॥4॥ जादुई मुर्गी
सुधा भार्गव
वैसे तो पिता जी मुझे हमेशा टोकते रहते थे-यह करो-यह न करो,ऐसे चलो-वैसे चलो। बीच बीच में डांट भी पिलाते जाते थे। पर शहर जाने पर जब वे जादू वाले खिलौने लाते तो लगता कि प्यार भी करते हैं।
एक बार वे दिल्ली गए और वहाँ से प्लास्टिक की ऐसी मुर्गी लाए जो अंडे देने लगी।
एक नहीं--- पाँच पाँच! अचरज से मेरी तो
आँखें गोल-गोल घूमने लगीं। सोच के पंख निकल आए- -हे भगवान अब तो अंडे
फूंटेंगे और फुदकते लगेंगे रुई से नन्हें
बच्चे। चिंता में डुबकियाँ लेती बोली – “पिता जी--- पिता
जी, ये रहेंगे कहाँ ?इनका तो जल्दी से
घर बनवाना पड़ेगा। अभी तो आप अपना रूमाल दे दो । उससे इन्हें ढक दूँगी वरना सर्दी से
इन्हें जुखाम हो जाएगा । अरे सोच क्या रहे हो जरा जल्दी करो न।”
मेरी बात पर वे ठहाका मार कर हंस पड़े। बोले-“ये अंडे तो मुर्गी के पेट में ही रहते हैं।”
“जब अंडे बाहर आ गए तो वापस पेट में कैसे जाएंगे?” मैं हैरत में थी।
“देखो तो सही –मैं अभी जादू
से अंडों को पेट में भेज देता हूँ।”
पिता जी ने मुर्गी को उल्टा करके धीरे से उसके
दोनों पैरों को दबाया।
“अरे यह क्या –--इसका पेट
तो अपने आप खुल गया।” मैं चौंक पड़ी।
पिता जी ने एक-एक करके पांचों अंडों को उसमें डाल दिया।
फिर से उन्होंने पैरों को दबाया तो पेट
धीरे-धीरे बंद हो गया।
“जादू हो गया। मुझे भी यह जादू सिखा दो।” मैं मचल उठी।
“ इसमें है क्या? ऊपर से
थोड़ा दबाओ –धड़—धड़ अंडे निकल पड़ेंगे।”
मैंने वैसा ही किया पर अंडों को लेकर बड़ी सावधानी
से हथेली पर रख लिया कि फूट न जाएँ और
इठलाती बोली –“अब मैं इनको पेट में नहीं जाने दूँगी। कुछ दिन
बाद अंडे फुस से फूटेंगे। छोटे गुलाबी बच्चे
निकलेंगे ,वे भागेंगे ,मैं भी
उनके पीछे भागूंगी ।पकड़ा-पकड़ी खेलेंगे। आह! कितना मजा आएगा। वे तो होंगे छोटे-छोटे
और मैं होऊँगी बड़ी -बड़ी। जीत तो मेरी ही होगी –क्यों पिताजी
!मैं जीतूंगी न।” उछल-उछलकर तालियाँ बजाने लगी।
“पर बेटा ,मुर्गी तो नकली
है और उसकी अंडे भी नकली है।उसके अंडों में से बच्चे कभी नहीं निकलेंगे।”
मैं रोनी सी हो गई। “नहीं
निकलेंगे--?” भर्राई आवाज में फिर से पूछा-नहीं निकलेंगे?
“हाँ बेटा सच ही कह रहा हूँ। तू छोड़ इस मुर्गी
को। काहे के चक्कर में पड़ गई। मैं तुझे सचमुच की मुर्गी मंगा दूंगा। तुझे मुर्गी
बहुत अच्छी लगती है क्या ?
“हाँ पिता जी।”
दूसरे ही दिन उन्होंने मुर्गी के लिए लकड़ी का एक घर
बनवाया जिसे छत पर रख दिया। उसमें मुर्गा- मुर्गी रहने लगे।रम्मू हमारे घर में काम
करने वाला उनकी देखभाल करता। मुर्गीघर की सफाई करता।
उन्हें दाना- पानी देता। मौका मिलने पर मैं भी उसके पीछे -पीछे मुर्गीघर चल देती यह देखने के लिए कि वह मेरे मुर्गा -मुर्गी को भूखा तो नहीं रखता।
कुछ दिनों के बाद छोटे- छोटे मुर्गी के बच्चे लकड़ी का दरवाजा खुलते ही बाहर की तरफ भागने
लगे । मैं चिल्लाई-रम्मू-रम्मू --ये बच्चे कहाँ से आ गए?इन्हें पकड़।
मैं भी उनके पीछे दौड़ पड़ी। मेरे तो एक भी हाथ नहीं लगा। भागते -भागते हाँफ और गई। रम्मू ने एक मिनट में ही चूजे को उठा अपनी हथेली पर बैठा लिया। शायद उसे मुझ पर तरस आ गया था। बोला -बीबी,ये मुर्गी के अंडों में से निकले हैं।
अरे वाह !पिता जी ठीक ही बोले -यह सचमुच की मुर्गी है। ला मुझे दे दे।
"न--न गिर गया तो इसे चोट लग जाएगी । अभी तो यह उड़ भी न सके।"
"इसे मैं छू लूँ?"
