम तो हमें बहुत हँसाते हो--ह--ह--ह--ही--ही--।
-मैंने तो इसे कभी खाया ही नहीं।
-अभी काट कर खिलाता हूं।
काटा तो अन्दर से एकदम लाल ! तरबूज  भी हमारी बातों
पर खूब हंसा होगा ।तभी तो उसका गोरा -गोरा मुँह  हँसते -हँसते लाल हो गया है--कैलाशी बोला ।
उसमें बहुत कम काले बीज थे।स्वादवाला और मीठा -मीठा तरबूज  कैलाशी के  छोटे   भाई की तरह


हम  गपागप खा  गये ।

हम सब बुरी तरह थक गये थे।बाबा के पास हमें पहुँचाने के लिए धोबी काका साथ आया।उसके सिर पर एक टोकरी थी।जिसमें रखे तरबूजों की खुशबू मेरी नाक में घुसी जा रही थी। पेट में तो तरबूज ठूसम-ठास भर लिया था पर मन कर रहा था इन्हें भी खा जाऊँ।

बाबा तो सफेद चंदन का टीका लगाये माला फेर रहे थे --ॐ ---ॐ ---ॐ ।
-डाँ .बाबू ,यह घर के लिए ------|

-तुम तो बहुत सारे तरबूजे  ले आये हो।
-बाबूजी मना मत करो । आप आये दिन मेरे बच्चों को अपने  बच्चे समझ  इलाज करते रहते हैं।क्या मैं इतना भी नहीं कर सकता।
बाबा उसके अपनेपन को देखकर चुप हो गये।

उस दिन तरबूजे -खरबूजों के घर की खूब सैर हुई।अब तो  न धोबी काका जैसा इंसान मिलता है न ही गंगा के उस  किनारे जाना होता है जहाँ मेरा जन्म हुआ ।लेकिन जब भी बाजार में खरबूज -तरबूज देखती हूँ धोबी काका और उनके स्नेह में भीगे तरबूज  -खरबूज खूब याद आते हैं जिनका स्वाद ही निराला था।


* * * * * * * * *  * * * * * * * *

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

जब मैं छोटी थी


॥ 9॥ गंगा का  आँचल
सुधा भार्गव

मैं  जब छोटी थी गंगा नदी के किनारे उछलकूद मचाने का बड़ा शौक था ।





गंगा नदी हमारे घर से थोड़ी दूर पर ही कलकल करती बहती ।  अनूपशहर तहसील  (जिला बुलंदशहर )के पटपरी  मोहल्ले में ऊंचाई पर तिमंजिला मकान था ।जिस पर लगा   भार्गव फार्मेसी का बोर्ड-- अपने में एक पहचान थी।







गंगा का मौसम बदलता रहता | कभी खट्टा कभी मीठा।
 








सर्दियों में जब गंगा  में  बाढ़ आती ,उसके किनारे बने पक्के घाटों की सीढ़ियाँ पानी में ड़ूब जातीं। एक बार तो घाट पर बने कमरों में भी पानी भर  गया।अंधेरी  रात में हमें अपनी छत से गुस्से में भरी लहरों की सांय -सांय की आवाज सुनते समय लग रहा था बस वे आईं ---आईं और हमारे  दरवाजे से टक रायीं । मैं  डर के मारे रातभर सो भी नहीं पाई।

गरमी में गंगा का पानी सूखने लगता्।  वे  दूर चली  जाती्।तब तो-- मजा ही मजा--। छुट्टी के दिन किनारे  जाकर बालू का मैं महल बनाती ।




जिसका महल ऊंचा बनता आप जानकार उसे लात मार भाग जाती |मैं आगे -आगे .महल बनाने वाला पीछे -पीछे । पकड़ायी में आजाती तो एक थप्पड़ लग ही जाता  । इसी बीच पिताजी की कड़क दार आवाज सुनाई देती --रुक जाओ --------।
भागते कदम जम जाते |


