नये वर्ष की नई अभिलाषा ----

बचपन के इन्द्र धनुषी रंगों में भीगे मासूम बच्चे भी इस ब्लॉग को पढ़ें - - - - - - - -

प्यारे बच्चो
एक दिन मैं भी तुम्हारी तरह छोटी थी I अब तो बहुत बड़ी हो गयी हूं I मगर छुटपन की यादें पीछा नहीं छोड़तीं I उन्हीं यादों को मैंने कहानी -किस्सों का रूप देने की कोशिश की है I इन्हें पढ़कर तुम्हारा मनोरंजन होगा और साथ में नई -नई बातें मालूम होंगी i
मुझसे तुम्हें एक वायदा करना पड़ेगा I पढ़ने के बाद एक लाइन लिख कर अपनी दीदी को अवश्य बताओगे कि तुमने कैसा अनुभव किया I इससे मुझे मतलब तुम्हारी दीदी को बहुत खुशी मिलेगी I जानते हो क्यों .......?उसमें तुम्हारे प्यार और भोलेपन की खुशबू होगी -- - - - - -I

सुधा भार्गव
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रविवार, 31 अक्तूबर 2010

जब मैं छोटी थी

 
॥7॥ गुड़िया घर 
सुधा भार्गव




मैं जब छोटी थी गुड़िया खेलने का बड़ा शौक था i
मेरे पास कोई एक गुड़िया नहीं थी बल्कि लकड़ी की अलमारी
में उनका  बड़ा सा घर बसा हुआ था I माँ के हाथ की बनी रंग-बिरंगी गुड़िया बहुत नखरेवाली  हमेशा चारपाई पर
बैठी रहती I                       

जयपुर से बुआ लकड़ी की गुड़िया लायीं I उसकी तो हमेशा गर्दन ही हिलती रहती I दूसरी बार  आयीं तो लकड़ी के बर्तन लायीं Iमुझे बड़ा बुरा लगा I

मैंने तो कह दिया --बुआ ,मेरी गुड़ियाँ तो स्टील के बर्तन में  खाती है और हाँ ,जमीन पर सोने से उन्हें ठण्ड लगती  है Iअगली बार आओ तो पलंग और मेज -कुर्सी  जरूर  ले आना I
बुआ के कारण गुड़िया घर  भरा -पूरा लगता था I

मैं मथुरा बड़े शौक से जाती  वहाँ मेरी मौसी रहती थींI मौसी सुन्दर -सुन्दर गुड़ियाँ ब नातीं I वहाँ पहुँचते  ही कहना शुरू कर देती --
-मेरी अच्छी मौसी! प्यारी सी एक गुड़िया बना दो I
-बिटिया ,जरा खाना बना लूँ फिर छोटी सी गुड़िया बना दूंगी I
-छोटी नहीं ---बड्डी सी - - अपने 
  दोनों हाथों को फैला देती I
-थोड़ी देर में फिर कहती --खाना बनाने में मौसी बहुत देर करती हो  I पहले मेरी गुड़िया बना दो |

माँ झुंझला पडतीं --जब देखो रट लगाये रहती है -गुड़िया बना दो ---गुड़िया बना दो I नहीं बनेगी तेरी गुड़िया I खाना बनाने के बाद तेरी मौसी खाना खायेगी I

पेट भरते ही मौसी पलंग पर लुढ़क जाती और भरने लगती खर्राटे मैं खड़ी इन्तजार करती --कब मौसी जगे ,कब कहूँ ;अब तो बना दो मेरी गुड़िया I

एक  दिन मौसी की नींद खुली I देखा -मैं  चुप से खड़ी हूँ I वे मेरे मन की बात जान गयीं I उठीं ,बक्से में से पुरानी धोती  निकाली I उसे जमीन पर फैलाया Iगुड़िया के हाथ की ड्राइंग करके उसकी दो परतें काटीं I

फुर्ती से चलते मौसी के हाथों ने शीघ्र ही सुई -धागा थामा,तीन तरफ से हाथ की सिलाई की I उसमें रुई भरकर बोली  --ले हो गया हाथ तैयार I
-एक ही हाथ बनेगा क्या !
-गुड़िया का दूसरा हाथ पैर सर सब बनेंगे तू देखती जा I

मैं सच में अपनी मौसी को निहार रही थी I
कभी कहती -ठंडा  पानी  लाऊँ I मिट्टी  के घड़े से पानी लाती I
कभी कहती -पंखा झल दूँ  Iछोटे हाथों से पंखा डुलाने  लगती I
मौसी की गुड़िया बन तो  गई पर - - -  - - - 
मेरी हंसी छूट पडी ---ही --ही --गंजी --इसके तो बाल ही नहीं  हैं I
-तू तो चाहती है एक मिनट में गुड़िया बन जाय I जरा सब्र करI इस सुई में धागा डाल I मुझे कम दिखाई देने लगा है I