"हाँ--- हाँ !
मैंने बड़े प्यार से उसके रुई जैसे कोमल पंखों को छोटी छोटी अंगुलियों से छुआ,धीरे धीरे सहलाया।
अब तो मैं स्कूल से आते ही छत पर पहुँच जाती। कुकड़ूँ -कूँ,कुकड़ूँ -कूँ की आवाज निकालते हुये मुर्गीघर का दरवाजा धीरे से खोलती । उसमें झाँकती तो कभी मुझे मुर्गी माँ अपने बच्चों को चोंच से दाना खिलाते मिलती तो कभी प्यार से उन्हें अपने से चिपकाए हुए मिलती।
मुर्गी माँ के प्यार को देख मुझे खुशी भी मिलती और अचरज भी होता क्योंकि मैं तो यही समझती थी कि मेरी माँ ही बस मुझे प्यार करती है। स्कूल पहुँचकर अपनी सहेलियों से आश्चर्य भरे मुर्गी घर के बारे में एक एक बात न कह दूँ तब तक चैन न पड़ता।
इस तरह मेरा बचपन ज़ोर ज़ोर से खिलखिलाता –इतराता और मुझे चौंकाता । इन सबमें समाई खुशी की गंध को मैंने अभी तक सँजोकर रखा है। काश! आज भी बच्चों का बचपन खुली हवा मेँ चौकड़ियाँ भरता नजर आता ! गगनचुंबी इमारतों की भीड़ में कंप्यूटर बने बच्चे न जाने कहाँ खो गए हैं!
उन्हें दाना- पानी देता। मौका मिलने पर मैं भी उसके पीछे -पीछे मुर्गीघर चल देती यह देखने के लिए कि वह मेरे मुर्गा -मुर्गी को भूखा तो नहीं रखता।
कुछ दिनों के बाद छोटे- छोटे मुर्गी के बच्चे लकड़ी का दरवाजा खुलते ही बाहर की तरफ भागने
लगे । मैं चिल्लाई-रम्मू-रम्मू --ये बच्चे कहाँ से आ गए?इन्हें पकड़।
मैं भी उनके पीछे दौड़ पड़ी। मेरे तो एक भी हाथ नहीं लगा। भागते -भागते हाँफ और गई। रम्मू ने एक मिनट में ही चूजे को उठा अपनी हथेली पर बैठा लिया। शायद उसे मुझ पर तरस आ गया था। बोला -बीबी,ये मुर्गी के अंडों में से निकले हैं।
अरे वाह !पिता जी ठीक ही बोले -यह सचमुच की मुर्गी है। ला मुझे दे दे।
"न--न गिर गया तो इसे चोट लग जाएगी । अभी तो यह उड़ भी न सके।"
"इसे मैं छू लूँ?"
"हाँ--- हाँ !
मैंने बड़े प्यार से उसके रुई जैसे कोमल पंखों को छोटी छोटी अंगुलियों से छुआ,धीरे धीरे सहलाया।
अब तो मैं स्कूल से आते ही छत पर पहुँच जाती। कुकड़ूँ -कूँ,कुकड़ूँ -कूँ की आवाज निकालते हुये मुर्गीघर का दरवाजा धीरे से खोलती । उसमें झाँकती तो कभी मुझे मुर्गी माँ अपने बच्चों को चोंच से दाना खिलाते मिलती तो कभी प्यार से उन्हें अपने से चिपकाए हुए मिलती।
मुर्गी माँ के प्यार को देख मुझे खुशी भी मिलती और अचरज भी होता क्योंकि मैं तो यही समझती थी कि मेरी माँ ही बस मुझे प्यार करती है। स्कूल पहुँचकर अपनी सहेलियों से आश्चर्य भरे मुर्गी घर के बारे में एक एक बात न कह दूँ तब तक चैन न पड़ता।
इस तरह मेरा बचपन ज़ोर ज़ोर से खिलखिलाता –इतराता और मुझे चौंकाता । इन सबमें समाई खुशी की गंध को मैंने अभी तक सँजोकर रखा है। काश! आज भी बच्चों का बचपन खुली हवा मेँ चौकड़ियाँ भरता नजर आता ! गगनचुंबी इमारतों की भीड़ में कंप्यूटर बने बच्चे न जाने कहाँ खो गए हैं!
समाप्त
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