॥ 3॥ प्यारा-न्यारा पान 
सुधा भार्गव
      छुटपन
से ही मैंने परिवार में सबको पान-तम्बाखू चबाते देखा। खुद भी खाते और आने-जाने
वाले को भी पान खिलाते। बड़े से आले में रखा पीतल का पानदान साथ में मोर की कलगी
वाला सरौता-----वह तो  कुछ ही समय में मोती-मोटी
सुपारियाँ काट कर रख देता। खाली समय में अम्मा –चाची खटखट सुपारी काटने बैठ जातीं
और शुरू कर देतीं कभी खतम न होने वाली बातें। 
      चूने-कत्थेकी
ढेली की ढेली बाजार से आतीं। चूना मिट्टी की हँडिया में भीगने को कई दिन तक पानी
में पड़ा रहता। तब कहीं पान में लगाने लायक होता। कत्था भी घर में ही तैयार होता।  
      गर्मी
की छुट्टियों में तो पान की बहार देखते ही बनती थी। ताई-ताऊजी,चाचा-चाची,अम्मा-पिता जी मिलकर पान चबाते। मेरे
पूर्वजों में जरूर कोई शाहजहाँ की अम्मी नूरजहाँ के दरबार में रहा होगा। उसके समय
ही तो लोगों को पान से इतना प्यार हो गया था कि हमेशा उसे अपने मुंह में बैठाए
रहते। बेगम तो चली गई पर उसकी संगत के जाल में मेरा घर अभी तक  फंसा हुआ है। अम्मा हमारी पान कम ही खाया करती
थी। ताई जब मज़ाक के मूड में होती तो कहती-अरे मुन्नी की माँ–ले पान खा –होंठ भी हो
जाएंगे लाल और जबर्दस्ती ठूंस देती पान उनके मुंह में। उनकी हंसी ठिठोली में मुझे
भी बड़ा आनंद आता। 
      पिता
जी ऑफिस जाते तो पान का चांदी का चमचमाता डिब्बा बड़ी शान से उनके साथ चल देता।
उसके तीन हिस्से थे एक मैं अम्मा बीड़े लगाकर रखतीं और दूसरे में कटी सुपारी और तीसरे
में चांदी के बरक वाला –खुशबूदार---बनारसी तंबाखू।  इसे पिता जी बनारस से ही मँगवाते। यह खास मौके
पर खास लोगों के लिए ही था। सबकी पहुँच से बाहर छोटी गोदरेज  की अलमारी में बंद। काली -पीली पत्ती वाला
तम्बाखू तो बनारसी तंबाखू के सामने बड़ा बदसूरत लगता। वह और किमाम  पानदान के पास ही रखे रहते। जिसका मन करता पान
में चुटकी भर छिड़क लेता। 
कहने को तो सब पान चबाते रहते थे---- खाली पेट भी
भरे पेट भी। पर मुझे यह आदत जरा भी नहीं सुहाती थी। हर एक के कमरे में पीकदान
लेकिन पलंग के नीचे थूकी कुचली सुपारी पड़ी रहती । मेरे पैर के नीचे आ जाती तो
घिनना उठती। नालियों में तो पीक के दाग। रुमाल में तो दाग ही दाग । अम्मा तो कभी -कभी  अंजाने में साड़ी के पल्लू से ही मुंह पौंछ लेती
और वहाँ भी पान की लाल परछाईं चिपक जाती। यह सब देख हम भाई-बहन नाक भौं सकोड़ लेते
और पान न खाने की कसमें खाते। 
      एक
दिन एक साधु बाबा पिता जी से मिलने आए। वे बाबा के गुरू थे। कोई घर में मुश्किल आ
जाती ,उनसे राय जरूर लेते। पिता जी ने उन्हें बड़े आदर से पान दिया और उन्होंने
पिता जी को सिर पर हाथ रख  ढेर सा आशीर्वाद
दिया।  साधुबाबा को पान खाते देख मैं तो हैरत
में रह गई—साधु होकर पान के शौकीन! भगवान के भक्त को तो कम से कम इस गंदे पान से
दूर रहना चाहिए।
      उनकी
ओर मुंह बिदकाते हुए पूछ बैठी-“आप भी पान खाते हो? 
     “हाँ
बेटा,इसमें बुराई क्या है?पान खाना –खिलाने का रिवाज बहुत
पहले से चला  आ रहा है। बहुत पहले गुरू पान
का एक टुकड़ा खुद खाकर बाकी शिष्य को देते थे,मतलब आज से तुम
मेरे शिष्य हुए। अब गुरू के घर तो रहकर कोई नहीं पढ़ता पर गुरू-शिष्य के बीच प्यार
तो है। तुम्हारे पिता ने आदर से मुझे पान दिया तो कैसे मना कर सकता था। मैं भी
उन्हें दिल से प्यार करता हूँ और तुम सबकी भलाई चाहता हूँ।”
      मैं
इस बात को पचा नहीं पाई कि एक साधु पान खाए। उफ वह भी जूठा! बंदूक की तरह फिर प्रश्न
दाग दिया--- 
      “आप एक
दिन में कितने पान और सुपारियाँ खाते हो ?”
    “तुम तो मेरी अच्छी खबर ले रही हो। मेरी माँ भी
पान के खिलाफ थी। उन्हें हमेशा डर बना रहता था –पान के बहाने तम्बाखू न खाने लगूँ।”
    “आप सच
बोल रहे हो ? तम्बाखू नहीं खाते---!” 
