नये वर्ष की नई अभिलाषा ----

बचपन के इन्द्र धनुषी रंगों में भीगे मासूम बच्चे भी इस ब्लॉग को पढ़ें - - - - - - - -

प्यारे बच्चो
एक दिन मैं भी तुम्हारी तरह छोटी थी I अब तो बहुत बड़ी हो गयी हूं I मगर छुटपन की यादें पीछा नहीं छोड़तीं I उन्हीं यादों को मैंने कहानी -किस्सों का रूप देने की कोशिश की है I इन्हें पढ़कर तुम्हारा मनोरंजन होगा और साथ में नई -नई बातें मालूम होंगी i
मुझसे तुम्हें एक वायदा करना पड़ेगा I पढ़ने के बाद एक लाइन लिख कर अपनी दीदी को अवश्य बताओगे कि तुमने कैसा अनुभव किया I इससे मुझे मतलब तुम्हारी दीदी को बहुत खुशी मिलेगी I जानते हो क्यों .......?उसमें तुम्हारे प्यार और भोलेपन की खुशबू होगी -- - - - - -I

सुधा भार्गव
subharga@gmail.com
baalshilp.blogspot.com(बचपन के गलियारे
)
sudhashilp.blogspot.com( केवल लघुकथाएं )
baalkunj.blogspot.com(बच्चों की कहानियां)
http://yatharthta.blogspot.com/(फूल और काँटे)

मंगलवार, 15 जनवरी 2019

यादों का सावन


॥5॥ बाललीला 
सुधा भार्गव 

बचपन में मैं जोर  -जोर  से  गाना  गाती,मटक -मटककर  नक़ल  उतारा  करती -ऐसा   मेरे  बाबा  कहते  थे|
मैं जिस पाठशाला में पढ़ती वह दुमंजिली और पक्की थी। उसी के सामने बड़ा सा मैदान हमारे लिए भानुमती के पिटारे से कम न था। उसकी चार दीवारी के अंदर खेलकूद होते,टिफिन खाने के बाद दौड़ लगाते। सर्दियों के समय जूट की बनी पट्टियों पर बैठकर पढ़ते और सुबह-सुबह  प्रार्थना करते हे भगवान बुद्धि तो ,विद्या दो,हम सब बच्चे हैं नादान। पक्की खपरैल के दो शेड भी वहाँ  बने थे जिनमें लकड़ी के तख्त लगाकर हमारा मंच तैयार हो जाता।वही हमारा थियेटर था। खुले दरवाजों वाला थियेटर जिसमें हर हफ्ते कोई न कोई नाटक होता। उस नाटक कंपनी को हम बच्चे ही चलाते थे। ऐसी थी  हमारी  निराली  पाठशाला। अनूपशहर मतलब अनोखे शहर की अनोखी पाठशाला।
 
इस आर्य  कन्या  पाठशाला में हर  शनिवार  लड़कियां  कविता  पाठ करतीं और नाटक  में  भाग  लेती। इन  सबका अभ्यास आखिरी पीरियड में रोज होता।
एक  शनिवार को खेल के मैदान में लकड़ी के स्टेज पर  कृष्ण लीला  होने वाली थी,


