नये वर्ष की नई अभिलाषा ----

बचपन के इन्द्र धनुषी रंगों में भीगे मासूम बच्चे भी इस ब्लॉग को पढ़ें - - - - - - - -

प्यारे बच्चो
एक दिन मैं भी तुम्हारी तरह छोटी थी I अब तो बहुत बड़ी हो गयी हूं I मगर छुटपन की यादें पीछा नहीं छोड़तीं I उन्हीं यादों को मैंने कहानी -किस्सों का रूप देने की कोशिश की है I इन्हें पढ़कर तुम्हारा मनोरंजन होगा और साथ में नई -नई बातें मालूम होंगी i
मुझसे तुम्हें एक वायदा करना पड़ेगा I पढ़ने के बाद एक लाइन लिख कर अपनी दीदी को अवश्य बताओगे कि तुमने कैसा अनुभव किया I इससे मुझे मतलब तुम्हारी दीदी को बहुत खुशी मिलेगी I जानते हो क्यों .......?उसमें तुम्हारे प्यार और भोलेपन की खुशबू होगी -- - - - - -I

सुधा भार्गव
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मंगलवार, 4 सितंबर 2012

जब मैं छोटी थी


॥ 16॥ चोर- डाकुओं की धमाचौकड़ी 
सुधा भार्गव 





बचपन में 

 मुझे कुछ ज्यादा ही चोर डाकुओं से डर लगता था |करती भी क्या --!अनूपशहर छोटी सी जगह पर आये दिन चोरी -डकैती की बातें !
रात में  डरावने चार सींगों बाले सपने आने शुरू हो जाते --मेरी तो जान ही निकल जाती |चूहा भी फुदकता तो लगता जरूर किसी चोर ने दरवाजा खोला है --बस आया --आया |जागता हुआ देखेगा तो जरूर मेरे मुँह में कपड़ा ठूंस  देगा जिससे चिल्ला न सकूँ |हाथ पाँव रस्सी से बाँध दिये तो भाग भी न पाऊंगी |क्या करूँ !हाँ ध्यान में आया ,उसके आते ही आँखें मींच कर सोने का ऐसा नाटक करूँगी कि बच्चू भुलावे में आ जायेगा |मैं कम चालाक थोड़े ही हूँ |

सच में----

मैं आंखें कसकर भींच लेती  पर अन्दर ही अन्दर काँपती  --होठों पर शब्द थरथराते  -
भूत 

जय-जय हनुमान गोसाई
कृपा करो गुरू देव की नाई

भूत -पिशाच निकट नहीं आवे
भूत -पिशाच निकट नहीं आवे

नहीं आवे --------नहीं आवे --

एक दिन तो गजब हो गया !

थाने के पास एक सेठ जी की हवेली थी| वे शहर  से काफी रूपये लेकर लौट रहे थे कि बस में बंदूक की नोक पर डकैतों ने लूट लिया |
अग्रवाल ताऊ के तो दो दिन पहले ही डाकुओं की चिट्ठी आ गई -सावधान !हम रात को आ रहे हैं --!
वे  वास्तव में ही  आ गये |उनकी माँ चिल्लाई तो गोली मार दी ,ताऊ जी से अलमारी की चाबी लेकर उन्हें रस्सी से बाँध दिया और ले गये सारे के सारे -सोने - चांदी के जेवर और रुपया पैसा।उन्हें बचाने को न पड़ोसी आया और  
न ही सिपहिया  जी ।

 बहुत दिनों तक मैं परेशान रही और इतना समझ में आ गया कि मुसीबत में कोई काम आने वाला नहीं |


तब से मैं अपनी चीजों को बहुत सावधानी से रखती । छोटी सी संदूकची में किताबें भरकर स्कूल जाती थी, उसमें ताला लटकने लगा |माँ से कहती -अलमारी खुला न छोड़ा  करो ।पिताजी रात में घर के ख़ास दरवाजे की कुंडी में अलीगढ़ का मोटा सा  ताला लगाकर सोया करते ,उनके साथ साथ भी मैं  जाने लगी। पिता जी से कहती--- ताला खींच कर देख लीजिये कहीं खुला न रह गया हो ।


  पिता जी के पास बड़ी से बंदूक थी| रात में सोते समय उसे अपने उलटे हाथ की ओर गद्दे के नीचे रखकर सोते |उसे देखते ही दिमाग में खिचड़ी पकने लगती -- पिताजी तो दुबले पतले हैं |बंदूक को चोर की ओर तानने में उन्हें समय लगेगा !इतनी देर में कहीं चोर उनके हाथ से बंदूक छीन ले और उलटे उन्हीं के सीने पर दोनाली बंदूक रख दे तो---- हे भगवान्! क्या होगा !मैं अपना माथा पकड़ लेती ।
घर में कोई अजनबी आता तो उसे घूर -घूर कर देखती कहीं भेदिया तो नहीं है और चोरी करवा दे |अम्मा तो गुस्से में कह देतीं -- इसका तो शक्की दिमाग है --|

एक बार अम्मा को नानी से मिलने आगरा जाना पड़ा| मैं और छोटा भाई चाची के पास रहे |चाची -चाचा जी हमें बहुत प्यार करते थे ।

उस दिन  

स्कूल से लौटकर देखा-- एक अजनबी औरत चाची के साथ खाट पर बैठी मटर छील रही है |उसको देखते ही मैं चौकन्नी हो गयी और कान उनकी बातों से जा चिपके |