    “एकदम
सच! भला अपनी मुन्नी रानी से कैसे झूठ बोल सकता हूँ? पान भी
खाने के बाद बस एक बार ही लेता हूँ, इससे खाना पच जाता है।” 
     मन में
थोड़ा सा विश्वास जगा कि ये बाबा तो अच्छे हैं। 
     उस दिन
तो हद हो गई। मास्टर जी मुझे पढ़ाने आए। पिताजी ने उनकी जोरदार आवभगत करते हुए पान
की डिब्बी खोली और उनको एक पान  दिया। मैं
सहम सी गई। अब जरूर पान की पीक मेरी किताबों पर टपकेगी। पिताजी पर  बड़े ज़ोर से झुंझलाहट हुई। खुद तो खाते ही हैं –न
खाने वालों को भी खिला देते हैं। मेरे बिगड़े मिजाज का अंदाज शायद मास्टर जी को तो
लग गया था। इसीलिए उन्होंने मुझे खुश करने के लिए पान की कहानी से ही किया  पढ़ाई का श्रीगणेश ----
    एक दिन
राजा अकबर ने दरबारियों से कहा-“कल सबसे बड़ा पत्ता लेकर आना।” 
     दूसरे
दिन कोई केले का पता लाया तो कोई नारियल का तो कोई बड़ का । बीरबल खाली हाथ हिलाते
चले आए। 
     “बीरबल,तुम पत्ता नहीं लाए?”अकबर ने पूछा। 
      “हुजूर,मैं क्या करता लाकर!
मेरा पत्ता तो महल में पहले से ही मौजूद है। ” 
     “तो
जल्दी से दिखाओ न। देरी किस बात की है ?” 
     “ओह
महाराज! जल्दी किस बात की है?पहले पान-शान तो खा लिया जाए।”
     उसके इशारे पर एक सेवक पान का बीड़ा लगाकर लाया।
     “वाह!गज़ब
का स्वाद है”। कहते हुए अकबर पान खाने लगे। उसके स्वाद में पत्ते वाली बात ही भूल
गए। लेकिन दरबारी चुप बैठने वाले नहीं थे। 
     एक
दरबारी ने चुटकी ली-“यह पान खाने की बात कहाँ से आन टपकी। बीरबल की तो समझ में ही
नहीं आया है कि बड़ा पत्ता  कौन सा है? तभी तो खाली हाथ चला आया।’’ 
    “अरे
हाँ बीरबल –अपना पता तो दिखाओ।‘’ 
    “कहाँ
से दिखाऊँ?मेरा पत्ता तो आप खा गए।’’
    “तुम्हारा
पत्ता ---मैं खा गया----क्या बात करते हो?”
    ‘महाराज ,मैं सच कहा रहा हूँ। सारे दरबारियों ने यह
देखा है।’’
     ‘ओह,पान का पत्ता’ –राजा ज़ोर से
हंस पड़े। 
    मुझे भी
हंसी आ गई। मेरे मुख पर खेलती हंसी को देख मास्टर जी को चैन मिला।
     ‘फिर क्या हुआ?बीरबल जीत गया क्या?” मैंने उतावलेपन से पूछा। 
     “बिलकुल जीत गया।
पान का पत्ता  छोटा होता है पर इसमें बड़े
गुण होते हैं। इससे दाँत मजबूत होते हैं। खांसी –जुखाम में यह फायदा करता है।
इतने  गुणों के कारण ही यह सबसे बड़ा
पत्ता  कहलाता है। राजा को ही नहीं यह सबको
अच्छा लगता है। भगवान को भी अच्छा लगता है। पूजा के समय इसकी जरूरत पड़ती है। 
      “हाँ
याद आया----। गणेश भगवान जी को भी तो पान अच्छा लगता है दिवाली पूजन के समय गणेश-लक्ष्मी की फोटो पर पान पर चांदी का सिक्का रखकर
चिपकाया गया था।“ 
     कहानी खत्म
 होने पर मैं खुशी-खुशी पढ़ाई में जुट गई।
     पान की
करामातें कहाँ तक गिनाऊं---। पान न खाने वाली मेरी माँ को तो इसने अपना गुलाम बना
लिया। उपवास के दिन वे सारे दिन कुछ न खातीं, रात को ही भोजन
करतीं पर खाली पेट पर पान खाना शुरू कर देती थीं। शाम तक बीस पान तो हो ही जाते थे
वे भी तम्बाखू के साथ। 
     इस
तम्बाखू के कारण उनके पेट में जलन और गैस बनने लगी। जीभ पर  छाले और घाव हो गए। डॉक्टर ने साफ कह दिया-पान
खाना नहीं छोड़ा तो गले का कैंसर हो सकता है। उस दिन से घर में पान खाने पर पाबंदी
लग गई। मैं तो बड़ी खुश हुई हटी-गंदगी। पर माँ एक साथ तम्बाखू न छोड़ सकीं। चोरी-छिपे
बाजार से मंगा ही लेतीं--- हाँ पान खाना जरूर कम हो गया। तम्बाखू के नशे ने अम्मा
को बहुत कष्ट  पहुंचाया। 
       सोच
सोचकर मैं अधीर हो उठती –घर में सब पढ़े -लिखे,डॉक्टर भी घर के, तब भी तंबाकू जैसे निशाचर की छाया में रहने लगे हैं। 
        हम
नई पीढ़ी में किसी ने पानदान को घर में जगह नहीं दी। लेकिन पान तो पान ही है----
शादी-विवाह में 2-3 पान खाने से नहीं चूकते। माह में एक दो बार पनवाड़ी के चक्कर भी
लगा आते हैं। पान को देख जीभ तो सभी की मचल मचल जाती है पर इसको हमेशा दिल से
लगाना ठीक
नहीं।
नहीं।
समाप्त