॥18॥ मूंछ मलाई
सुधा भार्गव
छुटपन में मुझे मलाई खाने का बड़ा शौक था । रसोई में
बड़ी सी लोहे की कढ़ाई में दूध औटता फिर मंदी –मंदी आंच में पकता तो सारा घर महकने लगता और मेरी नाक में उसकी खुशबू घुसती चली जाती । ठंडे होने पर तो मलाई की ऐसी मोटी परत जमती कि बस पूछो मत । अगर मैं बिल्ली होती तो सारी मलाई चट कर भाग जाती ।
मलाई खाने का अरमान मेरे दिल में ही रह जाता क्योंकि
सारी मलाई ज़्यादातर बाबा जी के हिस्से ही आती ।
मेरे बाबा |
बाबा जी दोपहर को खाना खाने के बाद मलाई –बूरा या दही
–बूरा खाते थे । दादी के जमाने से उनका एक चांदी का कटोरा था ।
चमचमाता कटोरा |
रात के खाने के बाद उस चमकते कटोरे में वे दूध पीते और उस दूध में तैरती रहती
मेरे हिस्से की मलाई । मन मारकर देखती रहती उस कटोरे को बाबा के कमरे में जाता देखकर
। समझ नहीं आता था बाबा को मलाई वाला और हमें पानी सा दूध क्यों मिलता है ?
घरवालों का ज्यादा मन चलता तो हलवाई की दुकान से मलाई
वाला दूध आ जाता ।
मिट्टी के कुल्हड़ वाला सौंधा –सौंधा मेवे वाला दूध भी अच्छा
लगता था पर डाक्टर बाबा न जाने बाजार का दूध क्यों नहीं पीते थे,मिठाइयों की तरफ तो देखते भी न थे ।
यह तो मेरी बुद्धि में बहुत बाद में घुसा कि डाक्टर होने से बहुत सोच समझकर खाते थे । पर यह अच्छी तरह समझ गई थी कि सारा घर बाबा को बहुत
प्यार करता है और उनका ध्यान रखता है ।
एक रात करीब 9बजे अम्मा दूध का कटोरा लिए बाबा के कमरे की ओर जा रही थीं
। जैसे ही बाबा ने उसे अपने हाथों में थामा मैं और मेरा छोटा भाई उनके बायेँ-दायें
घर वालों की नजरों से बच –बचाकर जा बैठे । हम ऐसा तभी करते थे जब उनसे कुछ पाना होता
था । दूध पीने की चम्मच हाथ में थामते हुये बोले –क्या बात है बेटा ,कुछ चाहिए क्या ?
-हाँ बाबा !मलाई चाहिए –आपके दूध में
बहुत सारी है ।
-ठीक है !दूध पीते समय तुम्हें जब मलाई दीखे तो मुझे
रोक देना ।
हम दोनों बड़े खुश । आँखें चमचमा उठीं ।
बाबा ने पहली बार जब चम्मच से दूध भर कर मुंह तक ले जाना चाहा ,हमें लंबी सी मलाई उससे लटकती नजर आई ।
-रुको बाबा रुको –मलाई है । हम दोनों चिल्लाये ।
बाबा की चम्मच जहां थी वहीं रुक गई ।
भाई ने धीरे से मलाई उतारी और बिना हिस्सा बाँट किए
खा गया । मुझे उस पर बहुत गुस्सा आया ।
दूसरी –तीसर्री बार बाबा ने दूध पीया पर चम्मच में जरा
सी भी अटकी
मलाई नजर नहीं आई । मैं बहुत दुखी हो गई । ज्यादा दुख
तो इस बात का था कि भाई को तो मलाई मिल गई पर मुझे नहीं मिली ।
बहुत सावधान होकर बैठ गई कहीं इस बार भी वह मलाई न झपट ले । तभी देखा मलाई का बड़ा सा टुकड़ा बाबा
की बड़ी –बड़ी मूँछों में लटक गया है ।
- बाबा – मूंछ मलाई !
बाबा हैरान । चम्मच सहित उनके हाथ तो रुक गए पर मेरे
कहने का मतलब न समझे ।
मैंने धीरे से मूंछ से मलाई को अलग किया ताकि बाबा का
कोई मुच्छी बाल खिच न जाए । आखिर वे मेरे प्यारे बाबा थे मगर मलाई खा गई। आह !उस दिन कितनी खुश थी कह नहीं सकती ।प्यार भरे दिलों में निर्मलता से बहते झरने जैसा था मेरे बचपन का रंग।
जब भी किसी बच्चे को अपने बाबा की उंगली पकड़ते जाता
देखती हूँ मुझे अपने बाबा की याद आ जाती है ।
वैसे बच्चों मूंछ वाले बाबा लगते बहुत अच्छे हैं और आजकल
तो फैशन चल पड़ा है नकली मूंछें लगाने का और कुछ तो इलाज करवा रहे हैं ताकि मूंछें
उग सकें ।
इसका मतलब
तुम्हारे बाबा की मूंछें भी बड़ी बड़ी हो सकती हैं ।
अच्छा फिर मिलेंगे ---।
बहुत सुन्दर और मीठी पोस्ट ! बचपन की कुछ यादे ताज़ा हो गयी जी .
जवाब देंहटाएंमेरी कहानी भी पढ़ कर अपने भाव रखे.
http://storiesbyvijay.blogspot.in/
धन्यवाद.
अद्भुत मिठास से भरपूर मनोवैज्ञानिक कहानी , बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कहानी परोसी है आपने बच्चों के लिए.मेरा विशवास है कि इसे पड कर
जवाब देंहटाएंखूब आनंदित होंगे बच्चे.आजकल ऐसी कहानियों का नितांत आभाव हो गया है.उनके तो दादा-दादी कहीं खो गये हैं.
मित्रवर
जवाब देंहटाएंआप सबका धन्यवाद इतनी उत्साहवर्धक टिप्पणी देने के लिए।