चाची कह रही थीं --मेरी बहना सत्तो ,मटर तो मैं छील लूंगी --तू जाकर मेरे  बर्तनों की अलमारी जरा ठीक करदे |नये गिलासों पर नाम भी खुदवाना है |नाम खोदने वाला नीचे बैठा है |
-क्या नाम लिखवाओगी? जीजा जी का नाम तो ओमी है |
-पहचान के लिए केवल 'ओ ' ही काफी है |

सुनते ही मेरा तो दिल बैठ गया |जिस कमरे में चाची की बहन जी जाने वाली थीं वहाँ  बर्तन रखने के लिए दो छोटी अलमारी रखी  हुई थीं -एक चाची की  दूसरी अम्मा की |एक हफ्ते पहले मुरादाबादी २४ गिलास  खरीदे गये थे |पीतल के होते हुए भी  झकाझक चमक रहे थे |


चाची ने अपने गिलास अपनी अलमारी में रख दिये और अम्मा दूसरी  अलमारी में रख कर चली गईं  । अलमारियां खुली ही रहती थीं  बस चिटकनी बंद रहती थीं ।  इन दिनों तो मुझे  चारों तरफ चोर ही चोर   नजर आते । |मन का भूत बोला - सावधान -तुम्हारी माँ का  एक  गिलास तो  गायब होने वाला है ही ।


मैंने जल्दी से किताबों की बकसिया जमीन पर पटकी |भागी -भागी कमरे में गई और अम्मा की अलमारी के आगे पहरेदार की तरह खड़ी हो गई।

सत्तो काकी कमरे में आईं और बड़े इत्मिनान से १२ गिलासों पर -ओ -लिखवाने के बाद दूसरी अलमारी की ओर बढ़ीं  | मैं बिदक पड़ी --

-यह तो अम्मा की अलमारी है --|

-हाँ --हाँ मालूम है --जरा परे हट ,क्या चौकीदार की तरह खड़ी है |
मन मारकर मैं रह गई| काश !मैं भी उनकी तरह बड़ी होती तो ----?

उन्होंने छ :गिलास निकाले और उनपर 'ओ ' खुदवाने लगीं |

-ये तो अम्मा के गिलास हैं !
-अरे चुप रह !ख़बरदार जो किसी से कहा ---!
-अम्मा से भी नहीं-- !

मेरे शब्दों ने उनका मुँह सी दिया ।   इस गलत काम  से मैं  गुस्से में  फुसफुसा रही थी  ----

चोरी चटाक
तेरा --तेरा --
भोलुआ पटाक ।

माँ के आते ही मेरा इंजन चालू हो गया ----

-माँ --माँ, सत्तो काकी ने आपकी अलमारी में से ६गिलास निकाल लिए और उन पर ओ खुदवा दिया है |वे चाची की अलमारी में रखे  हैं |
-क्या मेरा -तेरा लगा रखा है ..जिस घर में जायेगी दो टुकड़े करा देगी --पूरी बात सुने बिना ही वे मुझ पर विफर पड़ी । |
सोचा था -- जासूसी पर मुझे  शाबासी मिलेगी मगर यहाँ तो सब गड्ड मड्ड हो गया| मैं रुआंसी हो गई |

माँ को शायद दया आ गई |प्यार से बोलीं --
-बेटा ,गिलासों में इसी घर के लोग तो पानी पीयेंगे ,फिर क्या फर्क पड़ता है वे मेरी अलमारी में रहें या चाची की अलमारी में |
ऊपर से मैं खामोश थी मगर अन्दर ही अन्दर उबाल खा रही थी --अम्मा बहुत सीधी  हैं ,इन्हें तो कोई भी लूटकर ले जायेगा |

उस समय मैं  उनकी बात नहीं समझी थी पर जैसे -जैसे प्रौढ़ता की चादर तनती गई उनकी सहृदयता व सहनशीलता की छाप मनोमस्तिष्क पर गहराने लगी |अब तो माँ  हमारे मध्य नहीं हैं पर उन्होंने डांट के साथ जो सीख दी ,उस से अंकुरित   फल -फूलों  से मेरी बगिया महक -महक पड़  रही है ।

फोटोग्राफी -सुधा भार्गव 

(अन्य समस्त चित्र गूगल से साभार )




शनिवार, 19 मई 2012

जब मैं छोटी थी

                                                           
  ॥15॥ चित्रकूट के रामघाट
सुधा भार्गव 

तुलसी के राम 

राम के हनुमान 
हनुमान के बानर 

चित्रकूट में !
 मेरी जन्मस्थली अनूपशहर बंदरों के लिए मशहूर  है पर मुझे छुटपन में  उनसे डर  लगता था ।मोहल्ले में 
मदारी बंदरों का तमाशा दिखाने  आता  तो देखती जरूर पर बहुत दूर से ।


 खाना बनाने वाली महाराजिन ताई ने एक दिन सम झाया--लल्ली,बंदर से डरेगी तो वह और डराएगा ,उसे देख भागेगी तो वह तेरे पीछे भागेगा इससे तो अच्छा है उनका डटकर मुकाबला कर ।
-मुकाबला करूँ !कैसे ताई ?  वह तो मुझे खा जायेगा !
न-- न -- शुभ -शुभ बोल बिटिया !  बन्दर को पास आते देख जो भी हाथ लगे -दांडी लाठिया या पत्थर ,उसे थाम बन्दर की ओर निशाना लगाने का नाटक कर ,वह तुरंत सहम जायेगा फिर धीरे -धीरे उसकी तरफ बढ़-- देखिओ दुम दबा कर भागेगा ।
मैं खुशी से उछल पड़ी और ताली बजाती बोली -अहा! अब तो लाल मुँह के बन्दर मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते ।
लेकिन एक महीने  बाद ही मुझे कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ा ।