मुझे मछलियाँ  बहुत प्यारी लगतीं  ।मैं उन्हें घर में रखना चाहती थी ।

कई बार कम पानी में रंग -बिरंगी तैरती मछलियाँ  पकड़नी चाहीं  पर वे मेरे हाथ से निकल -निकल जातीं |
दुखी मन से एक दिन  मैंने पूछा --शीला ,मैं मछली कैसे पकडूं!
-चुटकी बजाते ही पकड़ सकती हो । मछली आटे की गोलियां बड़े शौक से खाती है
|


 गोलियां देखते ही वह  दौड़ी आयेगी  बस --तुम उसे  पकड़ लेना ।मेरी सहेली बोली।

मैंने रात में ही माँ के पीछे पड़कर आटे की गोलियां बनवा लीं । अगली शाम शीला के साथ खुशी से गंगा किनारे चल  दी --आज तो एक लाल ,एक नीली .,एक पीली मछली लेकर ही लौटूंगी । साथ ही मछलियों को बंद करने के लिए एक डिब्बा भी ले लिया।

-शीला --शीला मैं  आटे की गोलियां डालती हूँ | तू मछलियाँ पकड़।
-न बाबा ---मैं नहीं पकड़ सकती।
-क्यों ?डरती है क्या ----डरपोक  कहीं की ----।
तू डाल गोलियां ,मैं पकड़ती  हूँ ----।मैं झुंझला उठी।
-अरे जल्दी पकड़ देख --देख मछली खाकर भाग गई।शीला
घबराई



-अभी पकड़ती हूँ --छप---छप।
-एक भी नहीं पकड़ी ----सारी गोलियां ख़त्म हो गईं ।
-कैसे पकडूं --बहुत चा्लाक  हैं मछलियाँ।मेरे हाथ बढ़ाने  से पहले ही भाग जाती हैं।मैं रोती सी हो गई।
-मछली चालाक नहीं है ।वह तो सब समय पानी में रहती है । बिना पानी के तो मर जायेगी !
-मर जायेगी -----भगवान् के घर चली जायेगी -----।
-हाँ ------ ।

-नहीं --नहीं--मैं उसे मारना नहीं चाहती । चल  चलें ------।

मैं खाली हाथ घर लौट आई पर लगा हाथ भरे -भरे हैं और मछलियाँ पानी से मुँह निकाल -निकालकर कह रहीं हैं थैंक्यू -------थैंक्यू --|




 * * * * * * * *

सोमवार, 10 जनवरी 2011

मैं जब छोटी थी


॥ 8॥ गुड़िया की शादी 
सुधा भार्गव 




मैं जब छोटी थी धुन की बड़ी पक्की थी |मन में एक बार जो समाया वह पूरा होना ही चाहिए I

एक बार
मैं चचेरी बहन गौरी की शादी में कन्नौज गई  I लौटते समय एक ही बात रह -रहकर सूझ रही थी -मैं गुड़िया की शादी करूँगी  I

बिना देर किये अपनी सहेलियों को बुलाया और कहा -मैं तो गुड़िया की शादी करूँगी I मगर उसमें बहुत काम होता है   Iमेरी मदद करो  I गुड़िया तो मेरे पास है लेकिन गुड्डा चाहिए I
-गुड्डा मेरे पास है I मंजू चहकी I
-फिर तो बन गया काम  Iअब शादी कब की जाए- - - -I
-परीक्षा के बाद ----मई में  I गाजे -बाजे के साथ रचाएंगे
शादी I

निंटी,पिंटी ,चींटी गला फाड़ने लगीं ----
-मैं  तो ढोल बजाऊँगी i
-मैं गाना गाऊँगी I
-भांगड़ा तो मैं करूँगी I
-अरे चुप कान फोड़ दिये --कह दिया न ,पहले पढ़ना है I
मेरी डांट खाकर सब घर चली गईं I

परीक्षा ख़तम होते ही मेरी तो नींद उड़ गई I गुड़िया की शादी के कुछ ही दिन रह गये थे I
भागी -भागी बाबूराम बढ़ई के पास गयीI वे दवाइयों के लिए डिब्बे बनाते थे I
-
बढ़ई ताऊ ,५मई  को मेरी गुड़िया की  शादी है I लकड़ी की एक गाडी  बना दो I उस  पर दूल्हा बैठेगा  और बारात निकलेगी I
-हमें भी शामिल होना है उस बारात में I
-ना ताऊ - - -तुम्हारी मूछें देखकर मेरी गुड़िया डर जायेगी वैसे भी बारात बच्चों की है I