मैंने धागा डाला I मौसी ने लम्बे -लम्बे बाल बनाये I हवा का झोंका आया, वे लहराने लगे I आँखों की जगह दो बटन टीप दिए I
-इसका तो मुंह ही नहीं है खायेगी कैसे !
-उफ !चुप हो जा !अब काले की जगह लाल धागा सुई में पिरो दे I
मौसी ने अनार के दानों से लाल ओंठ बना दिए I गुड़िया हंसने लगी I
मै बतियाने लगी--मेरी रानो,मौसी तुझे सितारों से चमकते कपडे पहनाएगी I
-मैं  तो थक गई ,कल पहनाऊंगी I
-मैं अभी  आपके पैर दाब देती हूँ I बोलो- कहाँ दर्द है !दो मिनट की ही तो  बात है बस अपनी जैसे साड़ी पहना दो I
माँ तो बरस पडी --हद कर दी तूने ! दीदी को अब आराम करने दे I
--डांट मत,बच्ची बहुत भोली है अभी पहना देती हूँ इसे  साड़ी I भद्दी भी लग रही है
|

मैं तो झूम -झूम उठी- आह! मेरी अच्छी मौसी !

  गुड़िया को जल्दी से गोदी में लिया और निकल गई बाहर घुमाने I लगा  जैसे वह मेरे शरीर का एक अंग हो I खुश होती तो उसे प्यार करती ,कोई मुझे डांटता तो जी भरकर उससे  शिकायत  करती I

                                                                                वह मुझे सच्ची दोस्त लगी इसलिए उसे मैंने गुड़िया घर में सजा कर रख दिया I वह मुझे टुकुर -टुकुर देखती  रहती पर समय की धूल ने हम दोनों के बीच पर्दा डाल दिया I
* * * * *

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

मैं जब छोटी थी

 

  ॥6॥पहले कहानी फिर बनूं रानी
सुधा भार्गव 




मैं  जब  छोटी  थी कहानी सुनने का  बड़ा  शौक  था I बिना  कहानी  सुने  खाना  ही  हजम  नहीं  होता  था I पहली  कक्षा  से  ही कृपा शंकर  मास्टर  जी  घर  पढ़ाने  आया  करते  I  उन्हें  मैं  मास्साब -मास्साब  कहा  करती I आते ही नारा  लगाते ---मुन्नी  रानी  करो  पढ़ाई |

झट  से  मेरा  जबाव  होता -पहले  कहानी  फिर  बनूँगी रानी I वे  कहानी  सुनाते  तभी  मेरे  बस्ते  का दरवाजा  खुलता I रोज  एक  कहानी  सोच कर  आते I कहानी  सुनाने  की  मेरी  जिद   पर  उन्होंने  कभी  आँखें  नीली  पीली  नहीं कीं I

एक  शनिवार को  मेरी  परीक्षा  होने  वाली  थी I शुक्रवार  को सीधे  पिताजी  के  सामने  जा  खड़े  हुए और  बोले
--आज  बिटिया  को आपके  आफिस  में पास  ही  पड़ी   मेज -कुर्सी  पर बैठकर पढ़ाना  चाहता  हूं I

मैं  उनके  पीछे  आज्ञाकारी  बालिका  की  तरह  सिर  झुकाए  खड़ी  थी I पिताश्री  समझ  गये -जरूर  मैंने  कोई  गुल  खिलाया  होगा I उन्होंने  हंसकर कुर्सी  की  ओर  बैठने  का इशारा किया I

मेरी  तो  बोलती  बंद- - ! मास्टर   जी  बस  बोले  जा रहे  थे ,समझाए  जा  रहे  थे I बीच -बीच  में  उपदेशों  की  झड़ी- - अच्छे  बच्चे  यह करते  हैं ,अच्छे  बच्चे  वह  करते  हैं I उधर   पिताजीकी तरफ  से  काली  घटाओं  के  आने  का  डर  I फँस  गयी - - -  बीच  में  मैं I जैसे  ही  मास्टर  जी उठे  मैं  भी  उठ  गई ,भागी -- - उनके  पीछे  दरवाजे  तक  गयी   और  धीरे  से  बोली -
-मास्साब , मेरी- -  कहानी !
- अभी  तो मैं  घूमने  जाऊंगा  कल  जरूर  सुना  देंगे I
-लेकिन  आज  की  कहानी !
मास्टर  जी  पसीज  गये I मुस्कान  बिखेरते  बोले --ठीक  है  ,शाम  को  आ जाना I

मैं  तो  फूल  की  तरह  खिल  गई  Iजल्दी  -जल्दी  बस्ता  समेटा  I दूध  पीकर बाहर  निकल  गयी I खेलने  में मन  कहाँ  रमने वाला !पलकें  तो  मास्टरजी  के  घर  के  रास्ते में  बिछी  हुई थीं I

उनके घर  पहुँची  तो  संकोच  में  लिपटे  पैरों  ने  आगे  बढ़ने  से  इंकार  कर  दिया I आगे  बढूँ या  लौट  जाऊँ - - -दुविधा  में  जान - -  -I वे  आँगन  में चारपाई  पर  बैठे  थे I उनके  सामने कांसे  की  चमकती  थाली  में घी  से  चुपड़ी  मक्के  की  गर्म -गर्म रोटी रखी  थी  जो  सरसों  की  सब्जी  के  साथ अपनी  सुगंध  फैला रही थी I