 गर्मियों की छुट्टियों में हम मामा जी से मिलने बांदा(यू .पी .)गये I वहाँ से चित्रकूट कार से जाने का प्रोग्राम बना ।
मामा जी ने रास्ते में बताया -चित्रकूट  मंदाकिनी  नदी के किनारे बसा   है ।यह नदी छोटी गंगा भी कहलाती है ।
   वहां  बने सारे   घाट रामघाट कहे जाते  हैं क्योंकि राम लक्षमण और सीताजी  वहां नहाये थे । तुलसीदास जी  ने चंदन घिसकर राम जी के  तिलक लगाया था
तब तो मैं भी वहाँ उनसे  चन्दन लगवाऊँगी --सोचकर  उमंग से भर उठी ।
कार घाट से थोड़ी दूर पर ही रुक गई । सबने अपने -अपने नहाने के कपड़े प्लास्टिक बैग में लिए और चप्पल हाथ में पकड़ लीं  क्योंकि हमें  नंगे पैर पानी में चलकर जाना था ।एक ओर  पहाड़ियों  से बहता  जल चांदी की तरह चमक रहा था और सामने ----
 गंगा की एक पतली धारा इठलाती हुई छोटे -छोटे पत्थरों को भिगोती जा रही थी । उस में छपछप करती मैं आगे -आगे भागने लगी ।  कुछ दूर ही चली होऊंगी कि कदम रुक गये -----

पेड़ों पर बैठे   बन्दर झुण्ड की झुण्ड में गपशप कर  रहे थे ,कोई  कलाबाजी दिखा रहा था तो कोई  बेधड़क आने -जाने  वालों को घूर रहा था ।  मुझे तो लगा यह बंदरों का घाट है |




मैं चारों तरफ लट्टू की तरह आँखें घुमाने लगी  कि कोई बानर चिपट न जाये । नये बन्दर नयी जगह--- उनसे टक्कर लेना ठीक न समझा ।अम्मा आईं तो उनसे चिपक कर चलने लगी । तभी एक काले मुँह के बन्दर ने हमारा रास्ता काट दिया |मेरी तो चीख ही .निकल गई -काले मुँह का  बन्दर --यह  कहाँ से पैदा हो गया ।
सीधे हाथ को लाल मुँह के बन्दर और --और उलटे हाथ को काले मुँह के बन्दर !उनकी पूंछ भी इतनी लम्बी कि उसमें लपेटकर एक झटके में मुझे  ऊपर उछाल दें  ।
- डर मत बेटी,
ये काले मुँह के बन्दर लंगूर हैं --  बड़े सीधे  -सादे ।


-ये कालू क्यों हैं |
-,एक बार जंगल में आग लग गई । हनुमान जी की बानर सेना के कुछ बंदरों के मुँह जल गये,बस उन्हें लंगूर कहने लगे |
माँ  की बातें सुनकर मुझमें कुछ हिम्मत आई ।
छोटी  गंगा के घाट पर हम सब  पहुंचे ,बड़ी भीड़ थी ।




मेरी निगाहें तुलसीदास जी को  खोजने  में लग गईं  । थोड़ी दूर पर देखा -  चौकी पर एक लड़का  बैठा  है और  चंदन घिसकर  लोगों के तिलक लगा रहा है ।




 मैं बड़े अचरज से बोली -
-माँ ,ये तुलसी दास जी तो बड़े छोटे  हो गये हैं । आप की रामायण में तो बड़े -बड़े हैं ।
-अरे यह  तुलसीदास नहीं !|वे तो कई सौ साल पहले हुए थे ।अब भगवान् के घर बैठे हैं ।
-तो मैं उनसे नहीं मिल सकती ----|मैं दुःख से भर उठी |
बेमन से  नहा -धोकर लम्बा सा लाल चंदन का मैंने  टीका लगाया और  रट लगानी शुरू कर दी --जल्दी चलो भूख लग रही है।
भीगे कपड़ों की डोलची उठाई और लम्बे -लम्बे कदम रखती आगे -आगे चलने लगी |

पीछे से मौसी की आवाज आई ---
-मुन्नी ,साथ साथ चल |यहाँ के बन्दर बड़े खतरनाक हैं |
भला मैं उनकी बात क्यों सुनने लगी फिर बंदरों को भगाने वाली महाराजिन ताई की तरकीब मैं जानती थी |

थोड़ी दूर चलने पर ही मुझे लगा जैसे किसी ने मेरी उँगलियों पर अपने नाखून गड़ाये हों |घबराहट से मेरी पकड़ ढीली हो गई | देखा --एक बन्दर मेरी डोलची लिए भागा जा रहा है ।
मैं चिल्लाई ----बन्दर --बन्दर ! डोलची ले गया |
मामा जी ने तुरंत उसकी तरफ एक केला फेंका । बन्दर ने उसे फुर्ती से लपका और पेड़ पर चढ़ गया ।
  डोलची को नीचे ही छोड़कर जुट गया उसे  खाने में |
 मैं झट उसको उठा लाई ।

