॥13॥ पतंगबाजी
सुधा भार्गव
सुधा भार्गव
मैं जब छोटी थी आकाश में रंग बिरंगी ,झिलमिलाती पतंगों को देख कर मन करता--- पतंग उड़ाऊँ !पर कभी उड़ा नहीं सकीI जब भी डोर के सहारे पतंग को हवा में उड़ाने की कोशिश की ठक से वह जमीन पर गिर गई और फट गई I मैं दुःख में ड़ूब जाती ऐसा लगता मानो एक नाजुक सी चिड़िया ऊपर से आन गिरी हो और वह उठाने को कह रही हो I मैं धीरे से पतंग को उठाती .फटी जगह को गोंद से चिपकाने की कोशिश करती और कई दिनों तक उसे अलमारी में रखे रहती I
ठण्ड कम होते ही चाचाजी अक्सर छत पर पतंगों के साथ जम जाते I वे पतंग उड़ाते, हम भाई -बहन हुचका (it is made of light wood and on it white thread or saddi is reeled) )पकड़ते ,कभी कोई - कभी कोई Iनजर पतंग पर ही रहती थीI वे झटके देते हुए पतंग को ऊंचाई पर ले जाते फिर अपनी पतंग से दूसरे की पतंग के साथ पेच लड़ाते Iजो पतंग उड़ाने में चतुर होता या जिसका माँजा मजबूत होता वह दूसरे की पतंग काट कर रख देता हमारी तरह से और छतों पर भी पतंगें उड़ाई जाती थीं I बच्चे अपनी छ्त से चिल्लाते ---वह काटा --वह काटा I
मैं जोश में कहती बक्काटा--बक्काटा I
एक दिन चाचाजी अपनी पतंग पड़ोसी अंकल की पतंग में उलझाकर उसे काटने की कोशिश कर रहे थे I मैं दम साधे खडी थी ---हे भगवान् इस पेच बाजी में कहीं हमारी पतंग कट गई तो --I
चीनू हुचका (चरखी )पकडे हुआ था I कभी उससे कहते- मांजा ढीला छोडो..... कभी कहते-जल्दी डोरी लपेटो वर्ना उलझ जायेगी I जल्दी -जल्दी हाथ चल रहे थे I वे भी घबरा रहे थे I हार-जीत का सवाल था I
अचानक शोर मच गया --कट गई --कट गई I हमारी पतंग कट चुकी थी I छत से नीचे झांककर देखा --वह नीचे की ओर लुढ़कती जा रही है I
-यह तो मेरी पतंग है ,वापस करो I
-तो क्या हुआ !लूटी तो मैंने हैI लूटी पतंग को लौटने का सवाल ही नहीं उठता I
-दूसरे की पतंग लेने में शर्म नहीं आती !चाहिए तो बाजार से खरीदो I
-लूट में पाई पतंग से जो खुशी मिलती है वह बाजार से खरीदने में नहीं I
मैं दांत किटकिटाकर रह गई I
रात को सोते समय तक उदासी की चादर तनी रही -आज का दिन तो ख़राब निकला ,हमारी तो पतंग ही कट गई I
चीनू बहुत खिलंदड़ी था I वही पतंगबाजी की तैयारी कराता I मंगलू (नौकर )बड़ा बारीक कांच पीसता फिर उसे कपड़े से छानता I अरारोट (स्टार्च)की लेही बनाई जाती I उसमें कपड़ छन कांच मिलाया जाता Iसद्दी(white reel or thread which is used to fly kites ) पर फिर यह लेप लगाते ,तब कहीं जाकर सद्दी माँजा बनती और उसे हुचके पर लपेटा जाता I मैं खड़ी-खड़ी टुकुर -टुकुर देखा करती I पूरी कस रत थी कसरत I
एक बार मंगलू ने बहुत सारा कांच अखबार के एक पन्ने पर रखकर चीनू को दिया I वह बहुत खुश हुआ Iघर से बाहर चबूतरे पर जाकर अपने मित्रों से बोला --
--देखो --देखो ,मेरे पास कितना कांच है I अब मैं खूब सारा माँजा बनाऊंगा I
उसके एक दोस्त को शैतानी सूझी I नीचे से हाथ देकर कागज को ऊपर उछाल दिया I कांच का पाउडर चीनू की आँखों में गिर गया Iदर्द से बिलखता हुआ वह घर आयाI आँखें उसकी बंद थीं उसके सारे बालों में पाउडर भरा हुआ था I घर में हाहाकार मच गया I मैं तो रोने लगी I
हिम्मत रखने वाले पिता जी भी अन्दर ही अन्दर घबरा उठे I पूरी धार से उन्होंने नल खोला और बोले --
-नल के नीचे सिर झुकाकर खड़े हो जाओ I
सिर का कांच निकल जाने पर आँखों को धीरे -धीरे खुलवाकर पानी के छीटें दिये I भाई को शीशे का पानी भरा छोटा कप (eye cup ) पकड़ाया ताकि पानी के अन्दर ही आँख खोलने की कोशिश करे I आँखें थोड़ी -थोड़ी खुलींI सूजे हुए पपोटे ,लाल आँखें ,और बहते पानी को देखकर दिल रो पड़ा I
डाक्टर अंकल भी आये Iअपनी दो उँगलियाँ दिखाकर बोले --
-कितनी उँगलियाँ है ?
