॥5॥ बाललीला
सुधा भार्गव
बचपन में मैं जोर -जोर से गाना गाती,मटक -मटककर नक़ल उतारा करती -ऐसा मेरे बाबा कहते थे|
मैं जिस पाठशाला में पढ़ती वह दुमंजिली और पक्की थी। उसी के सामने बड़ा सा मैदान हमारे लिए भानुमती के पिटारे से कम न था। उसकी चार दीवारी के अंदर खेलकूद होते,टिफिन खाने के बाद दौड़ लगाते। सर्दियों के समय जूट की बनी पट्टियों पर बैठकर पढ़ते और सुबह-सुबह प्रार्थना करते –हे भगवान बुद्धि तो ,विद्या दो,हम सब बच्चे हैं नादान। पक्की खपरैल के दो शेड भी वहाँ बने थे जिनमें लकड़ी के तख्त लगाकर हमारा मंच तैयार हो जाता।वही हमारा थियेटर था। खुले दरवाजों वाला थियेटर जिसमें हर हफ्ते कोई न कोई नाटक होता। उस नाटक कंपनी को हम बच्चे ही चलाते थे। ऐसी थी हमारी निराली पाठशाला। अनूपशहर मतलब अनोखे शहर की अनोखी पाठशाला।
इस आर्य कन्या पाठशाला में हर शनिवार लड़कियां कविता पाठ करतीं और नाटक में भाग लेती। इन सबका अभ्यास आखिरी पीरियड में रोज होता।
एक शनिवार को खेल के मैदान में लकड़ी के स्टेज पर कृष्ण लीला होने वाली थी,
जिसमें मुझे कृष्ण बनाने के लिए चुना गया। पहली बार नाटक में भाग लेने जा रही थी इसलिए मैं खुशी के मारे गुब्बारे की तरह हवा में उड़ने लगी। वैसे तो मैं माँ के साथ पूजा के समय कम ही बैठती थी पर उस दिन मैं उनके पास जाकर बैठ गई। बालगोपाल की ओर टकटकी लगाए सोचने लगी -आह! इनका मुकुट कितना चमकीला है। मुरली भी सुंदर है। पायल तो बड़ी पतली घुंघरूवाली है। मैं भी मुकुट लगाऊँगी। मुरली बजाऊंगी । पायल पहनकर छमछम चलूँगी। आरती खतम भी न हुई कि मेरा राग शुरू हो गया-"माँ –माँ ।"
"देख
रही है पूजा कर रही हूँ। दो मिनट तुझसे चुप नहीं बैठा जाता।"
मैं मन मसोस
कर रह गई।
कूछ देर बाद
फिर बोल उठी –"माँ –माँ मैं
स्कूल में नाटक में कृष्ण बन रही हूँ।"
"तो
----।" माँ का रूखा सा जबाव सुनकर मेरा मुंह लटक गया और मरी
सी आवाज में बोली-
"मुझे
अपने बाल गोपाल की तरह सजा देना।"
"कब है नाटक ?"
"शनिवार
को।"
" आज
तो बुधवार ही है,क्यों अभी से तूफान मचा रही है!"
माँ की डांट
ने मेरा मुंह बंद करा दिया और मैं गुस्से से भरी वहाँ से उठकर चली गई।
थोड़ी देर
में ही भूल गई –माँ ने मुझसे क्या कहा और मैंने उनसे क्या कहा। शनिवार को सुबह स्कूल
जाते समय याद आया –मुझे तो
कृष्ण बनना है –मेरी मुरली –मेरा मुकुट! कुछ भी तो नहीं हैं।
मैं
सुबक पड़ी।
"सुबह
सुबह रो–धो क्यों रही है?"
"माँ ,मेरा समान
--?"
"तेरा सामान या कृष्ण का सामान।"माँ हंस कर बोली । "इस बैग में पीली धोती और बांसुरी रख दी है।पायल पैर
में पहना देती हूँ । उसे खोलना मत।फूल की माला और मुकुट पहनाकर तुम्हारी बहनजी सजा
देंगी। खुश!"
मैं सच ही
खुशी से पागल हो गई और छ्लांगें लगाते स्कूल पहुँच गई।
टिफिन टाइम होते ही स्कूल में भगदौड़ सी मच गई। मेरे
साथी नाटक देखने के लिए आगे से आगे की जगह घेरकर बैठना
चाहते थे।और मैं –मैं तो बस कृष्ण बनने के सपने देख रही थी।
पीली धोती पहने, फूलों के गहनों में सजी सचमुच मैं अपने को कन्हैया समझ रही थी |मुरली से आवाज निकालती,पायल छुनछुन करती जब मैं मंच पर पहुँची ,सबकी निगाहें मेरी ओर थीं जो प्रशंसा के मोती लुटा रही थीं | इतने में यशोदा मैया आई |बोली- -"क्यों रे बलराम , तूने दही की मटकी क्यों फोड़ी?"
कृष्ण बनी मैं चिल्लाकर बोली -"अरे यह तो गलत बोल रही है |अब मैं कैसे बोलूँ ?"पास खड़ी अध्यापिका ने मुँह पर अंगुली रखकर मुझे चुप रहने का इशारा किया | दूसरी अध्यापिका ने परदे के पीछे से धीरे से कहा- "अपने वाक्य बोलो |रुको मत |"
मुझ बालकृष्ण ने तीखे स्वर में यशोदा पर प्रहार किया- "मैया तू तो मेरा नाम ही भूल गई | मैं
बलराम नहीं कृष्ण हूँ । पहले मुझे कृष्ण कहो तब आगे बात करूंगा। " "यशोदा सिटपिटा गई | बहनजी की आँखों से चिंगारियां निकल रही थीं मानो वह उसे भस्म कर देगी |तभी लोगों को सुनाई दिया-"लाल ,तू मेरा कृष्ण ही है पर क्या करूं ! जब मैं आई तू मेरी तरफ पीठ करके खड़ा था । पीछे से तू और बलराम एक से ही
तो लगते हो |"
प्यार से यशोदा ने कृष्ण को गले लगा लिया | मंच का पर्दा गिर गया |तालियों की गूँज के साथ सब खिलखिला उठे |देखने वाले समझ गये थे -बच्चे भूल कर बैठे हैं लेकिन बालबुद्धि ने समय के अनुसार जैसा अभिनय किया जैसा बोला बहुत अच्छा किया ऐसा सब कह रहे थे।
असल में
कृष्णलीला करने की बजाए हम बच्चों ने बाललीला कर दी थी।
इस बाललीला
के महकते फूल अब तक मेरे साथ है।
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