अब तो इस गंगा के घाट को जल्दी छोड़ने में ही भलाई हैं । ये बन्दर फिर न कोई बखेड़ा खड़ा कर दें -मामाजी बोले ।
कार में बैठते ही सब जोर से चिल्लाये --गंगा मैया की जय---श्री रामचंद्र की जय --|मैं चुप ही रही  ।
-तेरा मुँह क्यों फूला हुआ है ? माँ ने गुस्से में देखा ।
-मुझे बानर सेना पर बहुत गुस्सा आ रहा है हनुमान जी से मिलूंगी तो इनकी शिकायत जरूर करूंगी |
मेरी बात पर थके चेहरे हँसी से झिलमिलाने लगे ।
मैं गुस्सा और ये सब हँस रहे हैं मुझे और भी ज्यादा गुस्सा आने लगा |
वैसे मुझे अभी तक हनुमान जी  मिले  नहीं हैं  ।अगर आप में से किसी को मिलें तो जरूर बताना , मेरा पता तो आपको मालूम है ही
                                                                                                                                                                           

बुधवार, 18 अप्रैल 2012

जब मैं छोटी थी ----

॥14॥ मैं और मेरी किताबें
सुधा भार्गव 
बचपन से ही मुझे अपनी पढ़ी हुई  किताबों से बहुत मोह थाI एक कक्षा से दूसरी कक्षा में जाती तो पिता जी चाहते --किताबें किसी जरूरतमंद को दे दी जायें I
जैसे ही किताबों को देने की बात उठती मैं उनपर साँपिन की तरह कुंडली मार कर बैठ जाती और दूर -दूर तक निगाहें दौड़ाती --कोई इन्हें छूकर तो देखे I इसे मेरी नादानी कहो या मोह ,पिताजी तो मुझे देख हँस देते पर माँ ----
--कबाड़िया है कबाड़िया !दीमक चाट जायेंगी किताबें पर देगी नहीं किसी को I दहेज तैयार कर रही है दहेज़ !
उनकी बातें समझने की न मेरी उम्र थी न जरूरत I किताबों को बस जल्दी से अलमारी में सजा देती । इस मामले में इतनी डरी रहती थी कि उसमें एक छोटा सा ताला भी जड़ दिया I चाबी रखने की जगह बार -बार बदलती रहती कि कहीं वह किसी के हाथ न लग जाये और हो जायें मेरी किताबें चोरी ।
मैंने कक्षा 6 में कबीर के दोहे पढ़े ,बड़े अच्छे लगे ।

फिर मीरा और सूर में रूचि लेने लगीI तुलसीदास जी की चौपाईयां, दोहे ,छंद और सोरठा बड़ा परेशान करते थे I जायसी को पढ़ते समय तो दिमाग ही गायब हो जाता I तब भी इनके बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी चाहती I
अनूपशहर छोटी सी जगह --एक दो मुश्किल से किताबों की दुकानें I आठवीं कक्षा में पढ़ते समय कक्षा १० के स्तर की किताबें उठा लाती और हाई स्कूल में कक्षा १२ के स्तर की किताबें I बड़े चाव से भक्ति मार्ग के कवियों को पढ़ा करती I कोई भी कर्मचारी मेरठ ,अलीगढ़ या बुलंदशहर जाता तो ऊंची आवाज हो जाती - - पिता जी इनसे कहिये दुकानदार से किताबों का सूचीपत्र जरूर ले आयें I मेरी मन पसंद किताब को फिर वे डाक से मंगवाते I उन्होंने कभी मना नहीं किया I
धीरे -धीरे इस शौक के पंख लग गये।

रवीन्द्र ठाकुर का साहित्य , शरतचंद्र चटोपाध्याय के उपन्यास ,बंकिम चन्द्र ,मैथिलीशरण गुप्त का रचना संसार मेरी अलमारी में बसने लगा I
छोटे से कुंडे में छोटा सा ताला--- अलमारी का अच्छा खासा पहरेदार था ।
एक दिन अलमारी में   नीचे के रैक में अम्मा ने रंगीन् कागज में लिपटे कुछ उपहार रख दिये  I मुझे उनसे कोई डर न था इसलिए कभी उन पर ध्यान न दिया |
पता न था वे ही मेरे लिए एक दिन घातक सिद्ध होंगे ।

पहली अप्रैल को राजेश उत्साही जी के ब्लॉग गुल्लक पर निगाह पड़ी । सूखती किताबों में भीगता मन -पढ़कर मेरा सालों पुराना घाव टीस दे गया ।

वैसे तो काया पलट को एक पल ही बहुत है ,चार पाँच दिन तो बहुत होते हैं | कल्पना से परे जब कुछ घटित होता है तो ४४० वोल्ट का झटका लगता ही है |
मैं भी तो चार -पाँच दिनों को ही गई थी शादी के बाद ससुराल I लौटकर आई तो लग रहा था न जाने कितने दिन हो गये है मायका छोड़े I घूम -घूमकर देख रही थी कोना -कोना I अपने स्टडी रूम में भी गई। मालूम है किससे मिलने --अपनी किताबों से मिलने ।
कमरे का दरवाजा भड़ाक से खोला I अलमारी पर निगाह पड़ते ही बेहोश होते -होते बची I एक मिनट को तो सोचा किसी दूसरे कमरे में आगई हूँ I बाहर निकली फिर घुसी--- कमरा तो यही है फिर किताबें ---
कहाँ गईं ? रोम रोम चीत्कार कर उठा -- यहाँ तो एक भी नहीं हैं I बार -बार अलमारी पर निगाह डालती -- अरे ताला भी टूटा हुआ है ---------तब तो सारी किताबें---- हो न हो चोर ही ले गया है । आ गया होगा दीवार फांदकर --जरूर दो चोर होंगे --