                     मुझे  देखते  ही  बड़े  स्नेह  से  बोले --लल्ली मेरे  पास
 आओ ,बैठो -- देख तो  बेला  कौन  आया  है !  मुनिया  के  लिए  भी  मक्के  की  रोटी  लाओ  I यह  भी हमारे   साथ  खायेगी I उन्होंने  अपनी  बेटी  से  कहा I                                                                                                      मैं  खाने  तो  बैठ  गई  मगर  अन्दर  से  धुकधुकी  शुरू --- -खाते  ही -खाते  अँधेरा  हो  गया  तो  मेरी कहानी  का  क्या  होगा ! अच्छी  बच्ची  की तरह  रात  आने  से  पहले  घर  भी  लौटना  था I इतने  में  मास्टर  जी  बोले  - -- खाओ -खाओ , वरना  कहानी  कैसे  सुनोगी I

मेरी  आँखों.  में  चमक  आगई रोटी  का   स्वाद  दुगुना  हो  गया  I                                                                    - -रोटी  तो  बहुत  मीठी  है |
मैं  बोली I
-चलो इसी रोटी की  मिठास  की  कहानी  सुनाता  हूं - - - I

एक  चिड़िया  थी I फुर्र  से  उड़ी I बुढ़िया 
के  आँगन  में  उतर  पड़ी I चार  मक्की  के  दाने  खाए ,चार  चोंच  में  भरे   फिर  मेरे घर  की  कोठरी  में  उतर  पड़ी I                  -फिर  क्या  हुआ !                                                  --बार -बार  मेरी  कोठरी  में  आती  और  दाने  रख  जाती I दानों  की पिसाई  हुई I
-कैसे  पिसाई  हुई  मास्साब  जी ?
-चक्की  से !
-फिर  क्या  हुआ !

 -मक्की  के  आटे  की  रोटियां  बनाईं |चिड़िया  आई , भर पेट  रोटी  खाई  I लम्बी  सी  उसने   डकार ली  I
मुझसे
बोली --तुम  भी  खाओ  दूसरों  को  भी  खिलाओ I
-  इसीलिये  मैं  भी  खा  रहा 
हूं ,तुम्हें  भी  खिला  रहा  हूं I

चिड़िया  के  मक्के  के  दाने  मेरे  दिमाग  में  सज  से  गयेI
दूसरे  दिन  खाना  बनाने  वाली महाराजिन  ताई से  बोली-
मैं  मक्के  की रोटी  खाऊंगी I                                 उसने  गाय  के घी  में  डूबी  छोटी -छोटी  रोटियां  बनाईं I
-ये  मास्साब   की  रोटी  की  तरह  मीठी  नहीं  हैं I मैं  खाते -खाते  बोली  |खाती जाती  और  बुरा  सा  मुहँ  भी  बना  देती I
-उनकी  रोटी  में  ऐसी  क्या  ख़ास  बात  है  हम  भी  तो  सुनें- - -  I
-उन के  घर  में जो  चिड़िया आई ,उसे  तुम  नहीं  जानतीं,   वह जो  दाना  लाई  उसे  पीसकर  मास्टरनी जी  ने  रोटी  बनाई I आह ! क्या  मीठी !
-इस  रोटी  का  आटा   और  मास्टरजी  की  रोटी  का  आटा   एक सा  ही  है I                                                  -नहीं ! नहीं ! उनका प्यारी  सी   चिड़िया  के  दाने  का मीठा -मीठा  आटा था
  I
मेरी  बात  पर  महाराजिन ताई  हँस  पड़ी I 
-मेरे  मास्टर  जी  क्या  झूठ  बोलेंगे I जाओ - - - मैं  तुमसे  नहीं  बोलती I  पैर  पटकती  हुई  रसोई  से  बाहर  चली  गई I
उनके  हाथ  की  बनी  मकई  की  रोटी  मैंने महीनों तक  नहीं  खाई I

बहुत  समय  बाद  जब विश्वास हुआ  कि मास्साब  के  घर  का  और  मेरे  घर  का मकई  आटा  समान  ही था I उन्होंने  तो  बस  मुझे  कहानी  सुनाई  थी तो  अपने  बुद्धूपन  पर खुद  ही  हँस  पड़ी I

तभी   मुझे कुछ  उड़ता  हुआ  नजर  आया I ओह !कहीं  मास्साब  की  चिड़िया मेरे  आँगन  में  तो  नहीं  उतरना  चाहती - - - पर  - - -नहीं  - - ऐसा  कुछ  नहीं  हुआ - - -बल्कि माँ -बाबा  के  आँगन  से मेरा  थोड़ा  बचपन उड़  गया I


* * * * * * * *

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

मैं जब छोटी थी


॥ 5॥ सब  से  भली  चवन्नी 
सुधा भार्गव






मैं  जब  छोटी  थी पढ़ती  कम  ,खेलती  ज्यादा  I पर   पिता  जी  का  अरमान  --   मैं  खूब  पढूँ  - -   पढ़ती  ही  जाऊँ  -- - -वह  भी  बिना ब्रेक  लिए I
दादी  की  असमय  मृत्यु  के कारण   उनकी  पढ़ाई  में बहुत अडचने   आईं I किसी  तरह   वे   बनारस  से  बी. फार्म  कर  पाए I  
   अब  मेरे  द्वारा अपनी  इच्छाएं  पूरी  करना  चाहते  थे  पर  मेरी  तो  जान  पर  बन  आई  I

