नये वर्ष की नई अभिलाषा ----

बचपन के इन्द्र धनुषी रंगों में भीगे मासूम बच्चे भी इस ब्लॉग को पढ़ें - - - - - - - -

प्यारे बच्चो
एक दिन मैं भी तुम्हारी तरह छोटी थी I अब तो बहुत बड़ी हो गयी हूं I मगर छुटपन की यादें पीछा नहीं छोड़तीं I उन्हीं यादों को मैंने कहानी -किस्सों का रूप देने की कोशिश की है I इन्हें पढ़कर तुम्हारा मनोरंजन होगा और साथ में नई -नई बातें मालूम होंगी i
मुझसे तुम्हें एक वायदा करना पड़ेगा I पढ़ने के बाद एक लाइन लिख कर अपनी दीदी को अवश्य बताओगे कि तुमने कैसा अनुभव किया I इससे मुझे मतलब तुम्हारी दीदी को बहुत खुशी मिलेगी I जानते हो क्यों .......?उसमें तुम्हारे प्यार और भोलेपन की खुशबू होगी -- - - - - -I

सुधा भार्गव
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बुधवार, 18 अप्रैल 2012

जब मैं छोटी थी ----

॥14॥ मैं और मेरी किताबें
सुधा भार्गव 
बचपन से ही मुझे अपनी पढ़ी हुई  किताबों से बहुत मोह थाI एक कक्षा से दूसरी कक्षा में जाती तो पिता जी चाहते --किताबें किसी जरूरतमंद को दे दी जायें I
जैसे ही किताबों को देने की बात उठती मैं उनपर साँपिन की तरह कुंडली मार कर बैठ जाती और दूर -दूर तक निगाहें दौड़ाती --कोई इन्हें छूकर तो देखे I इसे मेरी नादानी कहो या मोह ,पिताजी तो मुझे देख हँस देते पर माँ ----
--कबाड़िया है कबाड़िया !दीमक चाट जायेंगी किताबें पर देगी नहीं किसी को I दहेज तैयार कर रही है दहेज़ !
उनकी बातें समझने की न मेरी उम्र थी न जरूरत I किताबों को बस जल्दी से अलमारी में सजा देती । इस मामले में इतनी डरी रहती थी कि उसमें एक छोटा सा ताला भी जड़ दिया I चाबी रखने की जगह बार -बार बदलती रहती कि कहीं वह किसी के हाथ न लग जाये और हो जायें मेरी किताबें चोरी ।
मैंने कक्षा 6 में कबीर के दोहे पढ़े ,बड़े अच्छे लगे ।

फिर मीरा और सूर में रूचि लेने लगीI तुलसीदास जी की चौपाईयां, दोहे ,छंद और सोरठा बड़ा परेशान करते थे I जायसी को पढ़ते समय तो दिमाग ही गायब हो जाता I तब भी इनके बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी चाहती I
अनूपशहर छोटी सी जगह --एक दो मुश्किल से किताबों की दुकानें I आठवीं कक्षा में पढ़ते समय कक्षा १० के स्तर की किताबें उठा लाती और हाई स्कूल में कक्षा १२ के स्तर की किताबें I बड़े चाव से भक्ति मार्ग के कवियों को पढ़ा करती I कोई भी कर्मचारी मेरठ ,अलीगढ़ या बुलंदशहर जाता तो ऊंची आवाज हो जाती - - पिता जी इनसे कहिये दुकानदार से किताबों का सूचीपत्र जरूर ले आयें I मेरी मन पसंद किताब को फिर वे डाक से मंगवाते I उन्होंने कभी मना नहीं किया I
धीरे -धीरे इस शौक के पंख लग गये।