एक ऊपर से फेंकता गया होगा, दूसरा छत से नीचे खड़ा होकर लपकता गया होगा । पागलों की तरह अलमारी की दीवार छू -छूकर देखती --कहीं इसमें तो नहीं समा गईं I अलमारी के पीछे झांककर देखा --कहीं उधर तो नहीं जा पड़ीं I जैसे -जैसे यह धारणा मजबूत होती गई कि किताबें अलमारी में नहीं हैं उतनी ही जोर से रोने की इच्छा होने लगी I
तिमंजिले से सबसे नीचे एक साँस में उतर गई --पिताजी --पिताजी मेरी किताबें कहाँ हैं ?ताला भी टूटा हुआ है --किताबें तो चोरी हो गईं -- मेरा गला भर्रा उठा |
-किताबें !किताबें तो लायब्रेरी को दान कर दीँ । लायब्रेरियन बहुत गरीब है उस बेचारे का भला हो गया ।
-बिना मुझसे पूछे --वे तो मेरी थीं
-शादी के बाद उनका क्या करती--- !
पिताजी की बात सुनकर सकते में आ गई और उन्हें घूरकर देखा -
-क्या ये मेरे पहले वाले ही पिता हैं
न मुझसे कुछ कहते बना न कुछ करते ही--- बहुत देर तक सोचती रही- चाबी पिताजी के हाथ कैसे लग गई ? दिमाग पर बहुत जोर डालने पर याद आया -- 
शादी के दो दिन पहले माँ ने अलमारी की चाबी मांगी थी ताकि उपहार के पैकिट निकाल सकें । उसके बाद मुझे चाबी लेने की याद नहीं रही। चाबी मेरे पास होती तो शायद ताला उनका रक्षक बना रहता - अब भी यह बात मेरे दिमाग में आती है ।
समय भी मेरी इस चोट पर मरहम न लगा सका। रह -रह कर मुझे बिछुड़ी किताबें याद आती हैं और दुखी कर जाती हैं। क्या करूँ ! मेरा इंतजार किसी ने  भी---- न किया ।


शुक्रवार, 13 जनवरी 2012

जब मैं छोटी थी



॥13॥ पतंगबाजी
सुधा भार्गव 
मैं जब छोटी थी आकाश में रंग बिरंगी ,झिलमिलाती पतंगों को देख कर मन करता--- पतंग उड़ाऊँ !पर कभी उड़ा नहीं सकीI जब भी डोर के सहारे पतंग को हवा में उड़ाने की कोशिश की ठक से वह जमीन पर गिर गई और फट गई I मैं दुःख में ड़ूब जाती ऐसा लगता मानो एक नाजुक सी चिड़िया ऊपर से आन गिरी हो और वह उठाने को कह रही हो I मैं धीरे से पतंग को उठाती .फटी जगह को गोंद से चिपकाने की कोशिश करती और कई दिनों तक उसे अलमारी में रखे रहती I

मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011

जब मैं छोटी थी


॥12॥ ताश के पत्ते 
सुधा भार्गव 



छुटपन में मुझे ताश खेलने -ताश खेलते हुए लोगों को देखने का बहुत शौक था। दिवाली पर तो मजे ही मजे थे।

मुझे दीवाली की वह रात अच्छी तरह याद है जब हमारे घर में ताश खेले जाने वाले थे।
तैयारी  दिन में ही शुरू हो गई । खेलने की जगह बहुत सावधानी से चुनी गई ताकि बाबाजी को लोगों के आने -जाने की और ताश पीटने की कानों कान खबर न हो ।

नीचे के तल्ले में कमरे के अन्दर कमरा !वहाँ  गुदगुदे गद्दों पर झकझक करती चादर  । ४-५ मसनद लग गये  ।उसी के पास नई ताश की तीन गड्डियाँ और करीब एक मीटर लम्बी माला रखी थी ।  उसमे तांबे के छेद वाले सिक्के पिरोये हुए थे  ।यह

सिक्का एक पैसे
का था। उन दिनों इसी का चलन  था ।तीन पत्ती ,ताश का खेल इन्हीं पैसों से खेला गया  ।  बाद में हारने -जीतने वालों ने  उसके बदले करेंसी देकर अपने भाग्य का निपटारा कर लिया I
 
पिता जी के कुछ मित्र अलीगढ़ से आये ।  वे वहीं के  पढ़े थे । पिताजी उर्दू के  खास ज्ञाता और उनके मित्र-- शायरी में उस्ताद ! हमारे घर में फ़ोन  तो नहीं था पर  उन्हें बुलाने के लिए खासतौर से एक कर्मचारी भेजा गया  । 
 
संध्या  होते ही नौकरों की छुट्टी कर दी गई ।  अम्मा -चाची ने देशी पान लगाकर चांदी  के डिब्बे में पहले से ही कमरे में भेज  दिये । सूखी  मेवा ,गुंजिया -मठरी प्लेटों में सजी मेहमानों का इन्तजार कर रही थी  ।कोने में रखा  कांसे का पीकदान मुझे  बाबा के पीकदान की याद दिला रहा  था  ।
 