-दो- चीनू बोला I
-भगवान् का लाख -लाख शुक्र --आँखें बच गईं I दवा -दारू के साथ -साथ इसे धूप से बचाए रखना I कहकर अंकल चले गये I
सबकी साँस में साँस आई पर अब पिताजी के दहाड़ने की बारी थी--
--खबरदार ,अगर पतंग उड़ाई तो --न जाने कैसे-कैसे दोस्त बना रखे हैं I
चाचाजी घबरा उठे --अकेले --मैं कैसे पतंग उड़ाऊँगा !
--भाई साहब इतना गरम होने की जरूरत नहीं Iबच्चे तो शरारत करेंगे हीI हाँ माँजा बाजार से बना बनाया खरीदा जा सकताहैI पिताजी का पारा कुछ नीची आया I
बुत से लेटे चीनू के कानों में जैसे ही चचाजी के शब्द पड़े, तकलीफ में भी मुस्करा उठा I
कुछ दिनों के बाद ही हम चरखी -पतंगें हाथ में थामे एक नये उत्साह के साथ छ्त की ओर बढ़ चले Iमन में ठान लिया-- आज एक नहीं, दो नहीं ,चार -चार पतंगें काटेंगे --बक्काटा --बक्काटा का बोलबाला !
आज भी जब-जब पतंग देखती हूँ चाहे वह बच्चे के हाथ में थमी हो या दुकान में सजी हो .आकाश की सैर कर रही हो या पेड़ में अटकी हो मेरा ध्यान बरबस उसकी और खिंचा चला जाता है और पहुँच जाती हूँ उस छोटे से शहर में जहाँ तेज हवा में डोर से बंधी पतंग को लेकर इस प्रकार दौड़ती थी जैसे मैं ही उसे उड़ा रही होऊं I
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सुधा जी ! आप बच्चों के मनोभावो को जिस तरह समझ कर सहजता और रोचकता से बयाँ करती हैं वह अद्भुत है.
जवाब देंहटाएंजिनका वास्ता पतंगों से इतना गहरा रहा है वो बड़ी उम्र में भी पतंगें और माँझा लूटने के सपने देखते हैं। मैं इस बात का भुक्तभोगी हूँ। प्रेमचंद की 'बड़े भाईसाहब' ने पतंग को नई ऊँचाई दे रखी है। आपने पुन: पतंग, चरखी(आपको याद होगा अपने इलाके में इसे 'हुचका' कहते हैं) और माँझे में उलझा दिया। आज के सपने का भगवान ही मालिक है।
जवाब देंहटाएंबलराम जी
जवाब देंहटाएंमैंने यहाँ की पतंगबाजी में भी हुचका का समावेश कर दिया है । आंचलिक शब्दों का प्रयोग नितांत जरूरी है। याद दिलाने के लिए धन्यवाद ।
aapki yeh baal rachna pad kar apna bachpan yaad aa gayaa
जवाब देंहटाएंjab ham patang udaate vakt apne hathon ko maanjhe se katvaa baithte the bachpan hotaa hee hai in sab kaa aanand lene ke liye,aapki itnee khubsurat kahaani ke liye badhai detaa hoon.
aapko padhte hue kuch pal ke liye sabkuch jadui ho jata hai ...
जवाब देंहटाएंमित्रों
जवाब देंहटाएंबहुमूल्य टिप्पणियों के लिए आभार ।
Aapke blog par aanaa bahut achchhaa lagaa hai . Samagree
जवाब देंहटाएंpadhte hue laga ki main bhee bachchaa ban gayaa hun .
Shubh kamnaayen Sudha ji .
pyari kahani
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