रवीन्द्र ठाकुर का साहित्य , शरतचंद्र चटोपाध्याय के उपन्यास ,बंकिम चन्द्र ,मैथिलीशरण गुप्त का रचना संसार मेरी अलमारी में बसने लगा I
छोटे से कुंडे में छोटा सा ताला--- अलमारी का अच्छा खासा पहरेदार था ।
एक दिन अलमारी में   नीचे के रैक में अम्मा ने रंगीन् कागज में लिपटे कुछ उपहार रख दिये  I मुझे उनसे कोई डर न था इसलिए कभी उन पर ध्यान न दिया |
पता न था वे ही मेरे लिए एक दिन घातक सिद्ध होंगे ।

पहली अप्रैल को राजेश उत्साही जी के ब्लॉग गुल्लक पर निगाह पड़ी । सूखती किताबों में भीगता मन -पढ़कर मेरा सालों पुराना घाव टीस दे गया ।

वैसे तो काया पलट को एक पल ही बहुत है ,चार पाँच दिन तो बहुत होते हैं | कल्पना से परे जब कुछ घटित होता है तो ४४० वोल्ट का झटका लगता ही है |
मैं भी तो चार -पाँच दिनों को ही गई थी शादी के बाद ससुराल I लौटकर आई तो लग रहा था न जाने कितने दिन हो गये है मायका छोड़े I घूम -घूमकर देख रही थी कोना -कोना I अपने स्टडी रूम में भी गई। मालूम है किससे मिलने --अपनी किताबों से मिलने ।
कमरे का दरवाजा भड़ाक से खोला I अलमारी पर निगाह पड़ते ही बेहोश होते -होते बची I एक मिनट को तो सोचा किसी दूसरे कमरे में आगई हूँ I बाहर निकली फिर घुसी--- कमरा तो यही है फिर किताबें ---
कहाँ गईं ? रोम रोम चीत्कार कर उठा -- यहाँ तो एक भी नहीं हैं I बार -बार अलमारी पर निगाह डालती -- अरे ताला भी टूटा हुआ है ---------तब तो सारी किताबें---- हो न हो चोर ही ले गया है । आ गया होगा दीवार फांदकर --जरूर दो चोर होंगे --

एक ऊपर से फेंकता गया होगा, दूसरा छत से नीचे खड़ा होकर लपकता गया होगा । पागलों की तरह अलमारी की दीवार छू -छूकर देखती --कहीं इसमें तो नहीं समा गईं I अलमारी के पीछे झांककर देखा --कहीं उधर तो नहीं जा पड़ीं I जैसे -जैसे यह धारणा मजबूत होती गई कि किताबें अलमारी में नहीं हैं उतनी ही जोर से रोने की इच्छा होने लगी I
तिमंजिले से सबसे नीचे एक साँस में उतर गई --पिताजी --पिताजी मेरी किताबें कहाँ हैं ?ताला भी टूटा हुआ है --किताबें तो चोरी हो गईं -- मेरा गला भर्रा उठा |
-किताबें !किताबें तो लायब्रेरी को दान कर दीँ । लायब्रेरियन बहुत गरीब है उस बेचारे का भला हो गया ।
-बिना मुझसे पूछे --वे तो मेरी थीं
-शादी के बाद उनका क्या करती--- !
पिताजी की बात सुनकर सकते में आ गई और उन्हें घूरकर देखा -
-क्या ये मेरे पहले वाले ही पिता हैं
न मुझसे कुछ कहते बना न कुछ करते ही--- बहुत देर तक सोचती रही- चाबी पिताजी के हाथ कैसे लग गई ? दिमाग पर बहुत जोर डालने पर याद आया -- 
शादी के दो दिन पहले माँ ने अलमारी की चाबी मांगी थी ताकि उपहार के पैकिट निकाल सकें । उसके बाद मुझे चाबी लेने की याद नहीं रही। चाबी मेरे पास होती तो शायद ताला उनका रक्षक बना रहता - अब भी यह बात मेरे दिमाग में आती है ।
समय भी मेरी इस चोट पर मरहम न लगा सका। रह -रह कर मुझे बिछुड़ी किताबें याद आती हैं और दुखी कर जाती हैं। क्या करूँ ! मेरा इंतजार किसी ने  भी---- न किया ।