ऐसे मौकों पर घर की कोई महिला पुरुषों के आगे नहीं आती थी  ।
अब ऊपर -नीचे के चक्कर लगाये कौन ?रहते थे ऊपर ,खेल होने वाला था नीचे । तब याद  किये गये  रामू और रमिया -एक आवाज पर तुरंत हाजिर --मैं बनी रमिया ,मेरा छोटा भाई बना रामू  ।

मेहमानों के आने से पहले हमारी ट्रेनिंग शुरू हुई -----
--कोई आये -हाथ जोड़कर नमस्ते करोगे ।  किसी के पत्ते दीख  जायें तो बताओगे नहीं ।  सीढ़ियों पर धीरे -धीरे चढ़कर जाओगे । मुझे  खासतौर से इशारा करके कहा गया ---ए मुन्नी लालाजी (बाबा ) जी से कुछ नहीं कहना । जानते थे बाबा से बिना कहे मुझे कोई बात नहीं पचती । इस समय तो ताऊजी की हां में हाँ मिलानी ही थी सो झट से गर्दन हिला दी ।

बिजली महारानी कभी भी आराम करने चली जाती थीं इसलिए शीशे की चिमनी वाला  पीतल का बड़ा  सा  लैम्प साफ करवाकर रखवा दिया गया था I बड़ा सावधान लग  रहा था कि अँधेरा होते ही सौ दीयों के बराबर जल  उठूँगा I


रात के ग्यारह बजते -बजते अंकल आने लगे । काले अंकल मुझे अभी तक याद है ।  कोयले की तरह काले पर सिर के बाल रुई की तरह सफेद, चमकदार ।  धोती -कुरता भी पहनते  एकदम सफेद झकझक।   हाथ में लिए रहते छड़ी  और चलते बड़ी शान से ।उस दिन भी जैसे ही  उनके इत्रका झोंका आया समझ गई काले अंकल आ गये ------I

इस मित्र मंडली में डाक्टर अंकल  सिख थे ,तहसीलदार अंकल क्रिश्चियन थे और शायर अंकल मुस्लिम   थे I
वे मुझे साथ -साथ बैठे बहुत अच्छे लग रहे थे I
 ठीक वैसे ही जैसे ये चार पत्ते
अलग -अलग फिर भी जुड़े हुए I


ताऊ जी की आवाज आई -बेटा ,गिलास पानी तो पिलाओ । मैं गिलास लेकर हाजिर !
कुछ अंकल सिगरेट पीते थे मगर शौचालय में जाकर --शिष्टता के दायरे में।  खेल तो शुरू हो गया मगर  तम्बाखू वाले पान बहुत तेजी से खाए जा रहे थे । ख़त्म होते  ही पुकार मच गई -मुन्नी बेटा --पान तो लगा दे ।देख वह रखा पानदान

-ताऊ जी इसमें सुपारी तो है  ही नहीं ।
--ओह अच्छे बच्चे ,ऊपर जाओ ,अपनी ताई से कटवाकर ले आओ I
--चिकनी सुपारी और बनारसी तम्बाखू भी मेरी गोदरेज (अलमारी ) से ले आना ।  चाबी देते हुए पिताजी बोले।
--मैं चाबी लेकर दूसरी मंजिल भागी मानो वह कुबेर के खजाने की चाबी हो ।
--'कितने मुश्किल से चाबी हाथ लगी है आज जरूर खखोड़बाजी करूँगी । 'सोच -सोचकर मैं झूम उठी ।

ऊपर के रैक में कपड़े उलट -पलट किये -

-अरे यह क्या ! कन्नौज का इत्र --शीशी खोलूं --न बाबा न ---एक बूंद कपड़ों पर टपक पड़ी तो चोरी पकड़ी जायेगी ।
दूसरा रैक देखा -करीने  से सजी सफेद कमीजें और पतली किनारी वाली धोतियाँ व  रुमाल । धोतियों की गड्डी उठाई तो नीचे रखी थी नोटों की गड्डी ।
--हे भगवान् !किसी ने मुझे छूता देख लिया तो चोर समझ बैठेगा।तम्बाखू का डिब्बा उठाकर धड़ाक से दरवाजा बंद किया । .एक छलांग में दो -दो सीढ़ियाँ पार करती हुई रमिया सेवा में  फिर हाजिर हो गई।
 खेल जोरों पर था----------
 


मुन्ना को तो नींद आई ,वह सोने चला गया। मेरी आँखों से तो नींद छू मंतर !जागने का एक ख़ास कारण भी था --जिसकी ट्रेल निकलती वह मुझे चवन्नी दे रहा था । मैं तो खुशी के समुद्र में डूबी जा रही थी । अंकल लोगों की सेवा करने से  ,मेवा खाने को मिल रही थी ।  बीच -बीच में शेर -शायरी सुनने को मिलती ।  मेरी समझ से तो बाहर था मगर सब वाह -वाह करते तो मैं भी वाह -वाह कर देती।

सुबह के चार बजते -बजते खेलने वाले उखड़ने  लगे। कुछ ने नाश्ता किया कुछ ने नहीं । न तो चाचा जी -पिताजी चाहते थे किसी को ताश खेलने की भनक पड़े और न ही खेलने वाले चाहते थे कि दरवाजे से निकलते हुए कोई उन्हें देख  ले ।