रात को अम्मा -पिताजी खाने कोबैठे I मैंने एलान किया -
५ मई को मेरी गुड़िया की शादी है  Iबहुत से बराती आयेंगे I उन्हें कुछ तो खिलाना होगा  Iसोच रही हूं-- मीठी गोलियां खाने को दे देंगे  iआप नंदू हलवाई को कहकर दवा  वाली गोल -गोल छोटी- बड़ी गोलियां बनवा दीजियेगा  I

--अम्मा ,गुड़िया को सुन्दर से कपड़े चाहिए I उसके लिए चमकीला -चमकीला लहंगा बनाना  गौरी दीदी जैसा I शादी में पहने वे बहत अच्छी लग रही थीं I

मेरी चाची को पूजा का बड़ा शौक था I वे बाल -गोपाल के लिए रंग -बिरंगी पोशाकें बनातीं  और पुरानी पोशाकें सावधानी से रखतीं  Iएकदिन दबे पाँव बिल्ली की तरह ताक -झांक करती उनके कमरे में घुस गई  Iसिंहासन के नीचे कुछ कपड़े दिखाई दियेI बस खींच लिये ३-४ जोड़ी कपड़े I हो गया कपड़ों का काम पूरा I

बेदा की अम्मा खाना बनाया करती थी  I उससे बड़े रौब से बोली -मिट्टी का छोटा सा एक चूल्हा बना दो  गुड़िया की शादी के लिए I उसपर पूरी -कचौरी और लड्डू बनाने है I

--मगर नमकीन लड्डू बना दूँ तो कैसा रहेगा !
--बेदा  की अम्मा - - -तुम मुझसे इतनी बड़ी  हो- - - फिर भी नहीं  मालूम - - -लड्डू मीठे ही होते हैं I मुझे तो तुमसे बहुत डर लगने लगा है I
-काहे का डर !हमसे - - -बिटिया - - -I
-यही कि  तुमने  क
चौरी मीठी बना दीऔर  हलुए में डाल दिया नमक - - हमारी तो बड़ी बदनामी हो जायेगी I मैंने परेशान होकर अपना माथा थाम लिया i

-बिटिया चिंता न करो ,हम सब ठीक करेंगे I
मैंने सिर उठाया और उंगली तान
ते बोली --
--देखो बेदा  की अम्मा - - -कोई भूल न करना I
-हम कान पकड़े है कोई भूल नाही करेंगे
I
मेरे जाते ही वह बुदबुदाई  --बाप रे !छोरी तो पटाखा है I

शादी का  दिन आ पहुँचा I मैं सुबह से ही मधुमक्खी की तरह कोई न कोई काम में लग जाती थी  I
मंजू भी आ पहुँची I साथ में था गुड्डा --धोती कुरता पहने ,सिर पर मुकुट, झलझल करती मोती की लड़ियों
से ढका चेहरा I

-अरे दूल्हा तो दिखाओ  I नीनाबहुत उतावली थी I
-ना बाबा - - - -उसे नजर लग जायेगी !और हाँ - - - दुल्हन का घूँघट  नीचा कर दो I उसको भी तो किसी चुड़ैल की नजर लग सकती है I मंजू बोली i


रंग  -बिरंगे कागजों से सजा लकड़ी  का रथ बनाकर ताऊ ले आए I उस  पर गुड्डा -गुड़िया बैठा दिये  Iअचानक मैं हड़बड़ा उठी - -  गुड़िया केसाथी  छुटकी-बड़की ,मोटू -पतलू ,कानू -लल्लू भी तो जायेंगे  इ उन्हें कहाँ बिठाऊँ ! ताऊ  - --अब मैं क्या करूँ - - - !
-मैं अभी लाया दूसरी गाड़ी ,परेशान न हो मुन्नी I
वे भागे -भागे  गये ,खटर -पटर की आवाज के साथ
लौट आये I एक मिनट को लगा भूचाल आ गया है  I  
उनकी  -इस खटपटिया  गाड़ी  में सारा गुड़िया नगर 
समा  गयाI