Image result for bal krishna

जिसमें मुझे कृष्ण बनाने के लिए चुना गया।  पहली बार नाटक में भाग लेने जा रही थी इसलिए मैं खुशी के मारे गुब्बारे की तरह हवा में उड़ने लगी। वैसे तो मैं माँ के साथ पूजा के समय कम ही बैठती थी पर उस दिन मैं उनके पास जाकर बैठ गई। बालगोपाल की ओर टकटकी लगाए सोचने लगी -आह! इनका मुकुट कितना चमकीला है। मुरली भी सुंदर है। पायल तो बड़ी पतली घुंघरूवाली है। मैं भी मुकुट लगाऊँगी। मुरली बजाऊंगी । पायल पहनकर छमछम चलूँगी। आरती खतम भी न हुई कि मेरा राग शुरू हो गया-"माँ माँ ।"
"देख रही है पूजा कर रही हूँ। दो मिनट तुझसे चुप नहीं बैठा जाता।"
मैं मन मसोस कर रह गई।
कूछ देर बाद फिर बोल उठी –"माँ माँ मैं स्कूल में नाटक में कृष्ण बन रही हूँ।"
"तो ----।" माँ का रूखा सा जबाव सुनकर मेरा मुंह लटक गया और मरी सी आवाज में बोली-
"मुझे अपने बाल गोपाल की तरह सजा देना।"
"कब है नाटक ?"
"शनिवार को।"
" आज तो बुधवार ही है,क्यों अभी से तूफान मचा रही है!"
माँ की डांट ने मेरा मुंह बंद करा दिया और मैं गुस्से से भरी वहाँ से उठकर चली गई।
थोड़ी देर में ही भूल गई माँ ने मुझसे क्या कहा और मैंने उनसे क्या कहा। शनिवार को सुबह स्कूल
 जाते समय याद आया मुझे तो कृष्ण बनना है मेरी मुरली मेरा मुकुट! कुछ भी तो नहीं हैं। मैं 
सुबक पड़ी।
"सुबह सुबह रोधो क्यों रही है?"
"माँ ,मेरा समान --?"
"तेरा सामान या कृष्ण का सामान।"माँ हंस कर बोली । "इस बैग में पीली धोती और बांसुरी रख दी है।पायल पैर में पहना देती हूँ । उसे खोलना मत।फूल की माला और मुकुट पहनाकर तुम्हारी बहनजी सजा देंगी। खुश!"
मैं सच ही खुशी से पागल हो गई और छ्लांगें लगाते स्कूल पहुँच गई।
  

 टिफिन टाइम होते ही स्कूल में भगदौड़ सी मच गई। मेरे साथी  नाटक देखने के लिए आगे से आगे की जगह घेरकर बैठना चाहते थे।और मैं मैं तो बस कृष्ण बनने के सपने देख रही थी।   
 पीली धोती पहने, फूलों  के  गहनों  में  सजी सचमुच मैं अपने को कन्हैया समझ रही  थी |मुरली  से  आवाज  निकालती,पायल  छुनछुन करती  जब  मैं  मंच  पर  पहुँची ,सबकी    निगाहें  मेरी ओर  थीं  जो  प्रशंसा  के  मोती  लुटा  रही  थीं  | इतने  में  यशोदा  मैया  आई  |बोली- -"क्यों  रे  बलराम , तूने  दही  की  मटकी   क्यों  फोड़ी?"

Image result for matki krishna baal leela

कृष्ण  बनी  मैं  चिल्लाकर  बोली -"अरे  यह  तो  गलत  बोल  रही  है |अब  मैं   कैसे  बोलूँ ?"पास  खड़ी  अध्यापिका  ने मुँह  पर  अंगुली  रखकर मुझे चुप  रहने  का  इशारा  किया | दूसरी  अध्यापिका  ने परदे  के  पीछे  से धीरे  से  कहा- "अपने  वाक्य  बोलो |रुको मत |"

मुझ बालकृष्ण  ने  तीखे  स्वर  में  यशोदा  पर  प्रहार  किया- "मैया  तू  तो  मेरा  नाम  ही  भूल  गई | मैं 
 बलराम नहीं  कृष्ण  हूँ   पहले  मुझे  कृष्ण  कहो  तब  आगे  बात  करूंगा। "  "यशोदा  सिटपिटा  गई | बहनजी की  आँखों  से  चिंगारियां   निकल  रही  थीं मानो वह उसे  भस्म  कर  देगी |तभी  लोगों  को  सुनाई दिया-"लाल ,तू  मेरा  कृष्ण  ही  है पर क्या  करूं ! जब  मैं  आई   तू  मेरी  तरफ  पीठ  करके  खड़ा  था । पीछे  से  तू  और  बलराम  एक  से  ही  
तो  लगते  हो |"
प्यार  से  यशोदा  ने  कृष्ण  को  गले  लगा  लिया | मंच  का  पर्दा गिर  गया  |तालियों  की गूँज के साथ सब खिलखिला  उठे |देखने वाले समझ  गये  थे -बच्चे  भूल कर बैठे हैं  लेकिन  बालबुद्धि  ने  समय  के  अनुसार  जैसा  अभिनय  किया जैसा बोला बहुत अच्छा  किया ऐसा सब कह रहे थे।    
बड़ी बहनजी(प्रिंसपिल)  ने  भी   खुश  होकर  मुझ कृष्ण -यशोदा  की पीठ  थपथपाई।  |
असल में कृष्णलीला करने की बजाए हम बच्चों ने बाललीला कर दी थी।    

