॥17॥खेलमखेल
सुधा भार्गव
अल्लम -गल्लम -खों -खों उछलो -कूदो ---हों --हों |
इतवार की इतवार घर से बाहर छोटे से मैदान में क्रिकेट
खेला जाता था । चाचा जी पिता जी और उनके दोस्त खेला करते । मुझे तो खेलने का
कोई मौका ही नहीं देता था, बस दूर –दूर से गेंद उठाकर लाने का काम था । मैं तो हाँफ
जाती थी मगर खड़ी रहती शायद चांस दे दें ।
जिस दिन चांस मिल जाता खुशी से जमीन पर
पैर नहीं पड़ते थे ।
मुझे तो लट्टू घूमता बहुत अच्छा लगता था । मानो वह
कह रहा हो –देखो –देखो एक पैर पर कैसा नाच रहा हूँ ,तुम भी
मुझे नचाओ । मेरी तरह से तुम्हें भी खुशी मिलेगी ।
घूम -घूम लट्टू , मैं भी हो गया लट्टू |
बस मैंने भी सोच लिया लट्टू
घुमाना सीख कर ही रहूँगी । किसी तरह से बाजार से तो ले आई पर दिमाग में खलबली मच
गई सीखू किस्से !दोस्तों से सीखाने को कहती तो हँसी उड़ाते –लो
इसे इतना भी नहीं आता --। भाई की 2-3 दिनों तक खुशामद की तब उसने मुझे सिखाया
। लट्टू तो मेरा गोल –गोल जमीन पर घूमने लगा पर उसे हथेली पर कभी न उठा सकी । इसका अफसोस आज भी है ।
। लट्टू तो मेरा गोल –गोल जमीन पर घूमने लगा पर उसे हथेली पर कभी न उठा सकी । इसका अफसोस आज भी है ।
लाल -पीली -नीली गोलियां सुन्दर सी हमजोलियाँ |
हार -जीत का रेला दुःख ने आकर घेरा |
एक दिन छोटे भाई की जेब
में कंचे खनखनाते हुये सुन समझ गई -वह बाहर उनसे खेलने जाने वाला है । मैं भी उसके साथ हो ली । मगर वह अड़ गया –आप नहीं
जाओगी ,किसी की बहन खेलने नहीं आती ।
-अरे मैं खेलूँगी नहीं --। बस देखूँगी ।
-नहीं --। मैं नहीं ले जाऊंगा ।
-तब मैं पिता जी से तेरी शिकायत लगा दूँगी ।
पिता जी इस खेल के सख्त खिलाफ थे इसलिए मेरी धमकी
काम कर गई । पर उसका मुँह फूला ही रहा जितनी देर खेला ।
घर से बाहर हमारे खेलने को–इप्पल –दुपपल ,कीलम काटी झर्रबिल्इया ,चूहा भाग बिल्ली आई -----
न जाने कितने खेल थे|
,घोडा है जमालशाही पीछे देखो मार खाई |
न जाने कितने खेल थे|
गिल्ली -गिल्ली उछल हवा में वरना डंडा मारूँगी |
मेरा एक थैला गिल्लियों से भरा रहता । बढ़ई काका खूब बना-बना कर देते । एक खो जाय तो दूसरी हाजिर । अक्सर छोटे डंडे से गिल्लियाँ उड़ जातीं जो मिलती नहीं थीं । कभी –कभी अपने साथियों को भी गिल्ली दे देती ,फिर वे मेरी बात बहुत मानते ।
इस खेल पर
कोई पाबंदी भी नहीं थी ,पिताजी- ताऊ जी तो खुद खेलते थे। एक बार
ताऊ जी गिल्ली खेल रहे थे । काफी दूर पर उनकी
बेटी खड़ी तमाशा देख रही थी । ताऊ जी ने ज़ोर से गिल्ली को डंडे से उछालकर उसमें ज़ोर
से ऐसा छक्का मारा कि उसकी नोंक दीदी की आँख में चुभ गई और ले बैठी उनकी आँख की रोशनी
। तब से थोड़े सावधान हो गए पर गिल्ली खेलनी
नहीं छोड़ी ।
ठंड मेँ दिन
छोटे होने के कारण हमें शाम को खेलने का मौका कम मिलता ।पर उसकी कसर स्कूल की छुट्टी के दिन खूब निकालते ।
छुट्टी के दिन सबसे आनंद दायक हमारा इकलौता खेल होता
-कूदमकूद ।
एक कमरे मे दो बड़े –बड़े अलम्यूनियम बॉक्स थे जिनमें गद्दे –लिहाफ रखे जाते थे । वे केवल सर्दियों मेँ खुलते थे ।