सारे दिन  पढ़ाई - - -पढ़ाई  ,नये -नये  काम  सीखो  और  रिजल्ट  भी  अब्बल  I जरा भी  छुटके मुन्ना  भाई  से हुई  खटपट तो  सारा  दोष  मेरा  Iपट  से  आवाज आती - - - -मुन्नी ---किताब  लाओ  ---- जरा  देखूँ  --क्या  पढ़ा  है  I बड़े  शौक  से इंगलिश  पढ़ाते    मगर  महीने  में  एक  बार I जरा स्पेलिंग  बताने  में हिचकिचाई  बस --
गरजना -बरसना  शुरू   I    फिर  तो  जो  याद  होता  वह  भी  भूल  जाती I लगता   जीभ  तलुए  से  चिपक  गयी  है I

उस  रात  तो  गजब  हो  गया  I दिसंबर  का  महीना ,कड़ाके  की ठण्ड  Iकमरे  मे पक्के  कोयलों  की  अंगीठी  जल  रही  थी I हम  भाई -बहन  उस  के  पास बैठे  गर्मी  ले  रहे  थे  और  माँ  खाना  गर्म  कर  रही  थीं  I  पिताजी  को  पढ़ाने  की  धुन  ने  आन  दबोचा  I                                                         उनकी  कसौटी  पर  खरी  न उतरी  तो किताब  फाड़कर दहकते  कोयलों  के  हवाले  कर  दिया  Iधूँ-धूँ  करके  होली  जल  उठी I आंसुओं के  धुंधलके  में पिता  जी  पहचाने  ही  नहीं  जा  रहे  थे I कभी  वे  कंस  नजर  आते  तो  कभी  हिरण्यकश्यप  I
 वे  माँ से बोले --
इसके  बस की  पढ़ाई -लिखी  नहीं I कल  से  स्कूल  भेजना  बंद I नौकरों  की  छुट्टी  करो  और  इससे  करवाओ घर  का  सारा   काम  I

मैं  समझ  गयी  सिर  पर  आसमान  टूट पड़ा   है  पर  उसके  नीचे  पूरी  तरह  दबने  से  पहले    भागी  बाबा  के  कमरे  में I पिताजी  में  इतनी  हिम्मत  नहीं  थी  कि  बाबा  के  सामने  से  मुझे   खींच  कर  ले  जायें I तब  भी  घबराई सी   नजरें  दरवाजे  की  ओर  ही  लगी  थीं I                             जिसका  डर था  वही  हुआ  I चौखट  के  बाहर  खड़े -खड़े   ही  पिता श्री ने   इशारा  किया  --निकलकर   आ  I मैं  भला  लक्ष्मण  रेखा  क्यों  पार  करने  लगी I जल्दी  से  बाबा  के  पलंग  की  मसेरी उठाई और  धीरे  से  उनके  पास  लेट  गयी I बाबा  करवट  लेकर  लेटे  थे  चिड़िया  की  सी  नींद उनकी
आह्ट   पाते  ही  पूछने  लगे  ---                                                                      
-बेटी  क्या  बात  है ? तेरा  बाप  गुस्सा  क्यों  हो  रहा  है ?
-पता  नहीं बाबाजी ,बिना  बात  ही गुस्सा  हो  रहे  हैं I
-सोजा -- --सोजा  सुबह   तक  उसका  गुस्सा  ठंडा  हो  जायेगा I
बाबा जी  ने  मेरी  तरफ  करवट  बदली और  स्नेह से  मेरे  माथे  पर  हाथ  रखकर  थपकी  देने  लगे I  अपना   सुरक्षा  कवच  पा कर नन्हें  शिशु  की  तरह   
निंद्रा  की  गोदी  में  झूलने  लगी |

सबेरे -सबेरे उनके  खिले  चेहरे  को  देखकर कोई  कह  नहीं  सकता  था कि  कल  बालकाण्ड  के  साथ -साथ  लंका  कांड इन्होंने ही  किया  था I
सोच -सोचकर  दिमाग  फटा  जा  रहा  था  कि  स्कूल  कैसे  जाऊँ I मेरी  बेचैनी  पिता श्री  समझ  गये  बोले -
स्कूल  जाने  से  पहले  चवन्नी  (२५ पैसे  का  पुराना  सिक्का )
लेते  जाना चाट -पकौड़ी  के   लिए I
-स्कूल  कैसे  जाऊँ ?किताबें  तो  आपने  - - - - I
-१० बजे  जैसे ही  दुकान  खुलेगी  एकदम  नई  किताब  खरीदी  जायेगी और  तुम्हारे    पास  पहुँच  जायेगी |
चवन्नी  कि  नाम  पर  झूमने  सी  लगी  थी i नई  किताब  की  खुशबू  भी  अच्छी  लगी |

  पिता  जी  का  रौद्र  रूप दिमाग से    पल  में  उड़न-छू  हो  गया  और  दूसरी  लहर  उसमें  समा  गई--- - - - --
मेरे  पिताजी दुनिया  के  सबसे  अच्छे  पिता  हैं |

