॥2॥ भूत भूतला की चिपटनबाजी
सुधा भार्गव
छुटपन में मुझे भूत -प्रेत की कहानियाँ बड़ी अच्छी लगती थीं । कथाओं में भूत मुझे कभी चमत्कारी बाबा लगते तो कभी जासूस तो कभी जादूमंतर जानने वाले जादूगर। सोचती कितना अच्छा हो कोई भूत मुझे मिल जाए—देखूँ तो कैसा होता है। तइया दादी भूतों के किस्से सुना सुना कर तो हम भाई बहनों को अचरज में डाल देतीं।पर कभी कभी वे अपनी बात मनमाने के लिए भूत का नाम कुछ इस तरह लेतीं कि हम कुछ पल को डर ही जाते और मुँह से निकाल जाता –दइया भूत ऐसा होता है।
तइया
दादी बाबा की ताई थीं। नाटी सी गोरी सी कमर झुकाए धीरे धीरे चलतीं। दाँत तो उनके
एक भी नहीं था। चोरी छुपे हम उन्हें पोपली दादी भी कहते। बोलतीं तो आधी बात फुस से
हवा की तरह निकल जाती। फिर भी हमें वे अच्छी लगती —हँसती तो प्यारी -प्यारी लगतीं।
वे
हमारे घर की कोतवाल थीं कोतवाल। मोटा मोटा चश्मा आँखों पर ,उसके नीचे मोटी- मोटी आँखें ---बाप
रे नन्ही सी चींटी भी उनकी पैनी निगाह से न बच पाए। हर आने जाने वाले का हिसाब उँगलियों पर रखतीं
और प्रश्नों की झड़ी लगा देतीं --कहाँ जा रहा है?क्या करने जा
रहा है?कब तक लौटना होगा?
एक
शाम मैं जल्दी जल्दी दूध पीकर बाहर खेलने निकलने ही वाली थी कि पीछे से आवाज आई –“अरी
छोरी मीठा दूध पीकर उछलती कहाँ जा रही हैं--नमक चाटकर जा वरना भूतला चिपट जाएगा भूतला।”
एक मिनट को तो मेरे कदम रुक गए फिर साहस
जुटाते पूछा-“दादी तुमने भूतला देखा है क्या?”
“न—न-
–भूत को कोई न देख सके पर वह सबको देख सके है। कभी -कभी भूतों के पैर दिखाई दे
जावे हैं।हवा में भी फर्राटे से उड़े हैं।”
“तुमने
पैर देखे हैं क्या?”
“देखे
तो नहीं पर सुना है पैर उल्टे होवे हैं ।एड़ी आगे उँगली पीछे।” मैं नाक पर उंगली रख
बुदबुदाने लगी एड़ी आगे उँगली पीछे-- एड़ी आगे उँगली पीछे। माँ कब-कब में उंगली से
नमक चटा गई पता ही न चला।
“क्या
हुआ !अब जा न बाहर खेलने।”
“कहीं भूतला चिपट गया तो—मैंने आँखें झपकाते हुए
कहा।”
“अब
कोई भूतला पूतला न चिपटेगा। नमक खा तो लिया।”
मैं
बाहर चली तो गई पर खेलने में मन नहीं लगा। सड़क पर किसी भी अंजान को जाते देख मेरी नजरें उसके पैरों को टटोलने लगतीं ---कहीं यह भूत तो नहीं---जरूर इसके पैर उल्टे होंगे।
मगर उल्टे पैर वाला कोई मिला नहीं।
खेलने
के बाद बहुत भूख लगी थी सो सीधे रसोईघर में पहुंची। भाई छोटू वहाँ पहले से ही
विराजमान था और इंतजार कर रहा था कब पहली रोटी तवे पर पड़े और कब उसे हड़प ले। मुझे
देख नाक भौं सकोड़ी और बोला –“पहले मैं आया हूँ मिसरानी जी रोटी भी पहले मुझे ही
देना””
“खाना शुरू करेगा तो पाँच -पाँच रोटियों पर भी न
रुकेगा।पूरा पेटू है पेटू। पहले मुझे दो।”
“ओह
मुनिया झगड़ा न कर। पहले दो रोटियाँ छोटू को लेने दे। फिर तुझे दे दूँगी।”
मन
मसोसकर मैं अपनी बारी का इंतजार करने लगी। जैसे ही दूसरी रोटी मिसरानी ताई मेरे
थाली में डालने लगीं छोटू चिल्लाया-जीजी को ही रोटियाँ दिये जाओगी क्या! अब मुझे
दो।
मैं
परेशान हो उठी--क्या वास्तव में मैं कई रोटियाँ खा गई हूँ। पेट तो भरा नहीं। कहीं
भूत तो मेरी रोटियाँ नहीं खा गया। जरूर वह मेरे पास बैठा हैं। उफ क्या करूँ!मैं तो
उसे देख ही नहीं सकती। पैर भी नहीं दिखाई दे रहे। इस बार तो रोटी को मुट्ठी में
कसकर पकड़ लूँगी और एक एक टुकड़ा तोड़कर खाऊँगी । फिर देखती हूँ बच्चू के हाथ कैसे
लगती है रोटी। किसी तरह बस वह एक बार मुझे दिखाई दे जाय फिर तो उसे चिढ़ा -चिढ़कर