मैं कुछ -कुछ समझ  गई कि
खेलने वालों को खेल की सीमा और अपनी मान -मर्यादा का ध्यान है और उनके दिल में उमंग -उल्लास और स्नेह  की बाती जल रही  है जिसकी रोशनी में वे आज मिलकर आनंदित होना चाहते हैं  I

दिवाली तो आज भी मनाते  है पर वह  सदभावों का दरिया कहाँ ! लगता है त्यौहार झूठी शान -शौकत से भरा कोरा व्यवसाय हो गया है।
आओ एक दीप जलाएं

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मंगलवार, 16 अगस्त 2011

जब मैं छोटी थी


॥11॥खट्टी-मीठी इमली 
सुधा भार्गव


मैं जब छोटी थी मुझे इमली .बेर ,जामुन खाने का बड़ा शौक था। लेकिन उन्हें खाते ही खांसी हो जाती।गले से ऐसी आवाज निकालती मानो कुत्ता भौंक रहा हो | 

मुझे खांसता देख पिताजी को बहुत दुःख होता मानो उनकी दुखती रग को किसी ने  दबा दिया हो। वे  साँस के मरीज थे। हमेशा उनके दिमाग में खौफ की खिचड़ी पकती रहती ---कहीं यह रोग किसी बच्चे को विरासत में न दे जाऊँ।



सोमवार, 6 जून 2011

जब मैं छोटी थी


॥10॥ तरबूज खरबूज की बहार 
सुधा भार्गव


  छुटपन में मुझे तरबूजे -खरबूजे खाने  का बड़ा शौक था।





गरमी के दिनों  में अनूपशहर में  गंगा नदी बहुत दूर चली जाती  हैं और छोड़ जाती हैं अपने पीछे बड़ा सा रेतीला मैदान जहाँ खरबूजे -तरबूजे की खेती होने लगती  है।                                



                                                                          बाबा रोज गंगा नहाने जाते  थे। मैं और मेरा छोटा भाई भी साथ हो लेते।रास्ते में खेत  मिलते। उनमें छोटी - छोटी -हरी ककड़ियों को देखकर मैं जैसे ही  तोड़ने को हाथ बढ़ाती जोर का धमाका  होता ---मुन्नी ----!जैसे बम  फूटा हो --!बढ़े हाथ तुरंत पीछे हो जाते।

एक बार रेतीले मैदान में धोबी का लड़का कैलाशी मिल गया  ।उसे देखकर  मैं बहुत खुश हुई ।सोचा--अब तो यहाँ   खूब धमाचौकड़ी करेंगे। उसके बाप ने भी
खेती की थी। गंगा स्नान के बाद बाबाजी पूजा के लिए बैठने ही वाले थे कि वह आया और बोला ---
--बाबू जी इन्हें अपना खेत दिखा लाऊँ ।

--ले जाओ लेकिन जल्दी आना।
  तीर की तरह वहाँ से हम निकले कहीं बाबा अपना इरादा न बदल दें।
कैलाशी मेरी उम्र का दस -ग्यारह वर्ष का होगा । हम एक -दूसरे का हाथ पकड़ते -मटकते चल दिये ।

रेतीला खेत बहुत दूर था  । सूखी बालू में चलने की आदत भला कहाँ !




 ----एक पैर उठाते दूसरा रेत में घुस जाता । कभी  चप्पल अन्दर घुस  जाती, केवल  पैर ही बालू से निकल  पाता ।
कैलाशी ने मुन्ना को तो अपने कंधे पर बैठा लिया और  मुझसे बोला ----
-नंगे पैर चलो और चप्पलों को हाथ में ले लो।
चलने में थोड़ी सुविधा हुई
। अच्छा हुआ सूर्य महाराज का मिजाज ठंडा था सो बालू  गर्म नहीं हुई   वरना   तलुए ही झुलस जाते।

थोड़ी दूर चलनेपर मैं तो हांफने लगी।कैलाशी मुन्ना को लिए हिरन की तरह भाग रहा था।
मैंने आवाज दी ,ओ-- कैलाशी-- धीरे चल ,मैं रास्ता भूल जाऊँगी ।
वह एक क्षण रुकता ---फिर भागने लगता मानो उसके पैरों में पहिये लगे हों।

हमको आया देख धोबी काका(कैलाशी के पिताजी )बड़ा खुश हुआ।उसने अपने लाल ,पतले अंगोछे  से लकड़ी का तख़्त झाड़ा और प्रेम से बैठाया।

कैलाशी की बहन पारो ने  फुर्ती से ३-४ हरी -मुलायम
ककड़ियां तोड़ीं ।पानी से धोईं।
बोली --भैया ,खाओ --दीदी  तुम भी खाओ।
हम खाने में सकुचा रहे थे।वह ही ---ही करके हंस पड़ी।
--अरे तुम्हें खाना भी नहीं आता ---!देखो ऐसे खाते हैं -------।

उसने झट से एक ककड़ी दाँतों के बीच में दबाई।खट से आवाज हुई।मुँह में ककड़ी छप -छप चबाने लगी।
मैंने भी बकरी की तरह ककड़ी चबानी शुरू कर दी। ऐसा मजा आ रहा था कि अपनी सारी थकान भूल गई।
                              
