॥ 2॥ दूधचोर
सुधा भार्गव
(क )
मैं जब छोटी थी दूध चोर थी | सर्दी हो या गरमी मैं सुबह ६ .३० पर चुपचाप उठती ,बिना आह्ट किये स्कूल के लिए तैयार होतीं | खाती -पीती भी नहीं बस घर से भाग लेती |
मेरे कपड़े पहनने का तरीका निराला था | सदाबहार बस फ्रोक पहन लिया ,दिसंबर की कड़क ठण्ड -- I पर स्वटर के बटन आगे से खुले हुए ,पैरों में हवाई चप्पलें! जेब में जरूर चवन्नी या दस का सिक्का खामोश पड़ा रहता जिसे मैं अपने बाबा से हड़प लेती | अम्मा - पिताजी की नींद खुलती तो बड़ा अफसोस होता -हाय- - बच्ची भूखी ही चली गयी |लेकिन मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता था |मैं तो चाहती ही नहीं थी कि कोई जागे | किसी के जागने का मतलब था -दूध जरूर पीना- - - I
एक दिन बाबा बोले -जग्गी ,मुन्नी बिटिया तो दुबली हो गयी है |पढ़ाई का बोझ भी बहुत है |ऐसा करो --कसेरू हलवाई की दुकान पाठशाला के पास है |उससे रोज एक पाव दूध बाँध दो | मुन्नी टिफिन -टाइम में पी आया करेगी |
कसेरू हलवाई वाली बात पिताजी को जँच गयी I वे दिल के मुलायम थे मगर क्रोध में आकर आप़ा खो बैठते I उनका पारा गर्म होने से सब अपने को छिपाते फिरते ,न जाने भरा बादल किस पर बरस पड़े Iजब उन्होंने कहा'-कल से मुन्नी को रोज हलवाई की दुकान पर जाकर दूध पीना पड़ेगा |'मैंने सिर झुकाकर हाँ में हाँ मिला दी |'
क्रमश:
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