इस बाललीला के महकते फूल अब तक मेरे साथ है। 
   

  Image result for happy flowers



सोमवार, 14 जनवरी 2019

यादों का सावन


॥4॥ जादुई मुर्गी 
सुधा भार्गव 
     

वैसे तो पिता जी मुझे हमेशा टोकते रहते थे-यह करो-यह न  करो,ऐसे चलो-वैसे चलो। बीच बीच में डांट भी पिलाते जाते थे। पर शहर जाने पर जब वे जादू वाले खिलौने लाते तो लगता कि प्यार भी करते हैं।

एक बार वे दिल्ली गए और वहाँ से प्लास्टिक की ऐसी मुर्गी लाए जो अंडे देने लगी।
Image result for pixel free images plastic toy hens एक नहीं--- पाँच पाँच! अचरज से मेरी तो  आँखें गोल-गोल घूमने लगीं। सोच के पंख निकल आए- -हे भगवान अब तो अंडे फूंटेंगे  और फुदकते लगेंगे रुई से नन्हें बच्चे। चिंता में डुबकियाँ लेती बोली – “पिता जी--- पिता जी, ये रहेंगे कहाँ ?इनका तो जल्दी से घर बनवाना पड़ेगा। अभी तो आप अपना रूमाल दे दो । उससे इन्हें ढक दूँगी वरना सर्दी से इन्हें जुखाम हो जाएगा । अरे सोच क्या रहे हो जरा जल्दी करो न।
मेरी बात पर वे ठहाका मार कर हंस पड़े। बोले-ये अंडे तो मुर्गी के पेट में ही रहते हैं।
जब अंडे बाहर आ गए तो वापस पेट में कैसे जाएंगे?” मैं हैरत में थी।
देखो तो सही मैं अभी जादू से अंडों को पेट में भेज देता हूँ।
पिता जी ने मुर्गी को उल्टा करके धीरे से उसके दोनों पैरों को दबाया। 
अरे यह क्या –--इसका पेट तो अपने आप खुल गया। मैं चौंक पड़ी। 
पिता जी ने एक-एक करके पांचों अंडों को उसमें डाल दिया। फिर से उन्होंने  पैरों को दबाया तो पेट धीरे-धीरे बंद हो गया।
जादू हो गया। मुझे भी यह जादू सिखा दो।मैं मचल उठी।
इसमें है क्या? ऊपर से थोड़ा दबाओ धड़धड़ अंडे निकल पड़ेंगे।
मैंने वैसा ही किया पर अंडों को लेकर बड़ी सावधानी से हथेली पर रख लिया  कि फूट न जाएँ और इठलाती बोली –“अब मैं इनको पेट में नहीं जाने दूँगी। कुछ दिन बाद अंडे फुस से फूटेंगे। छोटे गुलाबी बच्चे  निकलेंगे ,वे भागेंगे ,मैं भी उनके पीछे भागूंगी ।पकड़ा-पकड़ी खेलेंगे। आह! कितना मजा आएगा। वे तो होंगे छोटे-छोटे और मैं होऊँगी बड़ी -बड़ी। जीत तो मेरी ही होगी क्यों पिताजी !मैं जीतूंगी न।उछल-उछलकर तालियाँ बजाने लगी।
पर बेटा ,मुर्गी तो नकली है और उसकी अंडे भी नकली है।उसके अंडों में से बच्चे  कभी नहीं निकलेंगे।
मैं रोनी सी हो गई। नहीं निकलेंगे--?” भर्राई आवाज में फिर से पूछा-नहीं निकलेंगे?
हाँ बेटा सच ही कह रहा हूँ। तू छोड़ इस मुर्गी को। काहे के चक्कर में पड़ गई। मैं तुझे सचमुच की मुर्गी मंगा दूंगा। तुझे मुर्गी बहुत अच्छी लगती है क्या ?
हाँ पिता जी।
दूसरे ही दिन उन्होंने मुर्गी के लिए लकड़ी का एक घर बनवाया जिसे छत पर रख दिया। उसमें मुर्गा- मुर्गी रहने लगे।रम्मू हमारे घर में काम करने वाला उनकी देखभाल करता। मुर्गीघर की सफाई करता।
उन्हें दाना- पानी देता। मौका मिलने पर मैं भी उसके पीछे -पीछे मुर्गीघर चल देती यह देखने के लिए कि वह मेरे मुर्गा -मुर्गी को भूखा तो नहीं रखता।