मन ही  मन  खिचड़ी पकाने   लगी - - आज तो  अपनी  सहेलियों  को  इस  चवन्नी  से बेर  -मूंगफली  खिलाऊंगी  I
  आह !मेरी  प्यारी  चवन्नी - - - I
उसे  चूमती  -पुचकारती  स्कूल  चल  दी  I
* * * * * 

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

मैं जब छोटी थी



॥4॥ चप्पल चोर 
सुधा  भार्गव

मैं  जब  छोटी  थी  अपने   साथी  को  सबक  सिखाने  में  माहिर  थी  I
बात  कक्षा  ६  की  है  I उन  दिनों  टाट  की पट्टियों  पर  बैठकर   पढ़ते  थे I वे दरी  की  तरह  जूट  से  रंग -बिरंगी  बुनी  होती  थीं और  जमीन  पर  बिछती  थीं I चप्पलें  हम  छात्राएं   टाट  के  नीचे  रखती थीं  ताकि  वे  खो  न  जायें I  उन  पर  हमारी  सवारी  रहती  I

    दिल्ली  वाले  चाचाजी  एक  बार  मेरे  लिए    बिल्ली  सी  चप्पलें  लाये I  उनकी  बटन  सी   भूरी  ऑंखें   चमकती  रहती  थीं  I मैं  बड़े  शौक  से  उन्हें  पहनकर  स्कूल  गई  ताकि  देखने  वाले देखते  ही  रह  जायें ,उनकी  त्तारीफ  में  बोले तो  मेरे  चेहरे  पर  चाँद  उग  आये  I मैंने  उन्हें  टाट  के  नीचे  रख  दिया  I
टिफिन   खाने  की  आज्ञा  कक्षा  में  नहीं  थी I घंटी  बजते  ही  खाने  का  डिब्बा  लेकर उछलती -कूदती   खेल  के  मैदान  में चली   Iकुछ  गिराया -कुछ  खाया ,खेला- - -   पसीना  बहाया   और  कक्षा  में  लौट  आई  जैसे  ही  टाट  पर  बैठी  - - -चप्पल  तो  नदारत I

मैं  न  घबराई  न  बहिन   जी से  शिकायत  की  लेकिन  मुड़कर  पीछे  बैठने   वाली  लड़की  को  अवश्य  घूरकर    देखा I उसका  नाम  दया  था I मुझसे  आँखें  मिलते  ही  उसने  मुँह दूसरी   ओर  कर  लिया जैसे  अजनबी  को  देखकर  मुड़  जाते  हैं I मैं  समझ  गयी  -चोर  की  दादी  में  तिनका  है  Iउससे  चप्पल  रखवाने की  कसम   खा  ली I  मैंने  बैठी  हुई  दया   के     टाट   के  नीचे   दो  उँगलियाँ  घुसाकर  उन्हें टटोलने  की  कोशिश   की पर  बात  नहीं  बनी I उससे  लड़ने  या  कुछ  कहने  की  हिम्मत  नहीं  हुई  पढ़ाई जो  चल  रही  थी I

छुट्टी  होने  पर  मैंने  उसका  पीछा  करने  की  कोशिश  की  पर  वह  तो  हिरन  की  तरह   भागे  जा  रही   थी I वह  मेरी  चप्पलें  पहने  हुई  थी I  देखकर  बहुत  गुस्सा  आया   मेरी  नई -नवेली  चप्पलें  दूसरे  के  पैर  में  और  मैं  - - - नंगे  पाँव !अच्छा  हुआ  किसी  ने  देखा  नहीं   वरना  अच्छा   -खासा  मजाक  बन  जाता , हजार  प्रश्नों  की  बौछार  अलग I चूहे -बिल्ली  की  दौड़  में  अन्य सहेलियाँ  बहुत  पीछे  छूट  गई  थीं I

अगले  दिन  मैंने  बड़े  दुखी  मन  से  पुरानी  चप्पलें पहनीं  और  स्कू ल  चल  दी I समझ  नहीं  पा  रही  थी  क्या  करूँ !  किसी  सहेली  से  सलाह  लेने  में  भी  डर  लगता I  वह  दया  से  उल्टी -सीधी  न  जड़  दे I मैं  उजागर  नहीं  करना  चाहती  थी  कि  उसने  मेरी  चप्पलें  ली हैं I   उसे  कोई  बुरा -भला  कहे  यह  भी  मुझे  सहन  नहीं  था I बड़े  धैर्य  से मैंने  स्कूल  में  प्रवेश  किया I

प्रार्थना  सभा  से जब  मैं  कक्षा  में  लौटी  तो  देखा  -दया  अपनी  जगह  आसन  जमाये  बैठी  है I पढ़ाई  शुरू हो  गई  पर  मेरा  मन  तो  कहीं  और  था  -बच्चू  मुझसे  बचकर  कहाँ  जायेगी  !टिफिन  टाइम  में  देख  लूंगी !खामोशी  से  बुदबुदाई I