मुन्ना ढोलक को गले में लटकाकर जोर  से थप -ठप करने लगा I
मंजू का भाई मुस्कान उड़ेलता छोटे --छोटे - हाथों से कीर्तन करने के मजीरे आपस में भिड़ाता

उसका दोस्त मेले से कागज का बिगुल ले आया  I मुँह से बजाते ही पों -पों की आवाज होती I   

मेरी सखियाँ कोयल से गीत गाती आगे बढ़ रही थीं I
शैतान चुन्नू  गुड्डे -गुड़िया का रथ खींचते समय बार बार झटका दे देता I मेरी तो जान ही निकल जाती- - - कहीं गिर गये तो ----! 
खट पटिया गाडी से तो  जरूर कभी बौनी गुड़िया गिर जाती तो कभी लम्बू पर चतुर तुनतुनिया उन्हें फिर बैठा देता I

अद्भुत थी बारात I
मंजू रथ केपीछे से गेंदा -गुलाब की  बरसात करते हुए अपनी खुशी छिपा नहीं पा रही थी  I

घर के पास ही एक तिकोना मैदान था  I बारात उसके चक्कर लगाती  रही I जब वह थक गयी तो मेरे दरवाजे पर आकर रुक गई I

मैंने गुड्डा -गुड़िया को छोटे -छोटे फूलों की  मालाएं  पहनाई I  खुशी मेरे चेहरे से छलकी जाती थी  Iधीरे से उन्हें रथ से उतारकर  अन्दर ले गई I

गोल -गप्पे और चाट -पकौड़ी देख बराती ढोल -मजीरा छोड़ उन पर टूट पड़े  I कुछ मक्खी  की तरह बालूशाही ,इमारती और लड्डू  से चिपक गये I बाबा ने बारातियों को चूरन और टाफियां  भी दीं I

विदा का समय आ गया I बाराती खुश ,मैं उदास I

-मेरी गुड़िया पराये घर जा रही है , कैसे रहूँगी उसके बिना I
--अरे इसमें दुखी  होने की क्या बात है !तुम उसे चाहे जब ले आना I
-ओह मंजू ---तू समझती  नहीं !ऐसा कहना जरूरी  है Iगौरी दीदी जब ससुराल जा रही थीं तो मौसी ने ऐसा ही कहा था  I वे उसे गले लगाकर रोई भी बहुत थीं  I मेरे तो  आंसू ही  नहीं  निकल रहे----  मेरी गुड़िया भी नहीं रोती--- अव मैं क्या करूँ !

दादी -बाबा ,चाची -अम्मा ने हमारी बातें सुन लीं I हँसते -हँसते उनका तो पेट दुखने लगा और आँखों से आँसू निकल  आये I
मैंने समझा वे बहुत दुखी हैं ,उनका दुःख मुझसे देखा नहीं गया और दहाड़ मारकर रो पड़ी I

अचानक बारात से शोरगुल उठने  लगा - - - - -
नहीं जायेगा  ...नहीं जायेगा
ससुराल से दूल्हा नहीं जायेगा
ले आई ...ले आई
गुड़िया गुड्डे को ली आई I


मैं परेशान हो उठी I
-मुन्ना-- क्या हुआ !
-मुझे कुछ नहीं हुआ दूल्हे राजा को कुछ हो गया है |
वह तो अपने घर जाना ही नहीं  चाहता I
-क्यों ?
-खूब लड्डू -कचौरी खाने को जो मिले हैं ,अब तो ससुराल में बैठकर रोज माल -पुए उड़ायेगा I
मैं तो खिल -खिल उठी  | गुड्डे -गुड़िया को हाथों में झुलाती हुई भाग चली गुड़िया नगर
की ओर I उसे   वहाँ का राजा बना दिया I जिससे गुड्डा हमेशा खुश रहे और मेरी गुड़िया को लेकर भाग न जाये  Iभाग जाता तो- - -   मेरा क्या हाल होता - - - -आप ही जरा सोचो - - -I



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