 कुछ दिनों के बाद छोटे- छोटे मुर्गी के बच्चे  लकड़ी का  दरवाजा खुलते ही बाहर की तरफ भागने 
लगे । मैं चिल्लाई-रम्मू-रम्मू --ये बच्चे कहाँ से आ गए?इन्हें पकड़।  
मैं भी उनके पीछे दौड़ पड़ी। मेरे तो एक भी हाथ नहीं लगा। भागते -भागते हाँफ और गई। रम्मू ने एक मिनट में ही चूजे को उठा अपनी हथेली पर बैठा लिया। शायद उसे मुझ पर तरस आ गया था। बोला -बीबी,ये मुर्गी के अंडों में से निकले हैं। 
अरे वाह !पिता जी ठीक ही बोले -यह सचमुच की मुर्गी है। ला मुझे दे दे। 


 Image result for pixel free images hen chicken on palm


 "न--न गिर गया तो इसे चोट लग जाएगी । अभी तो यह उड़ भी न सके।"
"इसे मैं छू लूँ?"
"हाँ--- हाँ !
मैंने  बड़े प्यार से उसके रुई जैसे कोमल पंखों को छोटी छोटी अंगुलियों से छुआ,धीरे धीरे सहलाया। 
अब तो मैं स्कूल से आते ही छत पर पहुँच जाती। कुकड़ूँ -कूँ,कुकड़ूँ -कूँ की आवाज निकालते हुये मुर्गीघर का दरवाजा धीरे से खोलती । उसमें झाँकती तो कभी मुझे मुर्गी माँ अपने बच्चों को चोंच से दाना  खिलाते मिलती तो कभी प्यार से उन्हें अपने से चिपकाए हुए मिलती।  

Image result for pixel free images hens

मुर्गी माँ के प्यार को देख मुझे खुशी भी मिलती और  अचरज भी होता  क्योंकि मैं तो  यही समझती थी कि मेरी माँ ही बस मुझे प्यार करती है। स्कूल पहुँचकर अपनी सहेलियों से आश्चर्य भरे मुर्गी घर के  बारे में एक एक बात न कह दूँ तब तक चैन न पड़ता। 

  इस तरह मेरा बचपन ज़ोर ज़ोर से खिलखिलाता –इतराता और मुझे चौंकाता । इन सबमें समाई  खुशी की गंध को मैंने अभी तक सँजोकर रखा है। काश! आज भी बच्चों का बचपन खुली हवा मेँ चौकड़ियाँ भरता नजर आता ! गगनचुंबी इमारतों की भीड़ में कंप्यूटर बने बच्चे न जाने कहाँ खो गए हैं!
समाप्त