टिफिन  का  समय  होते  ही  छात्राएं  भागीं  टिफिन  ले -लेकर  मानो  पिंजरे  में  कैद  चिड़ियों  को   आजादी  की  हवा  में  साँस  लेने  का  मौका  मिला  हो I मुझे  भी  एक मौका  मिला I जब  दया  को  बाहर  गये  दस  मिनट  हो  गये  मैंने  धीरे  से  उसके  बैठने  की  जगह  का  टाट  उठाया I  झटसे  
बिल्ली  वाली  चप्पलें  निकालीं  और  उसकी  जगह  पुरानी  चप्पलें  रख  दीं   Iअपनी  जगह  मैं  आलती  -पालती  मारकर  बैठ  गई I 
भूखी  ही  रही   मैं  उस  दिन I बाहर  जाने  से  डर  रही  थी  कहीं  फिर  से  कोई  चालाक  लोमड़ी  इनके  पीछे  न  पड़  जाये I बड़ी   मुश्किल  से  तो  चप्पलें  वापस  मिलीं I इंतजार  करने  लगी   कब  छुट्टी  हो  और  कब  भागम - भाग  हो I 

टन- - टन - - टन - - टनाटन !छुट्टी  हो गयी   I दिल  भी  बाग़ -बाग़  हो  गया  I
विश्व  विजेता  की  तरह गर्व  से टाट के   नीचे  से  प्यारी  चप्पलें  खीचीं ,पहनी  और  इस  बार - - -  मैं  भर  रही  थी  हिरन  सी  चौकड़ी I
 पीछे -पीछे मुँह  लटकाए  दया  धीमी  गति से चल रही  थी  I डगमगाती  सी  दुखी  सी I
मैं  अपनी  खुशी  ज्यादा  देर   छिपा  न  सकी I शाम  को  खेलते  समय कुछ  सहेलियों के  सामने   चिल्ला  उठी --मिल गई -मिल गई  I         
 सब  ने  एक  साथ  पूछा --क्या ?
-खोई  चप्पल मिल  गईं  - - -कहते  हुए खरगोश  की  तरह  फुदकने  लगी I

दूसरे  दिन  कुछ  जल्दी  ही  स्कूल  पहुंच  गई  और  जी  भरकर  अपनी  चतुरता  का  बखान  किया I जैसे  ही  दया कक्षा  में  घुसी  पूरी  कक्षा  चिल्ला  उठी  -चप्पल  चोर - - - -चप्पल - - - चो - - र  I
शोर  सुनकर  एक  बहिन  जी  कक्षा  में  आईं  I लड़कियां   एकदम  खामोश !सावधान  की  मुद्रा  में  खड़ी  हो  गईं I उनके  जाते  ही  फिर  शोर  होने   लगा  I मगर  इस  बार  दूसरी  तरह  का  शोर  था   I कोई  परीलोक  की  बातें  करता  तो  कोई   गुड़ियों  की  तो  कोई  कल्पना  जगत  में  खो  सा  गया I   मैं  और  दया  भी  फिर  से  हिलमिल  गये  दोस्ती  की  गंगा  में  पुन: बह  गये I नादान  दिल  भूल  गये  -किसने - क्या -किसके  साथ  किया ?

शनिवार, 24 जुलाई 2010

मैं जब छोटी थी


 ॥ 3॥  क्यों मारा ! 

सुधा  भार्गव







मैं  जब  छोटी  थी  बहुत  बातूनी  थी I सुख  हो  या  दुःख ,पढाई  हो  या  खेल  मेरा  मुँह  एक बार  खुला  तो  बस  खुल  गया I इस  आदत  से  स्कूल  में  कई  बार  डांट  पड़ी I   थप्पड़  भी  खाने  पड़े I

एक  बार  स्कूल  में  नई  अध्यापिका  जी  आईं Iउनका  नाम  था  कावे
री  भार्गव I वे  मुझे  बहुत  अच्छी  लगीं I मैं  हमेशा आगे  की पंक्ति  में  बैठना   चाहती ताकि  उन्हें  ज्यादा  से  ज्यादा देख देख  सकूँ I अकेली  नहीं  अपनी  प्यारी  सहेली  मंजीत  के  साथ ,जिससे  जरा  -जरा  सी  बात  पल पल  उसके  कानों  में  उड़ेल   सकूँ I

उस  दिन  वे  खुले  आकाश  के  नीचे  खेल  के  मैदान  में  कक्षा  ले  रही  थीं  I जनवरी की  ठण्ड  में  धूप  सुहानी   I    थी I छात्राएं नीचे  दरियों  पर  बैठी  थी  और  अध्यापिका  जी  कुर्सी  पर   I मैं    और  मंजीत  दोनों  खरगोश  की  तरह  फुदक कर  उन्हीं के  चरणों  में  बैठ  गईं  I वे  कोई  सवाल   समझा  रहीं  थीं  I आदतन  मैं  मंजीत  के  साथ  बातों  में  बह  गयी  I

हम अध्या
पिका जी  को  बहन  जी  कहा  करते  थे  सो  बहनजी  हमें  बार -बार  चुप  कराने   की  कोशिश  कर  रही  थीं  लेकिन  गप्पों  की  आंधी  में  उनकी  आवाज  कहाँ  सुनाई  देती I  अचानक तूफान  आया - - - -
-सुधा ,खड़ी  हो  जाओ
मैं  खड़ी  हो  गई 