खाऊँगी। कितने ही ख्यालों के बादल मुझपर मंडराने लगे। नींद जैसे ही आँखों से झाँकी मैं भूत को एकदम
भूल गई।
छुट्टियों
में चचेरे भाई बहन आए हुए थे । उनके साथ हुल्लड़बाजी
करने में बड़ा मजा आता। घर के बाहर पीपल का बड़ा सा पेड़ था।उसके चारों तरफ पक्की चबूतरी बनी
थी। हम उसके चक्कर पर चक्कर लगा छुआ- छाई खेलते। चबूतरी पर बैठे हँसते -खिलखिलाते
और खुटटमखुट्टी कर बैठते। जब तक आड़ी(सुलह)न हो जाती घर न लौटते ।
एक
दिन इसी चक्कर में अंधेरा गहरा गया जबकि संझा होते ही घर लौटने का नियम था। पिताजी
तो आँखें तरेरकर ही रह गए पर तइया दादी बोल उठी-“इतनी देर गए लौटे हो।तुम्हें
मालूम है पीपल पर भूत रहता हैं। शाम को लौटते समय हो गई उससे मुठभेड़ तो ऐसा
चिपटेगा ऐसा चिपटेगा कि उसकी पकड़ से छूट भी न सकोगे। बस चीखते रह जाओगे –बचाओ—बचाओ।”
हम
गुमसुम से हो गए। दादी की बात बहुत दिनों तक दिमाग में छाई रही। अंधेरा होते ही हम घर लौट आते।
पिताजी तो खुशी से भर उठे। बोले –“तुम तो
बहुत अच्छे हो गए हो। समय से खेलकर घर में आ जाते हो। ”
“नहीं
आएंगे तो भूत पकड़ लेगा।” मैंने कहा।
“कौन
बोला?”
-तइया
दादी।
-तुम्हारी
तइया दादी ने कहा !तइया अम्मा भी न जाने बच्चों से क्या -क्या कहती रहती है। बच्चों
भूत-प्रेत कोई नहीं होता जाओ यहाँ से। वे झल्ला पड़े।
तइया दादी झकर-झकर झुकी-झुकी आन पहुंची –“क्या
कहे है--- भूत न होवे? मैं कहूँ --होवे है।पढ़ लिख गया तो
मेरी कोई बात पर विश्वास ही न करे हैं।
मैं तो पैदा होते ही सुनती आई हूँ भूत—भूत । भूत न देखा पर कुछ तो सच होगा
ही। ” दादी भुनभुनाती रह गई।
पिताजी
न ही दादी को भूत की सच्चाई समझा सके और न हमें ही बता सके। सोचा होगा दादी अनपढ़
है और हम बच्चे नासमझ।इनसे माथापच्ची करना बेकार है। समझदार होने पर भी मैं दादी
का भूत भुला न सकी। हमेशा सोचती रहती दादी की कही बातों में कुछ तो सच्चाई जरूर
होगी। आठवीं कक्षा में जाते जाते भूत से पर्दा उठ ही गया।
बच्चों,मुझे पता लगा कि भूत –प्रेत तो कोरी कल्पना ही है। एक तरह से दादी की
बातों में वैज्ञानिक सच छुपा है। उनके समय ज़्यादातर लोग अनपढ़ थे। वे विज्ञान की
भाषा नहीं समझ सकते थे। पर स्वास्थ्य ठीक रखने के लिए एक अज्ञात काल्पनिक आकृति
भूत की ओट में कुछ उक्तियों का प्रचलन हो गया
जिसे सुनकर ही लोग कानों से ग्रहण करते थे और उस पर चलते थे। वे विचार पीढ़ी दर
पीढ़ी बहते रहे और उन्हें मानने की प्रथा चल पड़ी। दादी भी उनमें से एक थीं जिन्हें भूत-प्रेत की
बातें बचपन से सुनने को मिली थीं। वे उनके खूनमें इतना रम गई थीं कि उनको सच मान बैठी
थीं। ‘नमक चाटकर जाओ’ दादी ने ठीक ही
कहा था। चीनी दांतों को नुकसान पहुँचाती है। मीठा दूध पीकर बाहर जाने से मिठास का
असर काफी देर तक दांतों में रहता है इससे उनके
खराब होने का डर पैदा हो जाता है।
सुबह
के समय पेड़ पौधे-आक्सीजन निकालते हैं और कार्बन ग्रहण करते है। पर रात के समय वे
इसका उल्टा करते हैं। मतलब आक्सीजन ग्रहण करते हैं और कार्बन निकालते हैं। रात को
उनके नीचे या आसपास रहने से कार्बन ही मिलेगी जो हमारे लिए जहर है। हमारा जीवन तो
आक्सीजन है। इसी कारण तइया दादी ने कहा था- साँझ होते ही घर लौट आना।
मैं न दादी को गलत कह पाती हूँ और न पुरानी
मान्यताओं को । पर इतना जरूर है कि हमें उन्हीं बातों पर विश्वास करना चाहिए जो
तर्क संगत हों। बिना सोचे समझे लकीर की फकीर पीटना तो अंधविश्वास हो गया।
समाप्त
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