सर्दी की एक सुबह नौकर ने बिस्तरे ठीक किए और लिहाफों की तह करके उन्हें बक्सों पर रख दिये । दोपहर को खाना खाने के बाद हम भाई –बहन उस कमरे मेँ घुस गए ।हमारे बाद अम्मा ने खाना खाया ।छोटे भाई को सुलाते वे भी सो गईं ।हमें धींगा मस्ती का समय मिल गया।और तो और अंदर से कमरे की कुंडी भी लगा ली ताकि कोई नौकर शिकायत न कर दे ।हम भाई –बहनों ने छोटे –छोटे हाथों से बड़े–बड़े लिहाफ नीचे खींच लिए फिर उन पर खूब कूदे –उछले ।
कोई कहीं गिरा कोई कहीं लुढ़का । अम्मा ने हमारे लिए अलग से तकिये बनाए थे हम छोटे थे तो हमारे तकिये भी छोटे थे । उन्हें एक दूसरे पर पूरी ताकत
लगाकर फेंकने लगे । जब वह किसी के सिर या मुंह से टकराता तो खूब हँसते
—इतना हँसते कि पेट मेँ बल पड़ जाते । कितना समय निकल गया पता ही नहीं चला पर अम्मा की नींद टूट गई ।
एक कमरे मे दो बड़े –बड़े अलम्यूनियम बॉक्स थे जिनमें गद्दे –लिहाफ रखे जाते थे । वे केवल सर्दियों मेँ खुलते थे ।
सर्दी की एक सुबह नौकर ने बिस्तरे ठीक किए और लिहाफों की तह करके उन्हें बक्सों पर रख दिये । दोपहर को खाना खाने के बाद हम भाई –बहन उस कमरे मेँ घुस गए ।हमारे बाद अम्मा ने खाना खाया ।छोटे भाई को सुलाते वे भी सो गईं ।हमें धींगा मस्ती का समय मिल गया।और तो और अंदर से कमरे की कुंडी भी लगा ली ताकि कोई नौकर शिकायत न कर दे ।हम भाई –बहनों ने छोटे –छोटे हाथों से बड़े–बड़े लिहाफ नीचे खींच लिए फिर उन पर खूब कूदे –उछले ।
कोई कहीं गिरा कोई कहीं लुढ़का । अम्मा ने हमारे लिए अलग से तकिये बनाए थे हम छोटे थे तो हमारे तकिये भी छोटे थे । उन्हें एक दूसरे पर पूरी ताकत
लगाकर फेंकने लगे । जब वह किसी के सिर या मुंह से टकराता तो खूब हँसते
—इतना हँसते कि पेट मेँ बल पड़ जाते । कितना समय निकल गया पता ही नहीं चला पर अम्मा की नींद टूट गई ।
हममें से किसी को आसपास न देख खोजख़बर लेने मेँ जुट गईं
। दरवाजा बंद देख अम्मा को हमारी शैतानी का अंदाजा लग गया और कुंडी खटखटा दी ।एक मिनट
को हम सब बुत बन गए ।उपद्रव करने वाले हाथ रुक गए । डांट के डर से समझ नहीं पाये क्या
करें । लिहाफों की तह करके उन्हें बाक्स पर रख नहीं सकते थे ,माँ का सामना करने से बच नहीं सकते थे ।
मैंने दरवाजा खोला ,अम्मा ने जोर
से मेरा कान ऐंठ दिया । समझ गईं –यह किसके दिमाग की उपज है ।दोनों भाई छिपने की कोशिश करने लगे कोई दरवाजे
के पीछे ,कोई पलंग के नीचे । अम्मा को ज्यादा गुस्सा नहीं आता
था पर उस दिन तो मेरी बांह मेँ चीकुटी भी काटी थी लगा जैसे लाल चींटी ने काट खाया हो
।
बाप रे ! |
माँ का गुस्सा कपूर की तरह उड़न छू होगया | हमें अपने स्नेही आँचल मेँ छिपाकर पिता जी की आँखों से दूर ले गईं
।
आज भी शैतानियाँ करने को मन करता है पर बचाने वाला कोई नहीं !
आज भी शैतानियाँ करने को मन करता है पर बचाने वाला कोई नहीं !
काश !आज भी वह स्नेह कवच मेरे इर्द गिर्द लिपटा होता
।
सचमुच बचपन की गलियों में पहुंचा दिया आपने.
जवाब देंहटाएंबचपन की ये सुन्दर यादें जीवन की पूँजी ही होतीं हैं ।
जवाब देंहटाएंउपासना सियाग
जवाब देंहटाएं3:13 AM (5 minutes ago)
to me
उपासना सियाग ने मेरी पोस्ट " खेलमखेल " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
सुंदर मनमोहक प्रस्तुति ...