कान  उमेठती हुई  बोलीं ---मैं  पढ़ा  रही  हूं  और  तुम  कर  रही  हो  बा
त  ! इतनी  हिम्मत !                                    दूसरे  हाथ  से  चटाक- - -बिजली  गिर  चुकी  थी  I एक  चाँटा मेरे  गाल  पर  जड़  दिया  I
मैं  तो  जड़  हो  गयी  I आज तक  खुलेआम  किसी  ने  चाँटा  नहीं  मारा I यह  क्या  हो  गया - - - -I
कुछ  चेहरे  खिल  उठे - - चल  बच्चू !आज  लगी  मार ! हर   बार  निकल  जाती  थी I
मंजीत आखें  नीचे  किये  अपनी  खैर  मना
  रही थी I

अंतिम  पीरियड  तक  मेरे  मुँह   से  बोल  न  फूटा  I मन  ही  मन  बहन  जी  के  खिलाफ  षड़यंत्र 
रच  रही  थी  I
घर  आते  ही  मैंने  चुप्पी  साध  ली I  न खाया , न पीया - माँ  का  मन  घायल  हो  गया I                                          मेरे  सिर  पर  हाथ  फेरते  हुए  बोलीं --मुन्नी  ,स्कूल  में  किसी  से  झगडा  हो  गया  क्या ?

-माँ  बहन  जी  ने मुझे  मारा , क्यों  मारा I

मुझे  चाँटा खाने  का  दुःख  नहीं  था I बालमन  इस  कारण  परेशानी  मान  रहा  था कि  मैं  भी 
भार्गव  और  बहन जी  भी  भार्गव I  भार्गव  होने  के  नाते  उन्हें  मुझसे  कोई  लगाब  नहीं जबकि   मैं  उनको  इतना  चाहती  हूं   I

शाम  को  पिता जी  के  आने  का  इन्तजार  भी  नहीं  किया  जा  पहुँची  नीचे  भार्गव फार्मेसी  में  I
मुँह  फुलाते  हुए  बोली -पिताजी  प्रिंसपल  के  नाम  आप  तुरंत  एक  चिट्ठी  लिख  दीजिये I भार्गव  बहन जी  ने  मुझे  क्यों  मारा !
मैं  बहुत  खिसिया  गई  थी  Iजोर -जोर से  मेरा  भोंपू  बजने  लगा I पिताजी  कुछ  आनाकानी  क
रने  लगे  I मुझे  बहुत  गुस्सा  आया I
-मैं  कल  से  स्कूल  नहीं  जाऊं
गी  I मेरे  गले  से  फटे  बांस  सा  सुर  निकलने  लगा  I
अब  घबराने  की  बारी पिता  जी की
  थी  I दो  दिन  तक  गुब्बारे  सा  मुँह  लेकर  घूमती  रही I

तीसरे  दिन  पिताजी  ने  कावेरी  बहन जी  को  परिवार  सहित घर पर  आने  का  निमंत्रण  दिया  I शाम  को  वे  अपने  पति  के  साथ  आईं  I साथ  में  उनके  दो प्या
रे-प्यारे  बच्चे  थे I फूल से  बच्चों  को  छूने  का  मेरा  मन  किया मगर  दूसरे  ही  पल  गर्दन  तन  गई--बहनजी  ने  मारा  मुझे  ,नहीं  जाऊंगी  इनके  पास  I

बहन  जी  मेरे  मन की  बात  शायद  ताड़   गईं  I थोड़ी  देर  में  वे  स्वयं  मेरे  पास  आईं  I दूधिया  मुस्कान  बिखेरती  हुई  बोलीं --सुधा  बोलोगी  नहीं  I

मेरा  सारा  गुस्सा बर्फ   की  तरह  पिघल  गया I  आकाश  की  तरह निर्मल  ह्रदय  लिए  उनके  बच्चों  के  साथ खेलने  में  लग  गई  I  
 
 

बुधवार, 14 जुलाई 2010

मैं जब छोटी थी


:

॥ 2॥ दूधचोर
सुधा भार्गव 





एक दिन मैंने ऐलान किया -कसेरू ,आज तो मैं चार पेड़े खाऊंगी I

-चार पेड़े !यहाँ खड़े -खड़े तो खा नहीं सकती I चलते रास्ते खाओगी या स्कूल में I यहाँ तो बहीखाते मेंलिख दूँगा -दूध I लेकिन किसी राहगीर ने तुम्हें देख लिया और
तुम्हारा हुआ चाचा -मामा तो गजब हो जायेगा I सीधे डा . साहब से जाकर कहेगा --मुनिया - - सड़क पर पेड़ा खाते -खाते जा रही थी I सड़क पर तो मीठा खाकर चलते भी नहीं ,भूत चिपट जाते हैं I अगर मिल गयी सहेली कोई ,तो और भी बुरा I वह कहेगी अपनी माँ से ,उसकी माँ कहेगी तुम्हारी माँ से फिर क्या होगा - - - सोच लो अच्छी तरह , आगे तुम्हारी मर्जी I कसेरू ने चिढ़ाने के लहजे में कहा I

मैं वाकई में चिढ़ गयी I तेजतर्रार आवाज में बोली --हाँ - -हाँ चलेगी मेरी मर्जी I लाओ चार पेड़े I