      **            
-चलो ,तुम्हें खेत  की सैर कराता हूं।धोबी काका स्नेह से बोले। उन्होंने मेरे मुँह की बात छीन ली ।
बालू  में भी बड़ी मेहनत से क्यारियां बनाई गयी थीं। बीच -बीच में सरकंडे और बांस की खप्पचियां लगी थीं ताकि  बालू सरक न जाय।

एक क्यारी में नये -नये पत्तों के साथ मुलायम गद्दे पर  बेल फैली हुई थी।




 और ककड़ियाँ हिलमिलकर लेटी  थीं।दूसरी क्यारी में खरबूजे लुढ़क  रहे थे।मैंने  छोटा  सा खरबूजा तोड़ने को हाथ बढ़ाया।काका ने टोक दिया--
-अभी यह छोटा और कम  उम्र का है बड़े होने पर पकेगा
.मीठा भी हो जायेगा तब इसे तोड़ेंगे।
खरबूजा बच्चा शरारत से ठेंगा दिखाने लगा ।
  कैलाशी  एक खरबूजा् लेकर भागा -भागा आया।अपनी हथेलियों के बीच उसे जोर से दबाया  --दो टुकड़े हो गये।रसीले गूदे से भरा एक मेरी हथेली पर रखा दूसरा मुन्ना की हथेली पर।
बोला --खाओ।
-कैसे खाऊँ ?चाकू से पहले फांकें काटो।
-छोटे बाबू ,यहाँ चाकू कहाँ से आया।कटा हुआ आम छिलके के साथ कभी खाया है ---!
-हाँ !हाँ ---खाया है ।
-कैसे खाया --जरा बताओ।
-गूदा -गूदा खा लिया --छिलका-छिलका फ़ेंक दिया।
-तुम तो बहुत चतुर हो। बस ऐसे ही खरबूजा खा लो।

उसने खरबूजे के दो टुकड़ों के चार टुकड़े कर दि्ये। एक
टुकड़े  को  दोनों हाथों से पकड़ अपने  दांत उसमें  गड़ाये।देखते ही देखते गूदा चट  कर गया। छिलका  फ़ेंक दिया । हम भी उसकी नक़ल करने लगे। हरा--- .चीनी सा मीठा गूदा खरबूजे का---जल्दी ही पेट में समा गया।

खाते -बतियाते हम आगे बढ़ गये । दूर से मुझे काले सिर दिखाई दिये ।
-कैलाशी ,तुम्हारे खेत   में धूप में  भी  लोग सोते  रहते हैं क्या ?
-क्या कहा !--कहाँ  सोये हैं ---उसने लट्टू सी आँखें घुमायीं ।
उंगली उठाकर मैंने नाक की सीध में दूर इशारा किया।उसका तो हँसते -हँसते बुरा हाल हो गया।पेट पकड़ कर बैठ गया।  मैं हैरत में रह  गई।
क्यारी के  पास आये तो लगा कोई सोया -वोय़ा नहीं है बल्कि हरे -काले -पीले मटके औंधे  पड़े हैं।

-बाप रे !कितने बड़े चिकने -मोटे घड़े हैं ये जमीन पर क्यों रखे हैं ---फूट गये तो ---मुन्ना भाई  चकित हो उठा…।
-ये मटके नहीं हैं बाबू!ये तो तरबूज हैं।इसे  खाते हैं।तुम तो हमें बहुत हँसाते हो--ह--ह--ह--ही--ही--।
-मैंने तो इसे कभी खाया ही नहीं।
-अभी काट कर खिलाता हूं।
काटा तो अन्दर से एकदम लाल ! तरबूज  भी हमारी बातों
पर खूब हंसा होगा ।तभी तो उसका गोरा -गोरा मुँह  हँसते -हँसते लाल हो गया है--कैलाशी बोला ।
उसमें बहुत कम काले बीज थे।स्वादवाला और मीठा -मीठा तरबूज  कैलाशी के  छोटे   भाई की तरह


हम  गपागप खा  गये ।

हम सब बुरी तरह थक गये थे।बाबा के पास हमें पहुँचाने के लिए धोबी काका साथ आया।उसके सिर पर एक टोकरी थी।जिसमें रखे तरबूजों की खुशबू मेरी नाक में घुसी जा रही थी। पेट में तो तरबूज ठूसम-ठास भर लिया था पर मन कर रहा था इन्हें भी खा जाऊँ।

बाबा तो सफेद चंदन का टीका लगाये माला फेर रहे थे --ॐ ---ॐ ---ॐ ।
-डाँ .बाबू ,यह घर के लिए ------|

-तुम तो बहुत सारे तरबूजे  ले आये हो।
-बाबूजी मना मत करो । आप आये दिन मेरे बच्चों को अपने  बच्चे समझ  इलाज करते रहते हैं।क्या मैं इतना भी नहीं कर सकता।
बाबा उसके अपनेपन को देखकर चुप हो गये।

उस दिन तरबूजे -खरबूजों के घर की खूब सैर हुई।अब तो  न धोबी काका जैसा इंसान मिलता है न ही गंगा के उस  किनारे जाना होता है जहाँ मेरा जन्म हुआ ।लेकिन जब भी बाजार में खरबूज -तरबूज देखती हूँ धोबी काका और उनके स्नेह में भीगे तरबूज  -खरबूज खूब याद आते हैं जिनका स्वाद ही निराला था।


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