कसेरू ने पत्तों से बनी कटोरी में चार पेड़े रखे और मुझे दे दिये I
प्यार से बोला --लल्ली सभंल कर ले जाओ ,कहीं एक आध गिर जाय I यदि जमीन पर गिर जाय तो उठाना नहीं I मेरे पास आना ,दूसरा दे दूँगा I धूल लग जाने से खाने की चीज गंदी हो जाती है I

लापरवाही का दिखावा करती हुई मैंने हाँ !हाँ कहा और चल दी I वैसे मैं अन्दर ही अन्दर डर रही थी -किसी ने खाते देख लिया यो क्या होगा - - -! रास्ते में इधर उधर देखती कोई ताक तो नहीं रहा ,झट से आधा पेड़ा दांतों के बीच दबाती I मुँह बंद करके चबाती और गटक जाती i

मैं मुश्किल से दस कदम ही चल पाई थी कि हनुमान जी का मंदिर पड़ा I दरवाजा खुला और मू
र्ति बहुत बड़ी !
लगा -मुझे ही घूर रहे हैं I रामायण -कथा में सुन खा था हनुमानजी उड़ भी सकते हैं I
होश उड़ गये -अब तो जरूर मेरी चोरी पकड़ी जायेगी I ये अभी उड़कर पिताजी को बता देंगे -- मैंने चार पेड़े खाए हैं I
पीछे से भी आवाज आयी --इतनी दोपहरी में कहाँ गयी थी -दरोगा की तरह मास्टर जी बोले I
वे शाम को घर में पढ़ाने आते थे I मुँह में पेड़ा ठुंसा हुआ था I जबाव देने से अच्छा मैंने भाग जाना ठीक समझा I भागते -हांफते स्कूल पहुँची I टिफिन टाइम ख़तम हो चुका था ! एक पेड़ा और बचा था I जल्दी से उसे मुँह में रखा I,आधा सटका, आधा चबाया I हाथ से मुँह पोंछती कक्षा में घुसी I
--देर से आना क्यों हुआ ,खड़ी रहो पूरे पीरियड I अध्यापिका की कर्कश आवाज गूंजी I गनीमत थी एक पैर पर खड़े होने की आज्ञा नहीं मिली I
छुट्टी होते -होते मेरे पेट में गड़गड़ होने लगी मानो बादल गरज रहे हों I तेजी से घर की ओर कदम बढ़ाये I पहुँचने पर निढाल सी पलंग पर लेट गई I पेड़ों की भीड़ से पेट में मरोड़ भी होने लगे I
-जरूर इसने ऊट पटांग खाया है स्कूल में ,तभी पेट ख़राब हो गया I क्यों मुन्नी !क्या खाया ?सच --सच बोलो I
-मैंने तो बस दूध पीया I हाँ , दूध कुछ ज्यादा पी लिया था I
-दूध में जरूर कोई गड़ बड़ रही होगी I अभी बुलाता हूं कसेरू को i
- , , उसे बुलाइए I उसका कोई दोष नहीं , गलती तो मेरी है I मैंने ही आज पेड़े खा लिए थे I उसने तो मना किया था I
-आज से या बहुत दिनों से पेड़े खाए जा रहे हैं I
-एक महीने- - - से I झूठ बहुत देर तक छिप सका I
-कसेरू भी बच्ची के साथ बच्चा हो गया ! उसकी हिम्मत कैसे हुई मावे के पेड़े खिलाने की- बाबा आग बरसाने लगे I
उस गरीब पर डांट पड़ने के डर से मैं रो पड़ी | हिचकियाँ लेते हुए बोली --उस पर गुस्सा मत होइये , वह तो मुझे बहुत प्यार करता है i
-ठीक है - - ठीक है ! उससे कुछ नहीं कहूँगा लेकिन दूध पीना होगा रोज I
-रोज - - - !लगा जैसे मुझे सूली पर चढ़ा दिया हो I
बाबा को दया आगई I बोले -इतने कठोर मत बनो I बच्ची दिन दूध पीयेगी ,एक दिन पेड़ा खायेगी I क्यों मुनिया- - - ठीक कह रहा हूं I
मेरे चेहरे पर हलकी सी मुस्कान फैल गई ,वह भी बनावटी I मैं तो दूध पीना ही नहीं चाहती थी |
दो -तीन दिनों में मैं स्वस्थ हो गई I घर में रोज उपदेश दिये जाते -दूध पीओगी तो हड्डियाँ मजबूत होंगी , ताकत आयेगी ,आँखों की रोशनी बढ़ेगी I मैं मोनी बाबा बन जाती |
घर से स्कूल ,स्कूल से कसेरू हलवाई - - - -मेरी यात्रा शुरू हो गई I दूध भी पीना शुरू कर दिया लेकिन हफ्ते में केवल एक दिन और बाकी पॉँच दिन मोटे -मोटे मावे के सुनहरे पेड़े ,जिनकी सुगंध से ही मेरे मुँह में पानी भरा रहता I घर में निश्चित तो कुछ और ही हुआ था पर मैं भी क्या करती ! दूधचोर जो ठहरी I
समाप्त